Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company
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(९३)
वर्गने परमार्थ भावे पढावनारा : उपाध्याय महाराजा, तथा पवित्र रत्नत्रयीना पालन पूर्वक अन्य आत्मार्थी जनोने यथाशक्ति आलंबन आपनारा मुनिराज महाराजा, सर्वोत्तम लोकोत्तर मार्गना सेवनथी पूर्वोक्त परमात्म पदना पूर्ण अधिकारी होवाथी अनुक्रमे परमात्मपद पामीने संपूर्ण सिद्धरू५ थाय छे.
(८८ ) जेओ संसारीक सुख संयोगोनी अनित्यता विचारीने ससारना सर्व संबंधथी विरक्त थइ, उदासीन भाव धारण करी. परमात्म पंथने अनुसरवा कटिबद्ध थइ, स्व स्वभावमा, स्थित थइ, सिद्ध, परमात्माने अभेद भावे ध्यावे छे तेओ सर्व दुःखबंधनने छेदीने निश्चे सिद्ध दशाने प्राप्त थाय छे.
( ८९ ) एवा महा पुरुषोनो समागम मोक्षार्थी जीवोने परम आशीर्वादरूप छे एम समजीने सर्व प्रमाद तजी सत्समागमनो बनतो लाभ लेवा चूकवू नहिं, एवा सत्समागमथी क्षण वारमा अपूर्व लाभ संपादन थाय छे.
(९० ) जेमनु मन सत्समागम बडे ज्ञान वैराग्यमां तरबोळ रहे छे तेमनुं सुख तेओज जाणे छे. प्रियाना आलिगनथी के चंदनना रसथी जेवी शीतळता वळती नथी एवी शीतळता वैराग्य रसनी ल्हेरीयोथी प्रभवे छे जेम वैराग्य रसनी वृद्धि थाय तेम प्रयत्न करयो जरुरनो छे.
(९१) वैराग्य रसथी अनादि काळनो रागादिकनो ताप उपशमे छे, तृष्णा शात थाय छे अने ममत्वभाव दूर थाय छे, यावत मोहन जोर नरम पडे छे अने चारित्रमार्गनी पुष्टि थाय छे.
(९२) वैराग्य रसनी अभिवृद्धिथी एपी तो उत्तम उदासीन दशा छाय जाय छे के तथी सर्वत्र समानभाव वर्ते छे. निंदा रतुतिमा तेमज शत्रु-मित्रमा समपणुं आववाथी हर्ष शोक थता नथी.

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