Book Title: Samipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हो न ? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है ?" यह सम्पूर्ण परिवेश वात्सल्य ग्राम रचयिता है। भगवान कृष्ण की बाललीला ( ६, ६, १० - १२) तथा बालक प्रद्युम्न (५-२७-१२) के प्रकरणों में वात्सल्य रस उपस्थित है । ११. भक्ति रस : प्राचीन आचार्यों ने भक्ति रस को देवता विषयक रति मानकर केवल भाव कोटि में ही निर्दिष्ट किया था परन्तु गौड़ीय वैष्णवों ने इसे रस ही नहीं प्रत्युत् सर्वोत्कृष्ट और आदि रस की मान्यता प्रदान की । रूप गोस्वामी के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' तथा 'उज्जवलनीलमणि' नामक ग्रन्थों में 'भक्ति' की तत्वविवेचिनी व्याख्या मिलती है । 'भक्ति रस' को काव्य रस में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान दिलाने में आचार्य मधुसूदन सरस्वती के योगदान को कथमपि विस्मृत नहीं किया जा सकता । भक्ति रस का स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति विशेषकर कृष्ण तथा राम विषयक रति । आलम्बन ईश्वर का कोई रूप विशेषकर कृष्ण तथा राम का कोई रूप, भक्तों का समागम, तीर्थों का सेवन, नदी का एकान्त, पवित्र स्थल आदि उद्दीपन हैं । भगवान के नाम तथा लीला का कीर्तन आदि अनुभाव तथा मति, हर्ष आदि सञ्चारी भाव हैं । विष्णुपुराण १ - १८ में वर्णित भक्त प्रवर प्रहलाद कृत भगवत् स्तुति, (१-२० में भी), २- १५ में ऋषि द्वारा निदाघ को अद्वैत ज्ञानोपदेश, २-८ विष्णु आराधना, ५- २ में भगवान के गर्भ में आ जाने पर देवगण द्वारा पारमार्थिक स्वरूप के वर्णन में भक्ति रस की विशिष्ट उद्भावना पठनीय है। अन्य प्रकरणों में भी यथास्थान विष्णु विषयक भक्तिसूत्र एवं स्रोत दिखलायी पड़ते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान प्रहलाद की स्तुति सुनकर कहते हैं कि 'हे प्रहलाद ! मैं तेरी अनन्य भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुझे जिस वर की इच्छा हो माँग ले ।' प्रत्युत्तर में प्रहलाद कहते हैं कि 'हे नाथ ! सहस्रों योनियों से मैं जिस-जिसमें जाऊँ उसी में हे अच्युत् ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति बनी रहे । अविवेकी पुरुषों की विषयों में जैसी अविचल प्रीति होती है वैसे ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से कभी दूर न हो ।' 'कुर्वतस्ते प्रसन्नोऽहं भक्तिमव्यभिचारिणीम् । यथाभिलषितो मत्तः प्रहलाद क्रियतां वरः ॥ १-२०-१७ 'नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाभ्यहम् । तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥ या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥' १०-२० - १७, १८ यहाँ भगवान विष्णु आलम्बन तथा भक्तराज प्रहलाद आश्रय हैं । भगवान् विष्णु की उपस्थिति और उनकी कृपा उद्दीपन है । प्रहलाद द्वारा भगवान का गुणकथनादि अनुभाव तथा विष्णु विषयक भक्ति स्थायी भाव है । उक्त समीक्षात्मक विवेचन के आधार पर असन्धिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि विष्णुपुराण विष्णुपुराण में रस- योजना : एक समीक्षात्मक विवेचन For Private and Personal Use Only ૨૯

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110