Book Title: Samipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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(६)
दक्षिण सागर के किनारे पहुँचे वानरों की संपाति से भेंट होती है । रावण सीता को लंकाद्वीप में ले गया है - यह सुनकर वानरों के लिए समुद्रोल्लंघन करना आवश्यक बन जाता है । अतः हनुमानजी अपनी अप्रतिम शक्ति का प्रदर्शन करते हुए विकराल रूप को धारण करते हैं - ऐसा अद्भुत रस से परिपूर्ण वर्णन वाल्मीकि ने मूल में किया है । परन्तु कालिदास तो वर्णन के विस्तार को अवकाश ही नहीं देना चाहते हैं । अतः "श्लोकार्द्धन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः" वाली प्रतिज्ञा को चरितार्थ करते हुए महाकवि कहते हैं कि -
प्रवृत्तावुपलब्धायां तस्याः संपातिदर्शनात् ।
मारुतिः सागरं तीर्णः, संसारमिव निर्ममः ॥ - रघुवंशम् (१२-६०) "संपाति के मिल जाने से (वानरों को) सीताजी का वृत्तान्त प्राप्त हो जाने पर जैसे कोई निर्मम व्यक्ति संसार को पार कर लेता है, वैसे मारुति ने सागर को पार कर लिया ।"
यहाँ महाकवि ने मूल रामायण में हनुमानजी के जो अतुलित बल का प्रदर्शन हुआ है, उसकी पुनरुक्ति नहीं की है। परन्तु कालिदास ने एक दूसरी ही दृष्टि से हनुमानजी का 'दर्शन' किया है । यहाँ हनुमानजी के लिए जो 'निर्मम' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह अतीव ध्यानास्पद है । यथा - (१) निर्मम व्यक्ति को संसार तुच्छ प्रतीत होता है, वैसे ही मारुति को सागर तुच्छ प्रतीत हुआ; और वह उसको पार कर गये । एवमेव (२) यदि संसार दुस्तर है, तो सागर भी अपार है। ऐसी स्थिति में यदि समुद्रोल्लंघन करने का साहस जुटाना है तो व्यक्ति को 'निर्मम' होना अनिवार्य बन जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने संभवित मौत का विचार करेगा तो अपार एवं अगाध सागर को लांघने का विचार ही नहीं करेगा। किन्तु हनुमानजी ने तो अपने जीवन का अन्त हो जाय तो भी कार्यसिद्धि करने के संकल्प के साथ उत्प्लवन कर दिया । वाल्मीकि ने हनुमानजी की अपूर्व शक्ति का गान किया है। परन्तु कालिदास ने अपने कविदर्शन से हनुमानजी की आत्मसमर्पण-भावना को सही अर्थ में देखा है और उसे केवल एक - निर्मम - शब्द से उजागर किया है । स्पष्ट है कि महाकवि कालिदास ने मारुति का जो 'दर्शन' एक ही - निर्मम - शब्द से व्यक्त किया है वह अधिक स्पृहणीय है। मारुति का ऐसा जो अभूतपूर्व दर्शन महाकवि ने किया है, वह उनकी परकायाप्रवेश की शक्ति को आभारी है।
संक्षेप में कहें तो वर्णन के विस्तार से महाकवि-पद की प्राप्ति नहीं होती है। अरे ! वर्णन के साथ-साथ यदि 'दर्शन' नहीं है तो कवि-पद की प्राप्ति सम्भव नहीं है, अथवा यदि दर्शनपूर्वक का वर्णन नहीं है तो कविपद अलभ्य ही रहेगा ॥
सामीप्य:मोटो. २००६-भार्थ, २००७
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