Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 100
________________ ( ९२) उचित छे; एम करवाथी आत्मानुं शुद्ध स्वरुप प्रगट थाय छे. (८१ ) सम्यम् ज्ञान, दर्शन, अने चारित्ररुपी रत्नत्रयीन संसेवन करवाथी जेमने अनंत ज्ञान, अनत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत-वीर्यरुपी अनंत चतुष्टयी प्राप्त थयेल छे; एवा परमात्मपद प्रात महापुरुषोज मोक्षार्थीओए ध्यावा योग्य छे. (८२ ) एवा परमात्मानु ध्यान करवाथी मन स्थिर थाय छे, इंद्रियो अने कषायनो जय थाय छ, अने शात रसनी पुष्टिथी आत्मा पातज परमात्मपदनो अधिकारी थाय छे, घनधाति कर्मनो क्षय थताज पोते परमात्म रुप थाय छे, माटे मोक्षार्थी जनोए एवाज परमात्म प्रभुनु ध्यान कर के जेथी अंते पोते पण तद्पज थाय. ( ८३ ) एवा परमात्मपद प्राप्त पुरुषो पण अवशिष्ट अघाति कर्म क्षय यता सुधी तो शरीरधारीज होय छे पण संपूर्ण कर्मथी मुक्त थये छते तेओ शरीरमुक्त-अशरीरी पूर्ण सिद्ध अवस्थाने प्राप्त थाय छे अने एकज समयमा सर्वथा सर्वबंधनमुक्त छता लोकना अग्र भागे जइ अक्षय स्थितिने मजे छे. (८४ ) त्यां तेओ अनंत ज्ञानादिक स्वरुप स्वभावमां स्थित छता परमानंदमां मना रहे छे; जन्म मरणादिक सर्व बंधनथी सर्वथा मुक्तज रहे छे. एवा सिद्ध परमात्मा पण अनंत छे. (८५) एवा सिद्ध भगवानना सद्गुणोनुं अनुकरण करीने जे तेम अभेदपणे ध्यान करे छे ते स्फीताशयो पण तेवीज स्थितिने अंत भजे छे. (८६) एवा भावी सिद्ध पुरुषो पण अनंत छे. (८७) उत्तम प्रकारना आचार विचारमा कुशलपणे पोते प्रवतता छतां अन्य मोक्षार्थी वर्गने प्रवर्तावनारा आचार्य महाराजा, पवित्र अंग उपांगरुप आगम सिद्धातने संपूर्ण जाणीने अन्य विनीत

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