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समय देशना - हिन्दी
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है, वो इन्द्रियों के वेदन का विषय नहीं, वह तो स्वानुभव मात्र का विषय है। इसलिए कारिका कह रही है "स्वानुभूत्या चकासते” ।
समयसार स्वानुभूति से प्रकाशमान है । "चित्स्वभावाय" जो मात्र चित् स्वरूप है। कर्म को ध्यान में नहीं लाना । कर्मातीत जो है, वह स्वरूप मात्र चित् ही है, शेष मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो मात्र चित् हूँ, यानि मैं तो चैतन्य मात्र हूँ । इसके अलावा मैं अन्य नहीं हूँ। जो अन्य है, वो मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ, वो अन्य नहीं है । इसलिए "चित्स्वभावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।" सम्पूर्ण पदार्थों को जानना मेरा धर्म है। जो "मीमांसक" लोग आत्मा को परसंवेदी कहते है, उनसे कह देना कि आत्मा परसंवेदी नहीं, आत्मा स्वसंवेदी है । परसंवेदन से मुझे क्या प्रयोजन ? मैं तो स्वसंवेदी हूँ । हे सांख्य ! यह तेरी ही मति में विवेक जागेगा कि आत्मा भवान्तर को नहीं जानता; परन्तु समयसार कहता है कि जब तक भिन्न पदार्थ को नहीं जानेगा, तब तक अभिन्न स्वभाव को कैसे जानेगा ? यह आत्मा भावान्तर का ज्ञाता है और स्वभाव का भोक्ता भी है। निज द्रव्य को तन्मय होकर जानता है, परद्रव्य को ज्ञायकभाव से जानता है। मैं निज द्रव्य को तन्मयभूत होकर जानता हूँ, परद्रव्य को ज्ञायकभाव से जानता हूँ। मैं परद्रव्य को तन्मय होकर नहीं जानता हूँ। मैं परद्रव्य तन्मय हो भी कैसे पायेगा, क्योंकि मेरे में और पर में अत्यन्ताभाव है । यह है मोह की विडम्बना ! अत्यन्ताभाव में भी निज भाव कैसे बना रखा है ? आपकी स्वतंत्रता में किंचित पराधीनता नहीं है । भिन्न द्रव्य तेरी स्वतंत्रता का हनन नहीं कर रहा है। तू स्वयं परतंत्र हुआ है। परतंत्र कभी किसी द्रव्य ने तुझे किया नहीं है । परतंत्रता को तूने स्वीकार किया है । यदि परतंत्रता तेरा धर्म हो जायेगा तो बहिरात्मा कभी अन्तरात्मा या परमात्मा नहीं बन पायेगा । परतंत्रता धर्म नहीं है, धर्म तो स्वतंत्रता ही है । परतंत्रता परावलम्बी है, स्वतंत्रता स्वावलम्बी है । इस आत्मा को विभावधर्मी मत मान बैठना । ये आत्मा विभावधर्मी नहीं है, आत्मा स्वभावधर्मी है । विभावधर्मी हो जायेगा तो वह विभाव हो जायेगा; जबकि विभाव त्रैकालिक नहीं है, तात्कालिक अवस्थायें हैं। परन्तु स्वभाव तो त्रैकालिक है। आत्मा में कर्म निरन्तर नहीं है, आत्मा में कर्म सान्तर है। ध्यान दीजिए, आत्मा में कर्म निरन्तर नहीं हैं, इनमें नियम से अन्तर पड़ेगा, अतः सान्तर है। जब अन्तर पड़ेगा, तभी तो मुक्त अशरीरी भगवान् होगा। भव्यजीव का संसार सान्तर ही होता है, अभव्य जीव का संसार निरन्तर ही होता है, न फिर भी, ज्ञानी ! स्वभाव दृष्टि से अन्तर करो । कर्म निरन्तर नहीं, कर्म सान्तर ही होते हैं, ज्ञानधारा धारावाही है, कर्मधारा धारावाही नहीं है। ज्ञानधारा आत्मा में त्रैकालिक रहेगी, कर्मधारा नियम से बदलेगी । आप सब मनुष्य हो, तो क्या मनुष्य ही रहोगे ? नियम से पर्याय बदलेगी । भावकर्म भी बदलते हैं, द्रव्यकर्म भी बदलते हैं, नोकर्म भी बदलते हैं । ज्ञानियो ! कर्मधारा क्रमिक है । ज्ञानधारा धारावाहिक है। इसलिए इस ग्रन्थ में वेदन करना है, और समझना है, कि मेरी आत्मा का जो वास्तविक स्वरूप है, वह तो सत्-चित्-आनन्द है । सच्चिदानन्द है, सत् है । सत् क्या है ? चित् है । चित् कैसा है ? आनंद है। "सच्चितानन्द रूपोऽहम्", अन्य मेरा स्वरूप नहीं है। मैं जगत् में नहीं हूँ । मेरा ध्रुव स्वरूप तो इतना है- सत् चित् - आनंद । जीवद्रव्य सत् है । किसके कारण ? चित् के कारण । चित् है तो कैसा है ? आनंद है। उस सच्चिदानंद चित् स्वरूप को नमस्कार करके आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी सरस्वती की वंदना कर रहे हैं ।
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अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकांतमयीमूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ||२|| अ.अ.क. II
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