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cal पन्दे श्री धीरमानन्दम् । » श्री बुद्धि वृद्धि कर्पूर ग्रंथमाला - राद्बोध संग्रह भाग पहेला.
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। लेखक और प्रयोजक-सदगुणानुरागी मुनिराज !! ii श्री कर्पूरविजयजी महाराज, पालीताणा ( काठीयावाड). ।।
1-1.
।। ii
संग्राहकः- शाह. शिवनाथ लुंबाजी पोरवाल. ।।
प्रकाशकः- पोरवाल एण्ड कंपनीके भालक . ।। शाह. शंकरलाल शिवनाथजी पोरवाल.
वेताळपेठ घर नं० ३५६ मु० पुना सिटी. ।।
___ मुद्रकः- लक्ष्मणराव भाऊराव कोकाटे, ___ हनुमान प्रेस, ३०० सदाशिव पेठ, पुणे नं०.२. ना
परि संवत २४६३ विक्रम संवत १९९३ सन १९३६. ।। 1! प्रथमावृत्ति ] मूल्य चार आना - [प्रति २००० ।। ii .. ( पोष्ट पेकिंग खर्च दो आना अलग )
1-1 साधु साधी और जैन लायब्रेरी या पुस्तकालयको पोष्ट पेकिग खर्च भेजनेसे भेट भेजी जावेंगी. मंगवाने वालोने । 11 इसके पीछले पेज २ पर छपेली सूचना वांचकर मंगवाना
॥ 11 || 1111 1111 || ||||||||||||||||||||||
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(२) - पुस्तक मंगवाने वालोको सूचना. ८
बिकानेर निवासी श्रीयुत शेठ बहादरमल अभयराज कोचरके तरफसे ज्ञानखाते, लगानेके लिये आयेले एकसो रुपीये पालीताणासे सद्गुणानुरागी मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी महाराज साहेबने हमको यहा भेजवाये इस लिये यह पुस्तक मे की ५०० प्रतिको उपरके टायटल पेज पर बिकानेरवाले शेठ बहादरमल अभयराजका नाम प्रकाशक तरीके छपवाया है और वो पुस्तको माहाराजश्रीके सूचनानु सार टायटल पेजके पीछले पेज पर छपे हुए चार जगो पर भेट देने के लिये रखी है. सो खपी जनोने वहासे मंगवा लेना.
इस पुस्तककी एक हजार प्रति बाइडिंग नही करवाते छुट फरमे पैसेही रखे है. सो इसी तरह और कोई सज्जनोकुं यह पुस्तक भेट देनेकी इच्छा होवे तो उनोने एकसो रुपीये हमकु भेजनसे उन्होक लीखने मुजब नाम गांव इस पुस्तककी पांचसो प्रतिके उपरके टायटल पेजपर छपवाकर इसी नमुनका बाइडिग करवाके उन्होकी इच्छानुसार भेजी जावेगी. इससे दुसरे नमुनका या जिर५ वाइडींग करवानेकी इच्छा होवे तो उसका खर्च जादा लगेगा उस बावत प्रकाशक-या संग्राहक कुं पुछपाछ कर लेना. - ___ यह पुस्तक साधु साध्वी और लायब्रेरी पुस्तकालय आदि संस्थाओको प्रकाशक तरफसेभी भेट देनेकी है सो उसके खपी जनोने एक प्रतिके वास्ते पोष्ट पेकिंग खर्चके लिये दो आनेकी पोष्ट टीकीट भेजकर प्रकाशक के पास से मंगवा लेना..
पुस्तक मंगवानेवालोने किंमत और पोष्ट खर्चकी रकम पोष्ट टीकीट या मनीआर्डरसे प्रथम ही भेजना. व्ही. पी. से मंगवानेमें एक पुस्तककुं पोष्ट खर्चके शिवाय और पांच आने खर्च जादा आता
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* पुस्तकोका सुपीपत्र. हमारा बुकसेलरका या पुस्तक प्रसिद्ध करनेका धंदा नहीं है. परंतु हमारे घरके और हमारे मारफत दुसरोके धरके शुभ खातम खर्च करनेकी रकममेंसे ज्ञानखातेमें खर्च करनेके इरादेसे 'आजतक कितनेक पुस्तक शास्त्री (वाळबोध) टाइपमें छपवाइ है. उस्में के जो नमुने हमारे पास आज शिल्लक रहे है उन्होके नाम, और किमत. क्रम नाम
मूल्य. पाट पेकिंग
रुपीय-आने आने-पाइ १ चैत्यवंदन स्तुति स्तवनादि संग्रह २ सूक्त मुक्तावळी
१- ०४-० ३ श्रीशत्रुजय महातिर्थादी यात्रा विचार ४ अष्ट प्रकारी तथा नात्र पूजा ५ जिनद्रभक्तिप्रकाश भाग पहलो ६
, भाग दूसर - ५। २ - ० ७ श्री चिदानंदजी कृत पद संग्रह भाग पहलो ०- ३ । १ -६ ८ सदबोध संग्रह भाग पेहेला
- ४ २ २ पापधादि और उपधान विधि
भेट २ - ० इस पुस्तकोम क्रम १ की प्रति २. क्रम २ की प्रति १० कम ३ की प्रति ८ कम 2 की प्रति २२ इतनाही मिटकी रही है. जादा नही होनेसे खपी जनाने जलदी मंगवा लना. , पुस्तक वचक जो र.म आती हैं उनमें हमारा संसारी स्वार्थ नहीं है. उस रकमसे और पुस्तक वानेमें या दसर संस्थाओन ४१कायले जादा प्रति प्रचारार्थ के लिये मंगवाये है. पुस्तक मंगवानवालाने मूल्य और पोष्ट स्वर्ष पहिलेही पोष्ट टीकीट द्वारा या मनीआर्टर द्वारा भेजना. डी. पी. मेक पुस्तक मंगवान पाट वचक भिवाय और पाच जाना व जादा जाता है, तारपट. ३५६ पुना सिटी.-साद शिवनायबाजी पारवाल,
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६. प्रास्ताविक निवेदन. Lon सूज्ञजनोंको पवित्र ज्ञानामृतपानका लाभ थोडेमें मिले इस हेतुसे अनेक मुनिराज और कविगणोने सूत्रासिद्धान्तों से सार निकाल कर __ भिन्न भिन्न भाषाओंमे ग्रन्थलेखन करते आये है और करवाते है इसी
