Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 13
________________ देव चढ़ाया नेवज खाँही ।। ६०० ।। जिन प्रतिमा निंदहि मन माहिं, मख लो कहहिं जो कहनी नाहिं । माहिं रात-दिन पशु की भाँति, रहे एकंत मृषामद भाँति ॥६१२।। समयसार अपरिपक्व बुद्धि से अभ्यास करने से उनका यह पतन बि. सं. १६७१ से शुरु हुआ, जिसका पराक्षेप वि.सं. १६९२ वीर में तब हुआ, जब पाण्डे रुपचन्दसे उन्हे 'गोम्मटसार' का स्वाध्याय कराया । बीस बर्षे तक उनकी यह दुर्दशा रही । उसके बाद उनका सुलटना शुरु हुआ उनकी बुद्धि में जो जिय जिस गुणधानक होय, तैसी क्रिया करें सब कोय ।। ६३२ ।। भिन्न-भिन्न विवरण विस्तार, अन्तर नियत बहुगी व्यवहार ।।६३३ ।। सुन-सुन रुपचंद के बैन, बनारसी भयौ दिढ जैन ||६३५ ।। - आज भी हमारे समाज का एक वर्ग एकान्तवाद के भँवर में झूल रहा है । 'समयदेशना' में आचार्य श्री ने ठीक ही लिखा है - 'पात्र की भूमिका को न देखकर और गुणस्थान -क्रम से कथन न करने के कारण, ज्ञानी चौदहवें गुणस्थान का कथन चौथे में लगाओगे ती विवाद तो होना ही है ( पृष्ठ ८) ।' सच तो यही है कि जिसने पहले आस्त्रव और बन्ध की प्रक्रिया को समझ लिया है, अध्यात्म की कथनी को वही आत्मसात कर सकता है। हर कोई उसे नहीं पचा सकता । समयसार आत्मा के अचिंत्य वैभव की अनुभूति कराने वाला एक अद्भुत ग्रन्थ है । शुध्द आत्मतत्व का प्रतिपादक ग्रन्थ सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में दुसरा नहीं है । इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से जीव की यह समझ बनती है कि मैं शुध्द, निरंजन, शाश्वत और अविनाशी तत्त्व हूँ । जानना और देखना मेरा स्वभाव है, पर वर्तमान में पर का कार्य या भोक्ता स्वयं को मानता हूँ । यही मेरी भूल ही और इस भूलके कारण मेरी पराधीनता है । जानने और देखने के अतिरिक्त अन्य जितने भी जीव है, व सभी संयोगज भाव है । अकेली आत्मा के तो ये भाव हो ही नहीं सकते । उपदान क अशक्त होने से हमारा मन और इन्द्रिया बहिर्मुखी बनी हुई है । बाहर बहुत भटकने वाला सुविधायें तो पा सकता है । किन्तु सुख को कदापि नहीं । सुविधा ये क्षणभंगुर और सुख शाश्वत होता है । उस शाश्वत सुख की प्राप्त के लिए हमे अन्तर्मुखी होना होगा । सुख तो हमारी अपनी निधि है, बाहर भटकने से वह कभी प्राप्त नहीं हो सकती । समयसार की सीख याद रखनी चाहिए 'बाहर के पट बन्द कर, अन्तर के पट खोल ।' आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने ग्रन्थ के मंगलाचरण में सिद्ध भगवान को नमस्कार किया है । प्रत्येक व्यक्ती अपने आदर्श की उपासना करता है । जीव की पूर्ण स्वतंत्र एवं शुध्द अवस्था उन्हे प्रिय है। चूँकि सिध्द भगवान स्वभाव अवस्था को प्राप्त है और समयसार का सूत्रधार भी उसी अवस्था को प्राप्त करना चाहता है, इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम सिध्द परमात्मा की वन्दना कर अपने अभिप्रेत को व्यक्त कर दिया है । हम भी तो कर्मसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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