Book Title: Samipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में रसयोजना समर्थ सशक्त तथा प्रभावी है। इतना अवश्य है कि अन्य रसों की अपेक्षा शान्त तथा भक्ति रस की विशेष स्थिति है । ऐसा होना समीचीन भी है क्योंकि विष्णुपुराण का जो प्रमुख प्रतिपाद्य है वह है श्रोता या पाठक के हृदय में विष्णु विषयक अविचल भक्ति का बीजारोपण तथा विवर्धन । सन्दर्भ: م م له 63 स्वादुकाव्यरसोन्मिश्रं शास्त्रमत्युपयुंजते । प्रथमालीढमधवः पिबन्ति कटुभेषजम् ॥ काव्यालंकार ५-३ वाक्यं रसात्मकं काव्यम् साहित्य दर्पण प्रथम परिच्छेद नमो नमः काव्यरसाय तस्मै निषिक्तमन्तःपृषतापि यस्य । सुवर्णतां वक्त्रमुपैति साधोदर्वर्णतां याति च दर्जनस्य ॥ परिमल पद्मगप्त - नवसाहसाङ चरितम १-१४ रसौ वै सः रस ह्येवायंलब्ध्वाऽनन्दी भवति । तैत्तरीयेपनिषद् २-७-२ अस्तवस्तुषुमावाभूतकविवाचि रसः स्थितिः । पाल्यकीति (राजशेखर कतकाव्यमीमांसा में) संसार-विषवृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे ।। काव्यामृत रसास्वादः सङ्गति सुजनैःसह ॥ परम्परागत ७. विष्णुपुराण पञ्चम अंश अध्याय १३, श्लोक १४-१९ ८. तं दृष्ट्वा गृहमानानां यासां हासः स्फुटोऽभवत् । ५-३८-८० ९. एकोरसः करुण एव निमित्तभेदाद् । उ०रा०च० १०. ततस्तु नृपतिर्दिव्यमादायाजगवंधनुः । शरांश्च दिव्यान्कुपितः सोन्वधवद्वसुन्धराम् ॥ वि०पु० १-१३-६९ ११. मुष्टिना सोऽहन्मूर्ध्नि कोपसंरक्त लोचनः । तेन चास्य प्रहारेण बहिर्याते विलोचने ॥ वि०पु० ५-१०-३५ १२. रामचरित मानस 30 साभीप्य:ोटो. २००६-भार्थ, २००७ For Private and Personal Use Only

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