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(9) अपने रहित उस सिद्ध परमेष्ठी की उपासना करते है, जिसके विषय में कहा गया है सकल ज्ञेयज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन' । पर से निर्पेक्ष उनका यह क्षायिक भाव ध्रुव है । कभी पर से प्रभावित नहीं होते वह अचल है अर्थात उनका यह भाव कभी नष्ट नहीं होगा । उनका यह स्वभाव उत्पन्न आनन्द अभौतिक है, उसकी भौतिक उपासना नही कि जा सकती । ऐसी ध्रुव अचल और अनुपम आत्माका वर्णन करने वाला ग्रन्थ है समयसार और इस ग्रन्थ के रचसीता ने उस निविष्ट आत्मा के विषय में वही कहा, जो उन्हे श्रुतकेवली से और आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ है । अपनी और से कुछ नहीं कहा । जो भी कहा, प्रामाणिक महापुरुषो से सुनकर और समझकर कहा है । यह कोई ग्रन्थ या महाग्रन्थ नहीं है, यह तो एक अमृत कलश है, जिसकी एक बूँद में भी विकारों शमन की अपरिचींत सामर्थ्य है ।
समयसार चिदानन्दरूपोन्मुख शास्त्र है । उसमें आत्मा के शुद्धोपयोग की चर्चा है । शुध्दात्मा शुभ और अशुभ दोनों से ही विरत होती है । परम पारिणामिक भाव ही उसे इष्ट है । मिलाकर चाहे शुभ की करे या अशुभ की, उसकी दृष्टि में दोनों की खोट हैं । जो सोना है उसीको शुध्द सोना कहा जा सकता है । एक तोला सोने में यदि एक रत्ती भी ताँबा मिला हुआ है तो द्रव्य दृष्टि में वह शुध्द नहीं है । समयसार विभाव कर्म का भेद होने से पाप पुण्य को समान मानता है । एक को लोहे की बेड़ी मानता है तो दूसरे को सोने की । एकान्त दृष्टिवाले इसे पकड़कर बैठ गए है और पुण्य को भी पाप की तरह हेय कहने लगे हैं । यथार्थ में कुन्दकुन्द का अभिप्राय समझने में बड़े-बड़ों में भूल हो जाती है । अपने अन्य ग्रन्थोंमें उन्होंने पुण्य के भी प्रशस्त और अप्रशस्त, ये दो भेद किए हैं । सम्यकदृष्टि जीव प्रशस्त पुण्य का आश्रय लेता है, जिसका काम पाप से छुडाना है। पाप को छुडाने वाला हेय कैसे हो सकता है ? । वह तो शुध्दोपयोगकी प्राप्ति में उपायरुप है । जो उपाय उपदेय तक पहुँचाये, वह ग्राह्य है । कौनसा कथन किस अपेक्षा से कहा गया है, इसे जाने बिना कोई धारणा बना लेना ही एकांत है। समयसार का मर्म समग्र दृष्टि से ही समझा जा सकता है एकान्तबुद्धि से नहीं । आचार्य देवसेन ने लिखा है कि सम्यकदृष्टी का निदान रहित (प्रशस्त) पुण्य नियम से मोक्ष का हेतु है, संसार का नहीं ।
समयसार में वर्णित एकत्व विभक्त आत्माकी चर्चा हमने पहले कभी सुनी नहीं, इसलिए अटपटी-सी लगती है और काम-योग-बन्ध की कथा हम जन्म जन्मान्तर सुनते आए हैं, इसलिए मन को सुहानी लगती है। जो आज तक अपरिचित है, उसका परिचय प्राप्त करते समय मन अटकता और उलझता है । उसका निरन्तर श्रवण या अभ्यास ही हमें समाधान दिला सकता है। नए-नए श्रोताओ या पाठकोंके लिए समयसार का पढ़ना पहेलियाँ बुझाने जैसा कार्य है । योग्य वक्ता या व्याख्याकार जब मुक्तिसंगत वार्ता या लेखन से जब किसी वस्तु को प्रस्तुत करता है तो कठिन वस्तु भी सरल लगती है । आत्मा बद्ध है या अब, स्पृष्ट है, अस्पृष्ट, अनन्य है या अन्यरुप भी परिणत होती है - ऐसे अनेकानेक प्रासंग पहेलियों जैसे ही तो हैं, किन्तु समयदेशना में पूज्य आचार्यश्री ने उन्हे सोदाहरण जिस तरह से समझाया है, उससे शंका के लिए किसी के मन में कोई अवकाश ही नहीं रह जाता । उन्होने अपनी देशना में जो भी कहा है, वह अनुभूत है । उन्होंने समयसार को पढ़ा ही नहीं, जिया भी है । ऐस सन्तों की वचनिका का लाभ मिलनाभी प्रशस्त पुण्योदय का सूचक है ।
समयसार पर लिखी गई टीकाओं या वचनिकाओं में यह अधुतातन होने से अप्रतिम हैं । जो बाद में कही सुनी या लिखी जाती है, उसमें पूर्ववर्ती सभी व्याख्याओं का भी सार आ जाता है, इस टीका में भी अब तक की सभी टीकाओं का सार निहित है। पढ़ने में मन लगता है, चित्त उबता नहीं है और बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है । 'दो शब्द' लिखने के बहाने हमें भी इस देशना को आद्यन्त पढ़ने का सुअवसर मिला, इसे हम
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