Book Title: Samipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 45
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'नित्यम्' का उपास्महे पद के साथ भी अन्वय करते हुए ना.द. कार आगे स्पष्टता करते हुए कहते है - "नित्य' का यहाँ 'उपास्महे' पद से भी अन्वय होता है । इसमें उपासन का अविच्छेद (=नैरन्तर्य) सूचित होता है । द्वादशरूप अर्थात् आचारांग सूत्र से लेकर द्रष्टिवाद तक जैनधर्म के बारह मुख्य अंक । यहाँ पर प्रसिद्ध बारह मुख्य अंग ही अभिप्रेत है, अन्य जैन आगमादि नहीं, क्योंकि उनकी तुलना बारह रूपकों के साथ नहीं हो पाती । _ 'विश्व' पद समुदाय की दृष्टि से एकवचन में है। विश्व अर्थात् कर्मभूमि के प्राधान्य को लेकर मनुष्यलोक अथवा पूरा विश्व (संसार) । न्याय्य पद की धर्मपथ्यर्थ इत्यादि सूत्र से न्याय्य अर्थात् न्याय में यत् प्रत्यय करने से सिद्धि होती है। न्यायानुकूल मार्ग में 'धृतं' अर्थात् व्यवस्थित किया । यह व्यवस्थापन तीनों काल में होने से अतीत (भूतकाल का) निर्देश किया है । क्योंकि धृतम् पद से प्रतीत होता अतीतनिर्देश वाणी के अनादित्व को सूचित करता है । (वही. पृ. ९, १०) द्वितीय व्याख्या : ना.द.कार प्रस्तुत मंगल की अभिनयपरक व्याख्या करते हैं - (२) यद्यपि साक्षात् धर्म - अर्थ - कामफलान्येव नाटकादिनि तथापि 'रामवद् वर्तितव्यं न रावणवद्' इति हेयोपादेय - हानोपादानपरतया, धर्मस्य च मोक्षहेतुतया मोक्षोऽपि पारम्पर्येण फलम् । 'नित्यम्' इत्यनेन चतुर्वर्गफलान्येव रूपकाणि निबन्धनीयानि इति ख्याप्यते । जिनानां रागादिजेतृणां लक्षणप्रणयनापेक्षेयं जैनी । न नाम सर्वत्रोपदिष्टं लक्षणं न । नवेक्षाऽर्वाचीनदृशः संक्षेपविस्तराभ्यां तत् कर्तृ प्रभवन्ति । यद्यपि नाटकादि रूपक प्रकार धर्म, अर्थ, और काम इन तीनों में से किसी एक फल को साक्षात् रूप से प्रदान करते हैं। फिर भी 'राम की तरह वरताव करना चाहिए रावण की तरह नहीं' इस तरह हेय और उपादेय (परित्याज्य और ग्राह्य) परक होने से परंपरा से धर्म भी नाटकादिके रूप में मोक्ष रूप फल का कारण हो सकता है। 'नित्यम्' से चतुर्वर्ग फलरूप नाटकादि का ही निरूपण कवियों को करना चाहिए यही बात यहां सूचित की गई है । 'जिनों' से अर्थात् रागादि के विजेता सन्तों का ग्रहण भी यहाँ होता है अतः रागादि को वश में करनेवालों की यह वाणी साक्षात् रूप से - अपने मूल रूप में (जिनों की न होने पर भी) रचना की दृष्टि से जिनों की ही कही जा सकती है। और सर्वत्र उपदिष्ट अर्थ लक्षण न हो ऐसी कोई बात नहीं है । नवीन दृष्टिवाले अर्वाचीन भरतादि उसको विस्तार से कह सकते हैं । 'वाचम्' को स्पष्ट करते हुए ना.द.कार बतातें है कि 'वाचम्' अर्थात् नाटकादि रूप वाणी का 'उपास्महे' अर्थात् हम परिशीलन करते हैं । 'नित्यम्' पद इस अभिनय परक अर्थ में भी - 'चतुर्वर्ग' और 'उपास्महे' दोनों पदों के साथ वंदनपरक अर्थ की तरह यहां भी जोडा गया है। अभिप्राय यह है कि, नाटकादि का सतत परिशीलन न करनेवाले विद्वान को - नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रन्थ रचनेवाले औचित्य को प्रतिपादित करनेवाले-उनको उचित नियमों के प्रतिपादक विद्वान् कैसे कह सकते हैं । 'रूपक' शब्द की व्युत्पत्ति विशद करते हुए दोनों ग्रन्थकार कहते हैं - रूप्यन्ते अभिनीयन्ते इति ४० सामीप्य : मोटो. २००६ - भार्थ, २००७ For Private and Personal Use Only

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