मुजब सद्गुणानुरागी मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी महाराजने भी गुजराती __ भाषामें जैन हितोपदेश, जैन हितबोध आदि कितनेक ग्रंथ लिखे
हैं. ए ग्रन्थ बहुत बरसके पेहेले म्हेसाणाके श्री जैन श्रेयस्कर मण्डल की तरफसे प्रकाशित हुए. इस मंडळने जैन हितबोध और जैन हितोपदेश भाग १ ए अन्य हिन्दी भाषामें भी मुद्रित किये. लेकिन
आज ए किताब मिलते नहीं. ए पुस्तक ऐसे हैं कि जिनमें अध्यात्मिक धर्माचार विषयक तथा व्यवहारनीतिका बहुत कीमती उपदेश एक साथ सीधे साधे भाषामें पढनेको मिल सकता है. ___ इन पुस्तकों से कुछ विषय लेकर और अन्यान्य ग्रन्थ पढते हुए हमने जो टिप्पण किये थे वोभी लेकर हमने संवत् १९८८ में 'विविध विषय संग्रह भाग पेहेला' इस नामका ग्रन्थ शास्त्री टाइप और गुजराती भाषामें प्रकाशित किया था. आम जनताको यह किताब बहुत पसन्द आया लेकिन इनकीभी प्रतियाँ अब शिल्लक नहीं है. परमपूज्य सद्गुणानुरागी मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी महाराजके साथ पत्रव्यवहार करके महाराज साहेबकी आज्ञानुसार जैन हितोपदेश भाग पेहेला और जैन हितबोध ये दो हिन्दी भाषाके ग्रन्थोंमेंसे उपयुक्त विषय लेकर हमने प्रकाशित करना शरू किया. इसमें गुजराती भाषा के विषय हो तो ग्रन्थ और भी उपयुक्त होगा ऐसा मानकर हमने जैन हितोपदेश भाग २-३ मेंसे कुछ विषय लेकर अन्यान्य अन्यामेसें ली हुई माहिती के साथ यह ग्रन्थ छपाया है. इसमें बोधकारक प्रश्नोतर तथा दृष्टान्त कथन और वचनों और पद्यो आदिका कीमती
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संग्रह दोनो भाषाओंमें है. इससे यह किताब गुजराती तथा हिन्दी भाषाभाषी स्त्रीपुरुषोंको उपयुक्त होवेंगा.
इस ग्रन्थ के प्रकाशनमें सद्गुणानुरागी मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी महाराजने पालीताणासे पत्रव्यवहार के द्वारा बारबार जो सलाह दी है __ और हमारे मित्र श्रीयुत लक्ष्मण रघुनाथ भिडेजीने भाषा सुधारने में
तथा प्रूफ करेक्शनमें जो सहाय्यता दी है उस लिये उक्त दोनों सज्जनोंके हम ऋणी है. . . __ जिस प्रमाणसे द्रव्य सहाय्य हो उसी प्रमाणमें ऐसे ग्रन्थोंका कद बढाया जा सकता है. और भी संग्रह हमारे पास है, सो उचित सहाय्य मिलनेपर इसका दूसरा भाग भी प्रकाशित किया जायगा,
ग्रन्थमें जो भूल या अशुद्धि नजर आये सो कृपा करके हमको लिखना जोकि पुनरावृत्तिके समय दुरुस्त की जायगी. सवत १९९३ वीर सक्त २४६३ )
संग्राहक कार्तिक सुदी ५ (ज्ञान पचमी), शाह. शिवनाथ लुबाजी पोरवाल गुरुवार ता० १९ नवबर १९३६) ३५६ वेताळ पेठ मु० पुना सिटी.
( अनुकमाणका भृष्ट ८ के आगे का अनुसंधान निचे मुजब ),
सदबोध पद्यावली पद ६ नी अनुक्रमणिका. १ वैराग्यनु-तानमा तानमा तानमारे, मत राचो ससारना ता०१३१ २ चेती ले तु प्राणीया, आल्यो अवसर जाय . . १३२ ३ चेतन स्वारथीयो संसार, सगपण सर्व खोटारे
१३२ ४ कलदार स्वरूप पद- सुखकारा जगत सुखकारा रे १३३ ५ परनारीका त्याग करनेपर पद- पाप मत करो प्राणिया १३४. '६ सट्टाका ,, ,, -- कह सेठाणी सुणो सेठजी सट्टो थे०, १३५
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विषयानुक्रमणिका ( हिन्दी विभाग )
करना.
१ सर्वज्ञ कथित तत्व रहस्य बाबत ६७ पृ४ १ से ३६ तक के नाम. વાવત નામ gg|વાવત નામ પૃષ્ઠ १ जीवदया ( जयणा ) हम्मेशा १६ उपकारीका उपकार कमी पालनी चाहिये.
१ भूलना नहि. २ निरतर इद्रिय वर्गका दमन १७ अनायको योग्य आश्रय देना. ७
૨૧૮ વિતી મારી જતા રિલ३ सत्य वचन ही बोलना. २ लानी नही. ४ शील कबीभी छोडना नहि. ३/१९ किसीकी भी प्रार्थनाका भग ५ कवीभी फुशील जनके संग करना नहि.
१० निवास करना नहि. ३२० दीन वचन बोलना नहि. १० ૬ મુત્વવન વિવારે ટોપના નહિ. ૩૨૧ ગાત્મકરાસા ની નં. ૧૦ ७ (अ) चपलता - अजयणासे २२ दुर्जनकी भी कवी निंदा नहि चलना नहि.
३ करनी. ,, (व) उद्भट वेष पहेरना नहि. ४२३ वहोत हंसना नहि. १२ ८ वक्र-विषम दृष्टिसे देखना नहि. ४२४ वैरीका विश्वास करना नहि. १३ ९ अपनी जीव्हा नियममें रखनी. ४/२५ विश्वासको कवीभी दगा देना . १० विना विचारे कुछभी नहि ५ नहि.
१५
२६ कृतघ्नता - किये हुवे गुणका ११ उत्तम कुलाचारको कवीभी लो५ कवीभी नहि करना. १७
लोपन करना नहि. ५/२७ सदगुणीको देखकर प्रसन्न होना.१७ १२ किसीको मर्मवचन कहना नहि. ५/२८ जैसे तैसेका सग स्नेह करना १३ किसीको कवीभी जूठा कलक । नहिः
१८ नहि देना. .
६/२९ पात्र परीक्षा करनी चाहिये. १८ १४ किसीकोभी आक्रोश करके ३० अकार्य कवीभी करना नहि. १९ ___ कहेना नहि.
