Book Title: Samayik Lekh Sangraha Author(s): Vidyavijay Publisher: Vijaydharmsuri Jain Granthmala View full book textPage 7
________________ दुई कि वह असे जीवन को शुद्ध-पवित्र मार्ग की ओर नहीं ले जाता । विटा का कोड़ा, जैसे विष्टा में ही आनन्द मानता है, उसी प्रकार दूसरों को बुराइयां निन्दा, द्वेष, ईर्ष्या और निर्दोषों को सताने का स्वभाव वाले उसी में आनन्द मानते रहते हैं। संसार के सारे क्षेत्रों में प्रायः यही पापाचार, भ्रष्टाचार और पाशविकता का नंगा नृत्य हो रहा है। और साथ ही साथ इसका फल भो भोगा जा रहा है। प्राश्चर्य तो यह है कि जो अपने को सज्जन बता रहे हैं, वे ही दुर्जन का काम करते देखे जाते हैं। जो रक्षक हैं, वे भनक बने बैठे हैं। अधिक दुखः का विषय तो यह है कि बड़े-बड़े जवाबदार लोग स्वयं ऐसी गुण्डेशाही को प्रोत्साहन देते हैं। संसार की ऐसी घटनाओं को देखकर कभी-कभी यह साधु हृदय बहुत ही द्रवित होता है । और उस समय जो-जो विचारधारा प्रवाहित होती है उसी को लिपिबद्ध कर लेता हूँ और ऐसे लिपिबद्ध किए हुए तया 'मध्य भारत सन्देश, नव प्रभात, जन जगत, प्रभात, विक्रम आदि प्रसद्ध पत्रों में प्रकाशित हुए मेरे लेखों का संग्रह-यह है मेरा 'सामयिक लेख संग्रह' इसके अतिरिक्त इन लेखों के विषय में मुझे क्या कहना है ? यही कि जनता इसको पढ़े और वास्तविकता को समझे यही संकेत । शिवमस्तु सर्वजगतः। -विद्या विजय शिवपुरी ( मध्य भारत) १ मार्च १९५३ धर्म सं०-३१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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