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करते आ रहे हैं । उनके नाम से ही मूलसंघ को 'कुन्दकुन्दान्वय' नाम से उल्लेख किया जाता है । उनके इस महत्व को देखते हुए ही कविवर वृन्दावन ने लिखा है । 'कुन्दकुन्द से मुनीन्द्र न थे, न है, न होयेंगे।' यह समयसार ग्रन्थ केवल वाणी विवरका विलास नहीं है, बल्कि आचरण-पष्प का मकरन्द है । थमर-तरीखी जिसकी वृत्ति है, वही इसका आचमन करने का अधिकारी है । सिद्धान्त में वर्णित उपायों को आस्रव का कारण मानने वाले इसे नहीं पचा सकते
व्यवहारनयाश्रित सिद्धान्त के ज्ञान से वंचित अथवा जानते हुए भी उसकी उपेक्षा करने वाले जीव शुद्ध निश्चय नयाश्रित समयसार को पढ़कर कभी कभी अपने लक्ष्य से भटकने हुए भी देखे जाते हैं। 'समय देशना' में देशनाकार सतत ज्ञानाभ्यासी पूज्य आचार्य श्री विशुद्धसागरजी महाराज ने ठीक ही इशारा किया है - 'सुनने वाला समयसार बहुत सरल है और करने वाला समयसार बहुत कठिन है।' उन्होंने यह भी लिखा है - 'अन्दर-बाहर का कोलाहल बन्द होने पर ही समयसारस्वरुप की प्राप्ती होगी' आगत प्रवासी पं. बनारसीदास जैन एक बहुश्रुत एवं बहुपाठी विद्वान थे समयसार की एक टीका को पढ़कर उनका जो विपरीत परिणमन हुआ, वह एक मार्भिकउदाहरण के रूप में हमारे सामने है ।
___ यह प्रसंग है विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्थ का, उस समय पण्डितजी आगरा के मोतीकटरा मोहल्ले में रहते थे । स्वाध्याय में उसकी गृहरी रुचि थी । जो भी ग्रन्थ हाथ में आ जाता, अपने मित्रों के मध्य वह उसकी वाचना करते थे । स्वाध्याय का क्रम व्यवस्थित नहीं था । अपनी छन्दोबद्द आत्मकथा 'अर्थकथानक' में वह स्वयं लिखते हैं कि जैनधर्म का व्यवस्थित परिज्ञान न होने से 'समयसार' नामक अध्यात्म शास्त्र को पढकर उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई थी । समयसार पढ़ने ही पूर्व उन्हींने अपने मित्र नरोनाम के साथ णमोकार की एक माला करने का नियम लिया था । व्रत-भंग होने पर धी का त्याग करने की प्रतिज्ञा की थी । हर चतुर्दशी को उपवास करते थे तथा सूचीबद्ध पचास हरी (सब्जी-तरकारी आदि) के सेवन की मर्यादा निश्चित की थी । यह बात आत्मकथा में उन्होंने स्वयं लिखी है, ध्यान से पढ़िए: -
नौकारवाली एक जाप नित कीजिए । दोष लगे परमात तो धीड न लीजिए ।।४३५।। मारत वरत यथासकति सब चौदस उपवास ।
साखी कीन्ही पास जिन राखी हरी पचास ।।४३६ ।।
इसी बीच उनके एक मित्र श्री अरथमल्लने राजमल्लकृत समयसार की टीका स्वाध्यायपीठ पर विराजमान की । उसका स्वाध्याय वे सभी करने लगे । पढ़ते-पढ़ते बुद्धि चकराने लगी । वह लिखते हैं : -
तब बनाएसि बाँचे नित्त भाषा अत्थ विचारै चित्त । पावै नहिं अध्यात्म पेच, मानैं बाहिज किया हेच ।।५०४ ।।
माला फेरना, रसत्यागना, खाना-पीना आदि तो बाह्य क्रियायें हैं । आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध है । उस पर इन जड़ क्रियाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसी विकृत सोच उनकी बुदिध में आई और उन्होंने लिए हुए सभी नियम तोड़ दिए । उनका जो पतन हुआ, उसका वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है : -
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