६३१ लोकापवाद प्रवर्तन हो पैसा १५ सबके उपर उपकार करना. ६ नहि वर्तना. .
करना.
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पृष्ट
चावत
नाम पृष्ठवाबत . नाम ३२ साहसीकपना कवीभी त्याग ४९ विनय सेवन करना चाहिये. २८ देना नहि. . १९५० दान देना.
२८ ३३ आपत्ति वस्तभी हिम्मत रख- ५१ दूसरेके गुणका ग्रहण करना. २८ कर रहना.
२१/५२ औसरपर बोलना. २९ ३४ प्राणान्त तकमी सन्मार्गका ५३ खल-दुर्जनकोभी जनसमाजकी
त्याग करना नहि. २१/ अदर योग्य सन्मान देना. २९ ३५ वैभव क्षय होजानपरभी यथो• ५४ स्व परहित विशेषतासे जानना २९
चित दान करना. २१/५५ मत्र तत्र नहि करना. . २९ ३६ अत्यत राग-स्नेह करना नहि. २२/५६ दुसरे-पारायेके घर अकोला . ३७ वल्लभजनपरभी बार बार गुस्सा | नहि जाना. नहि करना
२२/५७ की हुई प्रतीज्ञा पालन करनी. १० ३८ क्लेश बढाना नहि. . २३/५८ दोस्तदारसे छुपी वात न ३९ कुसग न है करना. २३/ रखनी. ४० चालकसेभी हित वचन अगी- ५९ किसीकामी अपमान नहि कार करना.
२४ करना. ४१ अन्यायसे निवर्तन होना.. २४/६० अपने गुणोंकामी गर्व नहि ४२ वैभवके वस्त खुमारी नहि करना.
३१ रखनी.
२४/६१ मनमेंभी हर्ष नहि लाना. ३२ ४३ निर्धनताके पस्त खेद भी न ६२ पहिले सुगम, सरल कार्य शुरु करना.
२५] करना. ४४ समभावसे रहना. २५/६३ पीछे वडा कार्य करना. ३२ ४५ सेवकके गुण समक्ष कहेना. २६/६४ (परतु) उत्कर्ष नहि करना. ३२ ४६ पुत्रकी प्रत्यक्ष प्रशसा नही ६५ परमात्माका ध्यान करना. करनी
૨૬૬૬ દુસરેલો સંપને માત્મા સમાન ४७ स्त्री की तो प्रत्यक्ष वा परोक्ष । जानना.
३४ भी प्रशसा करनाही नहि. २६/६७ राग द्वेष करना, नहि. ४८ प्रिय वचन बोलना.
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(८)
पाबत
नाम २ सदुपदेशसार संग्रह-बाबत ९९
३७ से ५३ ३ सार बोल संग्रह-बाबत १९ .
___५३ से ५६ ४ धर्मकल्प वृक्ष (याने) दानके चार प्रकार ___५६ से ५९ ५ सामान्य हित शिक्षा ... ... ...
... ५९ से ६६ . ६ बोधकारक दृष्टांतो पांच का संग्रहकी अनुक्रमणिका.
१ न्यायमें अन्याय करने पर शेठकी पुत्रीका ... २ धर्म करते अतुल धन प्राप्तिपर विद्यापतिका ७० ३ देना सिर रखनेमे लगते हुए दोप पर महीषका ... ४ पाप रिद्धि पर ...
५ मुग्ध शेठका ... __ ७ विविध विषयोके प्रश्नोत्तर ३५ ... ... ७५ से ८०
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गुजराथी भाषा विभागनी अनुक्रमणिका १ वैराग्यसार ने उपदेश रहस्य कलम २६३ ८१ थी ११२ २.धर्मनी दश दिशा .. . : ... ११३ थी ११४ ३ बोधकारक दृष्टांत (कथा) संग्रहनी अनुक्रमणिका. ok
१ कंवल अने संबल वृषभनी . ... ... ११५ २ भाग्यहीन स्त्री पुरुषनी ३ स्तुति अने निंदा सरखी गणवी श्रेष्ठ ए विषे ... ११८ ४ सकट परिसह उपर ... ... .
५ तत्काळ बुद्धि पर रीछ अने मनुष्यनी . ६ स्वामीनु चित्तन्छित काम करनार मंत्रीनी . ..., १२० ४ अनेक विषयोना प्रश्नोत्तर २१ - ... १२५ थी १३०, ( एना आगळनी अनुक्रमणिका पाछळना पान ५ उपर जुवो)
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।। पन्दे श्री वीरमानन्दम् ॥ ಹಿಲಿಪಿಲಿಲಿಲಿಲtಹಿಹಿಹಿಹಿಹಿಹಿಜಿ
* सर्वज्ञ कथित तत्व रहस्य * SearPPPRPRAproParko १ जीवदया (जयणा) हमेशा पालनी चाहिये.
चलते, बैठते, उठते, सोते, खाते, पीते या बोलते याने यह हरएक प्रसंगमें प्रभादसे पिराये प्राण जोखममें नहि आ जावे तैसे उपयोग रखकर चलना. सूक्ष्म जंतुओका जिस्स संहार हो जाय, तैसा खजुरीका झाडु वगैर। कचरा निकालनेके लिये कवीभी 44राशम नहि लेना. पानीमी छानकर पीना, छाना हुदा जलभी ज्यादा नहि ढोलना. जीवदयाके खातिर रात्रिभोजन नहि करना. कंदमूलभक्षण वर्जित कर देना. जीवदयाके खातिर जहा तहा अग्नि नहि सिलगानेका ध्यान रखना; क्योंकि अपने प्राणहीके समान सब जीवों को अपने अपने प्राण वल्लभ हैं, तो तिन्ह के प्रिय प्राणों की कीम्मत बुझकर स्वच्छंदपना छोडकर जैसे उनका बचाव हो सके तैसे कार्य करने में मथन करना ओर याद रखना कि सर्व अभक्ष्य-मद्य मांसादिके भक्षणसे क्षणिक रसकी लालचके लीए असंख्य जीवोंके कीमती जानकी वारी होती है, तिन्हके नाहक संहारसे महान् पाप होनेसे जगत्म महा रोगादि उपद्रव उद्भवते है
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(२)
तिन्हा भोग हो पडता है और उप्रांत - अंतमें नरकादि घोर दुःखके भागीदार होना पडता है.
२ निरंतर इंद्रिय वर्गका दमन करना.
