Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 16
________________ समय देशना - हिन्दी वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गईं पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ॥१॥ स.सा. ॥ १ मंगलाचरण मनीषियो ! आचार्य भगवन् 'कुन्दकुन्द स्वामी" का सारे विश्व में विख्यात अध्यात्म का सर्वोपरि ग्रन्थ अब आपके सामने है। "समयसार" यह वह अनोखा ग्रन्थ है, जिस ग्रन्थ के लिखने के बाद एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये थे, लेकिन किन्हीं वीतरागी आचार्यों ने उस पर कोई लेखनी नहीं चलाई थी । एक हजार वर्ष के उपरान्त आचार्य 'अमृतचन्द्र स्वामी' ने जिस पर 'आत्मख्याति टीका' लिखी थी । वह 'आत्मख्याति' टीका अपने आप में सूत्र रूप में प्रख्यात हो गई, और टीका का एक-एक पद्य अपने आप में महामंत्र के रूप में उद्घाटित हुआ, जिस पर आचार्य महाराज ने कलश लिखे, वह " अध्यात्म अमृत कलश' अपने आप में एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन गया । महान श्रमण संस्कृति में अशरीरी स्वरूप को उद्घाटित करने वाला, कोई ग्रन्थ है, तो वह है, आत्म प्रवादपूर्व जिसमें आत्मा के स्वरूप का ही व्याख्यान है । ८४ पाहुड ग्रन्थों में आचार्य कुन्दकुन्द का यह समयसार बेजोड़ ग्रन्थ है। आज सम्पूर्ण विकल्पों से परे होकर अन्य सब प्रश्नों को विराम देते हुये, अभिराम ये विचार करे, कि अहो, वे परम योगीश्वर अपने जीवनपर्यन्त की लीला को किसी क्रिया को किये बिना कैसे पूर्ण करते होंगे ज्ञानी ! सबसे ध्रुव सत्ता शक्तिमान कोई पदार्थ है, तो आत्म स्वभाव है। इस आत्म स्वभाव में जीवन की सबसे बड़ी साधना है। जब तक करने-कराने के भाव हैं तब तक, ज्ञानियो ! बहिर् भाव है । बहिर् भाव में जीने वाला कभी समयसार को नहीं प्राप्त कर पायेगा । ये अलौकिक सूत्र जिसमें अनेक-अनेक योगी डुबकियाँ लगाकर चले गये, पर पार नहीं पा सके । ऐसे समयसार ग्रन्थ को आज हम प्रारम्भ कर रहे हैं। नमः समयसाराय, स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावय भावाय, सर्वभावान्तरच्छिदे ॥१॥ अ.अ.क.।। सम्पूर्ण पदार्थों को वेदन करने वाली आत्मा सम्पूर्ण परभावों से रहित है । ग्रन्थ को नमन नहीं, ग्रन्थकर्त्ता को नमन नहीं, किसी परमात्मा को नमन नहीं । नमन है, तो ध्रुव आत्मा को है । परमात्मा कालिक नहीं होता, वह होता तो है, लेकिन आत्मा त्रैकालिक होता है। जब हम परमात्मा को नमन करेंगे, तब हमारी दृष्टि 'पर' में चली जायेगी, क्योंकि परमात्मा द्रव्य नहीं है, परमात्मा तो पर्याय है, द्रव्य तो आत्मा है । बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ये आत्मा की तीन दशायें हैं। इस अशरीरी भगवान आत्मा का वर्णन करने वाले ग्रन्थ में उन दशाओं की वंदना नहीं है वरन् उस दशावान् की वंदना है जिसकी दशायें कभी नष्ट नहीं होती है । अन्तरात्मा, बहिरात्मा ये तो, ज्ञानियो ! आये राम, गये राम हैं। लेकिन आत्मा त्रैकालिक ध्रुव है । उस त्रैकालिक ध्रुव आत्मा को छोड़कर मैं परमात्मा पर भी दृष्टि नहीं फेकना चाहता हूँ, क्योंकि परमात्मा पर दृष्टि डालूँगा, तो मेरी दृष्टि 'पर' में चली जायेगी, इसलिए परमात्मा को नमस्कार नहीं है । इसलिए "नमः समयसाराय" । समय यानी आत्मा । उस आत्म-स्वभाव को ही नमस्कार है। जो कैसा आत्मा का स्वभाव है ? “स्वानुभूत्या' । ज्ञानी ! पर-सापेक्ष द्रव्यों को इन्द्रियों से वेदा जाता है, परन्तु समयसार को स्वानुभव से ही वेदा जाता है। जिसे इन्द्रियाँ वेदती हैं, वह द्रव्य परावलम्बी होता है। पर जो स्वावलम्बी तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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