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समय देशना - हिन्दी लोक में सरस्वती की जितनी प्रतिमा बनाई गई हैं, सब काल्पनिक हैं। ध्रुव कोई सरस्वती है तो, मनीषियो ! ज्ञानमूर्ति है । उसी देवी की आराधना करो। न कोई वीणावादिनी, न कोई पुस्तकधारिणी है। अध्यात्म शास्त्र में यदि किसी सरस्वती की उपासना है, तो वो सरस्वती, जो अनेकान्तमयी मूर्ति है जिसमें अनंत धर्मों का कथन किया गया हो।
जो द्रव्य-गुण-पर्याय को देख रही है, निज गुण-द्रव्य-पर्याय को अनुभव में ला रही हैं । अनंत धर्मात्मक धर्मों को जो देखती है, ऐसी पृथक् आत्मा, जो परमात्मा है, ऐसी अनेकान्तमयी मूर्ति नित्य ही मुझे प्रकाशमान करे। मेरे अन्तस में अविद्या का तम है, मिथ्यात्व का तम है. भेदविज्ञान के अभाव का अन्धकार है। उस अन्धकार को उपशमन करने वाला कोई प्रकाशपुंज है, तो अनेकान्त मूर्ति है । ज्ञानियो ! कितनी पर्यायों में कितनी जगह भ्रमण किया ? ज्योति के अन्वेषण में किसी ने दीपक की उपासना की, पर जो अखण्ड ज्योति थी, उस पर लक्ष्य ही नहीं गया। कोई मोमबत्ती का ध्यान कर रहा है, तो कोई धूपबत्ती के ध्यान में लगा है, तो कोई दीपक में लिप्त है । पर जो निजधर्म, निजज्योति स्वरूप जो ज्योति थी, उस ज्योति पर दृष्टि ही नहीं गई। क्रियाओं में इतना लवलीन हो गया, कि क्रियाओं से उभरने का मन ही नहीं किया। विश्वास रखना, पाप में डूबा जीव तो उभर जाता है, परन्तु क्रियाओं में डूबा जीव नहीं उभर पाता है। ध्यान दो, पाप में डूबा जीव तो समझता है कि मैं पाप कर रहा हूँ, इसलिए उभर लेता है, । पर जिसे धर्म का विवेक नहीं, क्रियाओं में लीन हो गया, वह कभी सोचता भी नहीं कि इनसे भी उभरना है। संकट के दिन अच्छे होते हैं जब कम-से-कम इतना ध्यान तो होता है कि हमें संकटों से हटना है, संकटों को दूर करना है । परन्तु इन्द्रिय सुखों के दिन कितने खोटे हैं, जिनसे हम हटने का कभी विचार भी तो नहीं लाते। तो इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी स्वयं ही कहने लगे । मैं समयसार' ग्रन्थ की टीका क्यों लिख रहा हूँ, इसकी आत्मख्याति टीका लिखने का उद्देश्य क्या है मेरा? तत्त्वों को जानना नहीं है, तत्त्व को जानना है। तत्त्वों को जानते-जानते भवावलियाँ व्यतीत हो गई। अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव ने ग्यारह अंगों एवं नौ पूर्वो में तत्त्वों को ही तो जाना, लेकिन तत्त्व को कहाँ जाना ? एक निज तत्त्व को जान लेता, तो परतत्त्व को जानने की क्या आवश्यकता थी? ये जानने का विचार ही जानने नहीं दे रहा है। क्योंकि इसको जानने में इतना समय लग जाता है, कि जिसे जानना चाहिए था उसे जानने का जब सोचता है, तब तक इतना थक जाता है कि उसे समय ही नहीं मिलता। इसलिए आचार्य-भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी तृतीय कलश में क्या कह रहे हैं ? कि मैं यह इसलिए नहीं लिख रहा हूँ, कि तत्त्वों को जानूँ। मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि तत्त्व को जानें।
परपरिणति-हेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा-विरत-मनुभाव्य-व्याप्तिकल्माषितायाः । मम परम विशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसार-व्याख्ययैवानुभूतेः ॥३|| अ.अ.क.
मोह परणति पर, ज्ञानियो ! परपरणति हेतुः । पर-परणति हेतु है । मैं तो चिद्रूप था, लेकिन क्या करूँ ? जीवों की ये मोह परिणति पर में क्यों जा रही है ? जिसे तूने पाल के रखा है, सम्भाल के रखा है, क्यों ज्ञानियो ! किसकी इच्छा की पूर्ति कर रहे हो? जिस ओर लक्ष्य डाला, मोह की ही तो पूर्ति की है। किसी ने अशुभ रूप में, तो किसी ने शुभ रूप में की। पर किया क्या है ? जो मोह तेरा मकान बनाने में जा रहा था, वह मोह तेरा मन्दिर बनाने में चला गया, लेकिन काम किसका हुआ है ? कार्य तो मोह का ही हुआ है। अब तुम्हारी ये बातें कोई भी सुनना पसन्द नहीं करेगा कि वह तो हमने शुभ किया है । शुभ तो किया है, लेकिन कर्मरहित नहीं किया । ज्ञानी ! शुभ जब कर रहा था, स्वाद तो पर में ही था। जो निश्चल स्वाद था, वह तूने
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