दरेक इंद्रियका पतंगजतु, भौरा, मत्स्य, हाथी और हिरनकी तरह दुरुपयोग करना छोड़कर संत जनोंकी तराह इंद्रियों का सदुपयोग करके दरेकका सार्थक्य करनेके लीए खंत रखनी चाहिये. एक एक छुट्टी की हुई इंद्रिय तोफानी घोडेकी तरह मालिकको विषम मार्गमें ले जाकर ख्वार करती है, तो पांचोको छुट्टी रखनेवाले दीन अनाथ जनका क्या हाल होवे ? इसी लिए इंद्रियों के ताबेदार न बनकर उन्होको वश्यकर स्वकार्य साधनमें उचित रीति
जव प्रवर्त्तावनी चाहिये. किपाक तुल्य विषयरस समझकर तिसकी लालच छोडकर संत दर्शन, संत सेवा, संत स्तुति, सत वचन श्रवणादिसे वो इंद्रियों का सार्थक्य करनेके लिए उद्युक्त रहकर प्रतिदिन स्वहित साधनेको तत्पर रहना उचित है.
३ राय वपन ही बोलना.
धर्म का रहस्यभूत ऐसा, अन्यको हितकारी तथा परिमित, जरूर जितनाही भाषण औसर उचित करना, सोही स्वपरको हित कल्याण कारी है. क्रोधादि कषायके परवश होकर वा भयसे या हांसीके खातिर अज्ञजन असत्य बोलकर आप अपराधी होते है, सो खास ख्याल रखकर तैसे वरुतमें हिम्मत धारण कर यह महान् दोष सेवन नहि करना. सत्यसे युधिष्टिर, धर्मराजाकी गिनती गिनाये गये, ऐसा जानकर असत्य बोलनेकी या प्रयोजन बिगर बहोत बोलने की आदत छोडकर हितमितभाषी बन जाना, किसीको अप्रीति खेद पैदा होय तैसी बोलनेकी आदत यत्नसे छोड देनी.
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(३) ४ शील कबीभी छोडना नहि. ब्रह्मचर्य व्रत या सदाचारके नियमे चाहे पैसे संकट में भी लोप देनेकी इच्छा नहि करनी. सत्यवंत अपने व्रतोको प्राणोंकी समान गिनते है, और प्राणात तलक तिन्हकी खंडना नहि करते है याने अखंडव्रती रहते है, सोही सच्चे शूरवीर कहे जाते है. ५कबीभी कुशील जनके संग निवास करना नहि.
तैसे हलके आचारवाले के साथ रहनेसे 'सोवते असर ' यह कहेवत मुजब अपने अच्छे आचारोंको अवश्य धोखा धका पहुंचता है और लोकापवादभी आता है इसी लिये लोकापवाद भीरुजनोंको तैसे भ्रष्टाचारीयोंकी सोबत सर्वथा त्याग देनीही योग्य है. सोबत करनेकी चाहना हो तो कल्पवृक्षके समान शीतल छाउंके देनेवाले संत पुरुषकोही सोबत करो, जिस्से सब संसारका ताप टालकर तुम परम शांत रस चाखनेको भाग्यशाली बन सको.
____६ गुरुवचन कदापि लोपना नहि.
एकांत हितकारी-सत्य-निर्दोष मागकोही सदा सेवन करनेवाले और सत्य मार्गको दिखानेवाले सद्गुरुका हित वचन कदापि लोपन करना नहि. किन्तु प्राणात तक तद्वत् वर्तन करनेको प्रयत्न करना यही शास्त्रका साराश है. तैसे सद्गुरुकी आज्ञा पूर्वकही सव धर्म-कर्म-कृत्य सफल है. अन्यथा निष्फल कहा जाता है. इस लिये सदा सद्गुरुका आशय समझकर तद्वत् वर्तनमें उद्युक्त रहना यही सुविनीत शिप्यका शुद्ध लक्षण है.
७ (अ) चपलता अजयणारो चलना नहि. __ अजयणासे चलने के सबबसे अनेकशः स्खलना होनेके उपरात अनेक जीवोंका उपघात, और किचित् अपनाभी धात- होनेका
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(४)
• संभव है. इस लिये चपलता छोडकर समतासे चलना, जिर स्वपरकी रक्षापूर्वक आत्माका हित साध सके.
(ब) उद्भट वेष पहेरना नहि. अति उद्भट वेष-पोषाक धारण करनेसे याने स्वच्छंदपना आदरनेसे लोगोंके भीतर हांसी होती है, इस लिये आमदनी और खर्चा देखकर-तपास कर घटित वेष धारण करना. जिस्की कम आमदानी हो उस्को जुठा दववेवाला पोषाक नहि रखना चाहिये.. तथा धनवंत हो उस्को मलीन-फट्टे टूटे हालतवाला पोषाक रखना वोभी बेमुनासीव है.
८ वी विषम दृष्टिो देखना नहि, ____ सरल दृष्टिसे देखना, इसमें बहोतसे फायदे समाये है. शंकाशीलता टल जाय, लोगोमें विश्वास बैठे, लोकापवाद न आने पावे, स्व परहित सुखसे साध सके, ऐसी समदृष्टि रखनी चाहिये. अज्ञानताके जोरसे बांका बोलकर और बाका चलकर जीव बहोत दुःखी होते है; तदपि यह अनादिकी कुचाल सुधार लेनी जीवको मुश्कल पडती है. जिस्की भाग्य दशा जाग्रत हुई है वा जाग्रत होनेकी हो वोही सीधे रस्ते चल सकता है, ऐसा समझकर धूम्रकी मुठी भरने जैसा मिथ्या प्रयास नहि करते सीधी सडकपर चलकर स्वहित साधन निमित्त सुज्ञ मनुष्यको चकना नहि चाहिये. ऐसी अच्छी मर्यादा समालकर चलनेसे क्रुषित हुवा दुर्जनभी क्या विरुद्ध बोल सके ? कुच्छभी छिद्र नहि देखनसे किंचित्- एडी तेडी बातमी नहि बोल सकता है. इस लिये निरंतर समदृष्टि रखकर चलना के जिसे किसीको टीका करनेकी जरुर न पडे.
