Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 72
________________ ( ६४ ) लाजिम है. अवश्य करने लायक वो बावतका भान भूलकर पीछे फक्त लोकलाज से नाहक भारी खर्चमें उतरना उन करसे तो उतनाहीं धन परमार्थ मार्गमें व्यय करना सो विशेष श्रेष्ठ है. पुत्रादिकके जन्म या लग्नादि प्रसंगपर परम मागलिक श्री देवगुरुकी पूजा भक्ति भूलकर झूठी धूमधाम रचनेमें लख्खों नहीं बलके करोडो जीवोंका विनाश होवै वैसी आतशबाजी छोडने वैगेरेमें अपार धनका गैर उपयोग करनेमें आता है, वैसा भवभीरु सज्जनोंको करना नादुरुस्त है. ( ४ ) मानापोंका उलटा शिक्षण और उलटा वर्तनः - मावाप, उनके माबापोंकी तर्फसे अच्छा धार्मिक व्यवहारिक वारसा निला - नेमें कमनशीब रहनेसे, किवा भाग्य योगसे मिले हुये परभी उनको कुसंग द्वारा विनाश करनेसे अपने बालकोंको वैसा उमदा वारसा देनेमें भाग्यशाली किस तरह वन सकै ? अगर कमी सत्संगति मिलगइ होवें तो वैसे माबाप भी अपने बाल बच्चोंको वैसा प्रशंसनीय वारिसनामा करदेनेमें शायद भाग्यशाली बन भी शकै ! क्यौ कि - 'सत्संगतिः कथय कि न करोति पुंसाम् ? यानि कहो भाइ ! उत्तम संगति पुरुषोंको क्या क्या सत्फल न दे सकती है ? सभी सत्फल दे सकती है ।' उत्तम संगति के योगसे प्राणी उत्तमताको प्राप्त करता है, उत्तम बनता है, तो फिर वैसी अमूल्य सत्संगति करनेमें और करके कौनसा कमवख्त उत्तम फल पाणेमें बेनशीव रहेगा ? शास्त्र के जाननेवाले पंडित लोग कहते है कि - ' बुरेमें बुरी और बुरेंमें बुरे फलकी देनेहारी कुसंगतिही है.' तो बुरे फल को चखनेकी चाहनावाला कौन मंदमति ऐसी कुसंगतिको कबूल करेगा ? बस प्रसंगवशात् इतनाही कहकर अब विचार करे कि - अपने वालबच्चों को सुखी करने की चाहतवाले मावाप वैसी कुसंगतिके-लडके ' लडकीको बचा रख्खें और सत्संगतिमें लगा देनेकी बडी खत '

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