Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 20
________________ ( १२ ) निंदा, चाडी, परद्रोह तथा असत्य कलंक चडानेवाले वा हिंसा, असत्य भाषण, पर द्रव्य हरण और परस्त्री गमनादि अनीति वा अनाचार करनेवाले, क्रोधाध, रागांध होनेवालेके जो जो बूरे हाल होने का शास्त्रकारोंने वर्णन कीया है तो, तथा तिस संबंधी हितबुद्धिसे जो कुछ कहेना वो निंदा नहि कही जाती हैं, मगर हितबुद्धि बिगर द्वेषसे पिरायेकी बातें कर दिल दुभाना सो निंदा कही जाती है. और वह निद्य है, इसलिये नाम लेकर पिरायेकी बढ़ी करनेका मिथ्या प्रयास करना नहि. कबी निंदा करनेका दिल हो जाय तो सच्चे और अपनेही दोषोंकी निदा करनी कि जिरसें खुद कुछभी दोषमुक्त होता है. केवल दोषोंकीभी निंदा करनेसे कुछ कार्य सिद्धि नहि होती, तोभी परनिंदा से स्वनिंदा बहोतही अच्छी है. २३ बहोत हंसना नहि. बहोत हंसना सो भी अहितकारी है. बहोत हंसने से परिणाम में रोनेका प्रसंग आता है. हसनेकी बुरी आदत मनुष्यको बडी आपत्तिमें डालती है, बहोत वख्त हसनेकी आदत होनेसे मनुष्य कारसे या बिगर कारणसे भी हंसता है और वैसा करने से राज्यसत्ता या अंतःपुर में हंसनेवालेकी बडी ख्वारी होती है, इसिलिये वो आदत प्रयत्न करके छोड देनीही योग्य है. कहेवतभी है कि " हंसी विपत्तिका मूल है ' हाथसे करके जीसको जोखममें डालना -हो वा हाथसे करके उपाधि खडी करनी हो तो एसी कुटेब रखनी. अन्यथा तो तिस्कों त्याग देनी उसमेंही सुख है. सभ्य जनकीभी यही नीति है. मुमुक्षु मोक्षार्थी सत सुसाधुओंको तो वो कुठेच सर्वथा त्याग देने लायकही है. ऐसी अच्छी नीति पालन । करनेसेही प्राणी धर्मके अधिकारी बनकर सर्वज्ञ भाषित धर्मको बूरी

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