९ अपनी जीव्हा नियममें रखनी, जीव्हाको वश्य करनी, निकम्मा बोलना नहि, जरुरत मालु
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(५)
हो तो विचार कर हित मितही भाषण करना. अगर रसलंपट होकर जीव्हाको वश्य पड रोगादि उपाधि खडी होती है. तथा मर्यादा बहार जाना नहि. जीभके वश्य पढे हुवेकी दूसरी इंद्रियें कुपित होकर तिन्होंको गुलाम बनाके बहोत दुःख देती है. इस हेतुसे सुखार्थी जन जीभके ताबे न होकर जीभकोही तावे कर लेवे बोही सबसे बहत्तर है.
१० बिना बिचारे कुछभी नहि करना.
सहसा---अविवेक आचरण से बडी आपदा - विपत्ति आ पडती है. और विचारकर विवेकसे वर्तने वालेको तो स्वयमेव संपदा आ कर अंगीकार कर लेती है. वास्ते एकाएक साहस काम कीये बिगर लंबी नजरसे बिचारके, उचित नीति आदर के वर्तना के जिस्से कबीभी खेद पश्चाताप करनेका प्रसंगही आता नहीं. सहसा काम करने वालेको बहोत करके तैसा प्रसंग आये बिना रहेताही नहीं है. ११ उत्तम कुलाचारको कबीभी लोपन करना नहि.
उत्तम कुलाचार शिष्ट मान्य होनेसे धर्म के श्रेष्ट नियमोकी तरह आदरने योग्य है. मद्यमासादि अभक्ष्य वर्जित करना, परनिंदा छोड देनी, हसवृत्तिसे गुणमात्र ग्रहण करना, विषयलपटता-असंतोष तजकर सतोष वृत्ति धारण करनी, स्वार्थवृत्ति तजके निःस्वा थेपनसे परोपकार करना, यावत् मद मत्सरादिका त्याग कर मृदुतादि विवेक धारणरुप उत्तम कुलाचार कौन कुशल कुलीनको मान्य न होय ? ऐसी उत्तम मर्यादा सेवन करनेवालेको कुपित हुवा कलिकालभी क्या कर सकता है ?
१२ किसीको मर्मवचन कहेना नहिं .
मर्म वचन सहन न होनेसे कितनेक मुग्ध लोग मानके लिये मरणके शरण होते है, इस लिये तैसा परको परितापकारी वचन
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कवीभी उचरना नहिं. मृदुभाषा म्हामनेवालेकोभी पसंद पडती है. चाहे तैसा स्वार्थ भोगसे हामनेवालेका हित होय पैसाही विचारकर बोलना. सज्जनकी तैसी उत्तम नाति कवभिी उल्लंपनी नहि. लोगोंमेंभी कहेवत है कि 'शकरसे जहांतक पित्त शमन हो जाय
यहां तक चिरायता काहेकु पिलाना चाहिये ?' ___ १३ किसीको कवीभी जूठा कलंक नहि देना,
___ किसीको भूठा कलंक देनेरु५ महान् साहससे बुराही परिणाम __ आनेके उग्र संभवसे सर्वथा निध तथा त्याज्य है. दूसरेको दुःख
देनेकी चाहना करने वाला आपही दुःख मांग लेता है.क्योंकि कहेवत हैं कि खट्टा खोदे सोही पडे.' याने जनको इतनीभी शिखामन वस है. जैसे कुशिक्षितका अपनाही शस्त्र अपनाही प्राण
लेता है तिन्हके साहश इन्कोभी समझकर - सच्चे सुखार्थी होकर __ सत्य और हित मार्गपरही चलनेकी जरुरत रखनी उचित है. कहे
तभी चली आती है कि 'सांचको काहेकी आंच !'
१४ किसीकोभी आक्रोश करके कहेना नहि.. _ कोप करके किसीको सच्ची बातमी कहेनेसे लाभके बदलेमें गैरलाभ हाथ आता है. इस वास्ते आक्रोश करके कहना छोडकर स्वपरको हितकारी सच्ची बात और नम्रताइसे विवेकपूर्वकही कहेनेकी आदत रखनी चाहिये. समजदार मनुष्यको लाभालामका विचार करकेही वर्तना वटित है. यही कठिन सज्जन रीति है कि जो हर एक हितार्थियों को अवश्य आदरणीय है.
१५ राबके उपर उपकार करना. मेवकी तरह सम विषम गिनना छोडकर सबपर समान हितबुद्धि रखनी. वृक्ष नीच उंच सबको शीतल छांड देता है, गंगाजल सवका समान प्रकारसे ताप दूर करता है, चंदन सबको समान
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( ७ )
सुगंधी देता है. वैसेही उपकारी जन जगत्मात्रका उपकार करता जो अपकार करनेवाले परभी उपकार करे सोही जगत्में बड़ा गिना जाता है.
१६ उपकारीका उपकार कभी भूलना नहि. कृतज्ञ जन किये हुवे उपकारको कबभी नहि भूलता है. और जो मनुष्य किये हुवे उपकारको भूल जाता है वो कृतघ्न कहा जाता है. और इरसे भी जो जन उपकारीका अहित करनेको इच्छे वो तो महान् कृतघ्न जानना, माता, पिता, स्वामी और धर्मगुरुके उपकारका बदला दे सके ऐसा नहि है. तथापि कृतज्ञ मनुष्य तिन्होकी बन सके जितनी अनुकूलता संभालकर तिन्हके धर्मकार्यमें सहायभूत होनेके लिये ठीक ठीक प्रयत्न करे तो कदापि अनृणी हो सकता है. सत्य सर्वज्ञ भाषित धर्मकी प्राप्ति कराने वाले धर्मगुरुका उपकार सर्वोत्कृष्ट है. ऐसा समझकर सुविनीत शिष्य तिन्हकी पवित्र आज्ञामे वर्त्तनेके लिये पूर्ण खंत रखता है, और यह फरमानसे विरुद्ध वर्त्तन चलानेवाले गुरुद्रोही महापातकी गिने जाते है. ૭ અનાથો ચોગ્ય આશ્રય તેના.
अपनी आजीविका के विषे जिन्हें को कुछमी साधन नहि है जो केवल निराधार है. ऐसे अशक्त अनाथको यथायोग्य आलंवन - आधार - आश्रय देना यह हर एक शक्तिवंत धनाढ्य दानी मनुष्योंकी खास फरज है. दु:खी होते हुवे दनि जनोंका दुःख दिलमें वारण करके तिन्होको वख्तके उपर विवेकपूर्वक मदद देनेवाले समयको अनुसरके महान् पुण्य उपार्जन करते है. और तिन्ह के पुण्यबल से लक्ष्मीमी अखूट रहेती हैं. कुएके पानी की तराह बडी उदारता से व्यय की हुइ हो तोभी उदारताकी लक्ष्मी पुण्यरूपी अविच्छिन्न जल प्रवाह की मदद से फिर पूर्ण हो जाती है. तदपि
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(6)
कृपणको ऐसी सुबुद्धि पूर्व अंतराय के योगसे ध्यानमें पैदाही नहि होती है, तिस्रों वो विचारा केवल लक्ष्मीका दासत्वपना करके अंतमें आर्त्तध्यानसे अशुभ कर्म उपार्जके हाथ घसता - रीते हायसे यमके शरण होता है. वहां और उसके बादमी पूर्व अशुभ अंतराय कर्मके योगसे वो रंक अनाथको मह । दुःख भुक्तना पडता है. वहा कोई शरण- आधारभूत होता नहि है. अपनीही भूल अपनकोनडती है. कृपणभी प्रत्यक्ष देख सकता है कि कोइमी एक कवडीकौडीभी साथ बाधकर ले आया नहि और अवसान समय कौडी बांधकर साथ ले जा सकेगाभी नहि, तदपि बिचारा मम्मण शेठकी तराह महा अतिध्यान धरता और धन धन करता हुवा झूर झूरके मरता है. और अतमें वो बहोतही बुरे विपाक पाता है. यह सब कृपणताके कटुफल समझकर अपनकोभी तैसेही बूरे विपाक भुक्तन न पडे, इस लिये पानी पहेले पाल बांधने की तरह अन्चलसेही चेतकर अपनी लक्ष्मीके दास नहि लेकिन स्वामी बनकर उस्का विवेकपूर्वक यथास्थानमें व्यय करके तिस्की सार्थकता करनेके लिये सद्गृहस्य भाइयों को जाग्रत होने की खास जरूरत है. नहि तो याद रखना कि, अपनी केवल स्वार्थ वृत्तिरूप महान् भूलके लिये अपनकोहि आगे दुःख सहन करना पडेगा, इसिलिये हृदयमें कुछमी विचार-पश्चाताप करके सच्चा परमार्थ मार्ग अंगीकार कर अपनी गंभीर भूल सुधार लेनेको चुकना सोन्याने सद्गृहस्थोंको योग्य नहि है. श्री सर्वज्ञ प्रभुने दर्शाया हुवा अनत स्वाधीन लाभ गुमा देके और अंतम रीते हाथ घिसते जाकर परभवमे अपनेही किये हुवे पापाचरण के फलका स्वाद अनुभव यह कोइभी रीति से विचारशील सदगृहस्थाको लाजीम शोभारुप नहि है. तत्वज्ञानी पुरुषों के यही वचनोको अमृत बुद्धिसे अंगीकार कर विवेक पूर्वक आदरते हैं सो अत्र और परत्र अवश्य सुखी होते हैं.
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(९)
१८ किसीके अगाडी दीनता दिखलानी नही. __ तुच्छ स्वार्थके खातिर दूसरेके अगाडी दीनता बतानी योग्य __ नहि है. यदि दीनता-नम्रता करनेको चाहो तो सर्व शक्तिमान सर्व
ज्ञकी करो. क्योंकि वो आप पूर्ण समर्थ है और अपने आश्रितकी भीड भांग सकते है, मगर जो आपही अपूर्ण अशक्त है वो शरणागतकी किस प्रकारसे भीड भांग सके ? सर्वज्ञ प्रभुके पास भी विवेकसे योग्य मंगनी करनी योग्य है. वीतराग परमात्माकी किंवा निग्रंथ अणगारकी पास तुच्छ सांसारिक सुखकी प्रार्थना करनी उचित नहि है. तिन्होंके पास तो जन्म मरणके दुःख दूर करनेकाही अगर भवभवके दु.ख जिस्से हट जाय एसी उत्तम सामग्रीकीही प्रार्थना करनी योग्य है. यद्यपि वीतराग प्रभु राग द्वेष रहित है; तथापि प्रभुकी शुद्ध भक्तिका राग चिंतामणीरत्नकी सादृश फलीभूत हूए विगर रहेता नहि. शुद्ध भाक्त यहभी एक अपूर्व पश्यार्थ प्रयोग है. भक्तिसे कठिन कर्मकाभी नाश हो जाता है, और उससे सर्व संपत्ति सहजहीमें आकर प्राप्त होती है. ऐसा अपूर्व लाभ छोडकर बवूलको भाथ भरने जैसी तुच्छ विषय आशंसनासे विकलयनसे तैसीही प्रार्थना प्रभुके अगाडी करनी के अन्यत्र करनी यह कोई प्रकारसे सुज्ञजनोको मुनासिवही नहि है. सर्व शक्तिवत सर्वज्ञ प्रभुके समीप पूर्ण भक्ति रागसे विवेक पूर्वक ऐसी उत्तम प्रार्थना करो यावत् परमात्म प्रभुकी पवित्र आज्ञाको अनुसरनेके लिये ऐसा उत्तम पुरुषार्थ स्फुरायमान करो के जिरसे भवभवकी भावट टलकर परमसंपद् प्राप्तिसे नित्य दिकाली होय, यावत् परमानद प्रकटायमान होय, मतलब कि अनत अबाधित अक्षय सहज सुख होय. सेवा करनी तो ऐसेही स्वामीकी करनी के जिस्से सेवक भी स्वामीके समानही हो जावे.
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(१०) ___१९ किसीकी भी प्रार्थनाका भंग करना नहि.
मनुष्य जब बडी मुशीबतमें आ गया हो तबही बहोत करके गर्व टेक छोडकर दूसरे समर्थ मनुष्यको अपनी भीड भांगनेकी आशासे प्रार्थना करता है. ऐसे समझकर दानी दिलके श्याने और समर्थ मनुष्यने तिकी प्रार्थना योग्य ही होय तो तिका प्राणांत तकभी भंग नहि करक स्हामने वालेका दुःख दूर करने लायक जो कुछ देना उचित हो सोमी प्रिय भाषण पूर्वक ही देना, लेकिन उच्छृखल वृत्तिसे देना नहि. प्रिय वाक्य पूर्वक देना सोही भूषणरूप है अन्यथा दूषणरुप ही समजना. ऐसा हिताहितको विवेक पूर्वक सुज्ञ मनुष्यको वर्तन चलानाही योग्य है. नहि तो दिया हुवा दानभी व्यर्थ हो जाता है और मूर्खमें गिनती होती है.
२० दीन वचन बोलना नहि, दीन वचनोसे मनुष्यका भार- बोज हलका हो जाता है और फिर सुज्ञजन परीक्षाभी कर लेते है कि यह मनुष्य कपटी या तो खुशामदखार है. गुणवंतको गुणी जानकर उचित नम्रता बतानी वो दीनपने में गिनी जाती नहि है. गुणी पुरुषोंके स्वाभाविक ही दास बनकर रहेना यह अपने स्वाभाविक गुणप्राप्तिके निमित्त होनेसे वो दूषितही नहि गिना जाता है, इसी लिये विवेक लाकर जरुरत हो तब अदीन भाषण करना कि जिस्से स्वार्थ हानि होने नहि पावे. और यह उत्तम नियम विवेकी जन. जीवन पर्यत निभावे तो अत्यंतही शोभारुप है.
२१ आत्मप्रशंसा करनी नहि. आत्मश्लाघा याने आपचडाई करके खुश होना यह महान्
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(११) दोष है. इसे महान् पुरुषोंका अपमान होता है. ऐसे महत्पुरुषोंकी आशातना-अवमानता करनेसे कर्मबंधन कर आत्मा दुःखी होता है. सज्जन पुरुषोंकी यही रीतिही नहि है. सज्जन पुरुषो तो दूसरेके परमाणु जितनेभी गुणोंको बखानते है, और अपने मेरुके समान बड़े गूणोकाभी गान नहि करते. तो गुणके बिगर घमंड रखकर अपूर्ण घटकी तराह न्यूनता दिखानी सो कितनी बडी भूल और बिचारने जैसी बात है. यह बातका विचार कर पूर्ण बडेकी समान गंभीरताइ धारण करनी शीख लेनी और आप बडाइ करनी छोड़ देनी; क्यों कि आपबडाइ करनेमें कदम दर कदम पर निंदाका दोष लगता है. पर निंदाके पाप अति बूरे होनेसे मिथ्या आपवडाइ करनेवाला प्राणी तैसे पापकर्मोसे अपने आत्माको मलीन कर परमवमें या क्वचित् यही भवमें बहोत दुःखी हालतमें आ जाता है.
२२ दुर्जनकी भी कबी निंदा नहि करनी, ___ परनिंदा करनेसे कुछभी फायदा नहि है, मगर निदा करनेवालेको बडा गेरफायदा होता है. अपना अमूल्य वस्त गुमाकर आपही मलीन होता है. निंदा यह हामनेवालेको सुधारनेका मार्ग नहि है किंतु विगाडनेका रस्ता है, ऐसा कहाजाय तो कुछ जूठा नहि है. सज्जन जन तो तैसे निंदकोसे ज्यादा ज्यादा जाग्रत -सचेत रहकर गुण ग्रहण करते है लेकिन दुर्जन तो उलटे कुपित होकर दुर्जनताकीही वृद्धि करते है. इस लिये दुर्जनको निंदासेमी हानिही हाथ आती है. संत-सज्जनोकी निदासे सज्जन जनकोतो कुछभी औगुन मालुम होता नहि है; तदपि तैसे उत्तमा पुरुषोंकी नाहक निंदा करनेमें आशयकी महा मलीनता होने के लिये निकाचित् कर्मबंधकर निदक नरकादि अधोगतिमेंही जाते है.
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( १२ )
निंदा, चाडी, परद्रोह तथा असत्य कलंक चडानेवाले वा हिंसा, असत्य भाषण, पर द्रव्य हरण और परस्त्री गमनादि अनीति वा अनाचार करनेवाले, क्रोधाध, रागांध होनेवालेके जो जो बूरे हाल होने का शास्त्रकारोंने वर्णन कीया है तो, तथा तिस संबंधी हितबुद्धिसे जो कुछ कहेना वो निंदा नहि कही जाती हैं, मगर हितबुद्धि बिगर द्वेषसे पिरायेकी बातें कर दिल दुभाना सो निंदा कही जाती है. और वह निद्य है, इसलिये नाम लेकर पिरायेकी बढ़ी करनेका मिथ्या प्रयास करना नहि. कबी निंदा करनेका दिल हो जाय तो सच्चे और अपनेही दोषोंकी निदा करनी कि जिरसें खुद कुछभी दोषमुक्त होता है. केवल दोषोंकीभी निंदा करनेसे कुछ कार्य सिद्धि नहि होती, तोभी परनिंदा से स्वनिंदा बहोतही अच्छी है.
२३ बहोत हंसना नहि.
बहोत हंसना सो भी अहितकारी है. बहोत हंसने से परिणाम में रोनेका प्रसंग आता है. हसनेकी बुरी आदत मनुष्यको बडी आपत्तिमें डालती है, बहोत वख्त हसनेकी आदत होनेसे मनुष्य कारसे या बिगर कारणसे भी हंसता है और वैसा करने से राज्यसत्ता या अंतःपुर में हंसनेवालेकी बडी ख्वारी होती है, इसिलिये वो आदत प्रयत्न करके छोड देनीही योग्य है. कहेवतभी है कि " हंसी विपत्तिका मूल है ' हाथसे करके जीसको जोखममें डालना -हो वा हाथसे करके उपाधि खडी करनी हो तो एसी कुटेब रखनी. अन्यथा तो तिस्कों त्याग देनी उसमेंही सुख है. सभ्य जनकीभी यही नीति है. मुमुक्षु मोक्षार्थी सत सुसाधुओंको तो वो कुठेच सर्वथा त्याग देने लायकही है. ऐसी अच्छी नीति पालन । करनेसेही प्राणी धर्मके अधिकारी बनकर सर्वज्ञ भाषित धर्मको
बूरी
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( १३ )
सम्यग् प्रमाद रहित सेवन कर सद्भाग्य के भागीदार होके अंत अक्षय सुख संपादन कर सकता है.
२४ वैरीका विश्वास करना नहि.
विश्वास नहि करने योग्य मनुष्यका विश्वास करनेसे बडी हानि होती है, इस लिये पहिलेसेही खबरदार रहेना कि जिससे पीछेसे पश्चाताप नहि करना पडे. काम, क्रोध, मद, मोह मत्सरादिको अंतरंग शत्रु समझकर तिन्होंका कबीभी विश्वास सच्चे सुखार्थीको करना योग्य नहि है. सर्वज्ञ प्रभुने पंच प्रमादोंको प्रबल शत्रु कहे है.
जिस्के योगसे प्राणी प्रकर्षकर स्वकर्तव्य से भ्रष्ट हो यावत् बेभान होता है सोही प्रमाद कहा जाता है. मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा यह पाच प्रमाद है, और यह पांचों से एक हो तो भी महा हानिकारी है, और जब पाचों प्रमादों के वश जो मनुष्य पड गया हो उस्का तो कहेनाही क्या ?
मद्यपानसे लक्ष्मी, विद्या, यश, मानादिकी हानि होती है सो जगत् प्रसिद्ध है.
विषय विकारके ताबे होनेवाला बडा योगीश्वर हो, ब्रह्मा हो तोभी स्त्रीका दास बन जाता है और हिम्मत हारकर एक अबलाकामी दीन दास बनता है यही विषयाघताका फल है.
कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ यह चारोंकी चंडालचोकडी कही जाती है. तिन्हका संग करनेवाला यावत् तिस्में तन्मय होकर वा हुवा क्रोधाध यावत् लोभाध कुछभी कृत्याकृत्य हिताहित देख सकता नहि. कषाय - कलुषित मति फिर कुछ औरही नया देखाव देती है. बूढा है पर बालककी तराह और पंडित है पर मुर्खकी तरह यावत् मूलग्रस्तकी मुवाफिक विपरीत - विरुद्ध चेष्टा' करता है, जिससे तिस्का वडा लोकापवाद प्रसरता है. कषायांचा
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(१४) विवेकशून्य पशुको तरांह अपमान पाता है यावत् बूरे हालसे मृत्यु पाकर दुर्गतिकाही भागी होता है. इस लिये क्रोधादि कषायकी सेवा करनेवालेको मनुष्य नहि मगर हैवान समझना. कट्टे दुश्मनसेभी ज्यादा खाना खराबी करनेवाले कपायही है, ऐसा समझकर कुछ हृदयमें भान लाया जाय तो अच्छा. कट्टा शलु ___ एकही भवमें दुःख दे सकता है, लेकिन यह कषाय शत्रु तो भवभवमें दुःख दे सकते है.
निद्रा देवीके परवश पडे हुवे प्राणीकीभी बहोत बुरी हालत होती है, जो निद्राके ताबे न होकर निद्राकोही ताबे कर लेकर विवेक धारण करते है तिन महाशयोंको लीलाल्हेर होती है.
विकथा जिस्के अंदर स्व पर हित तत्पसे संस्कारित न हुवा हो, तैसी वाहियात बात करनी सो विकथा कही जाती है. राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, तथा भक्त- भोजन कथा यह चार विकथाओंका त्याग कर जिससे स्व पर हित अवश्य साध सके तैसी धर्म कथा कहेनी योग्य है. विकथा करनेवालेका कीमती वसत कौडीके मूल्यमें चला जाता है. और विवेकपूर्वक धर्मकथा केहेनवोलेका वस्त अमूल्य गिना जाता है; तदपि विवेक विकल लोग विकथा वर्जकर उत्तम धर्म कथासे परस्तको सार्थक करनेके वास्ते खत नहि रखते है, तो तिन्होंको आगे बहोत पस्तानाही पडेगा. और जो विवेक'पूर्वक यह हितोपदेशको हृदयमें धारणकर तिस्का परमार्थ विचारके सीधे रस्ते चलेंगे तो सर्वत्र सुखी होंगे, सच्चे सुखार्थी जन यह पापी पाचों प्रमादके फंदमें न फंसकर ‘अप्रमाद दंडसे तिन्होंका नाश करनेकलिये उक्त रहेनाही दुरस्त धारते है, अप्रमादके समान कोइभी निष्कारण निःस्वार्थी बांधव नहि. है. इस लिये पापी प्रभादोंके परका विश्वास परिहरके
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(१५) उपकारी अप्रमाद बांधवमेंही सर्व विश्वास स्थापन करना कि जिरसे सर्वत्र यश प्राप्त होय. ___ २५ विश्वासको कबीभी दगा देना नहि. ___ विश्वास रखकर जो शरण आवे उस्को दगा देना उस्के समान कोइ एकभी ज्यादा पाप नहि है. वो गोदमें सोते हुवेका शिर काट देने जैसा जुल्म है. अच्छे अच्छे बुद्धिशाली लोकभी धर्मके लिये विश्वास करते है. तैसे धर्मार्थी जनोंको स्वार्थाध बनकर धर्मके व्हानही ठग लेवे यह बड़ा अन्याय है.आपहीमें पोलपोल होवे तोभी गुणी गरुका आडंबर रचके पापी विषयादि प्रमादके परवशपनेसें भोले लोगोंको ठग लेवे. तिन्के जैसा एकभी विश्वासघात नहीं है. भोले भक्त जानते है कि अपन गुरुकी भक्ति करके गुरुका शरण लेकर यह भवजल तिर जाएंगे. लेकिन पत्थरके नावकी मुवाफिक अनेक दोषोसे जो दूषित है तो भी मिथ्या महत्वको इच्छनेवाले दभी कुगुरु आपको और परिक्षा रहित अंधप्रवृत्ति करनेवाले आपके भोले आश्रित शिष्य भक्तोंको, भव समुद्रमें डूबा देते है और ऐसे स्वपरको मह। दुःख उपाधिमें हाथसे डाल देते है, जो ऐसा कार्य करते हे वो धर्मठग कुगरओको यह संसार चक्रमें परिभ्रमण करनेमें समय महा कट फलका स्वादानुभव लेना पडता है. इस वास्तही श्री सर्वज्ञ देवने धर्म गुरुओको रहणी करणी बराबर रखकर निर्दभतासे वर्तने काही फरमान कीया है. अपन प्रकटतासे देख सकते है कि कितनेक कुमतिके फंदमें फसे हुवे और विषय वासनासे पूरित हुवे हो तदपि धर्मगुरुका डोल-स्वांग धारण कर केवल अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये अनेक प्रपंच जाल गुथन कर और अनेक कुतर्क करके सत्य और हितकर सर्वज्ञके उपदेशकोभी छुपाते है इस तरहसे आप धर्मगुरुही धर्मठग बनकर भोले हिरन साहा केवल
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( १६ )
कर्णेद्रिय लोलूपी आंखे मीचकर हांजी हा करनेवाले अपने आश्रित भोले भक्तों को ठगकर स्वपरको विगाड़ते है. सो विवेकी हंस कैसे सहन कर सके ? दिन प्रतिदिन वो पापी चेप पसार कर दुनियाको पायमाल करते है, तिस्से वो उपेक्षा करने लायक नहि है. जगत् मात्रको हित शिक्षा देनेके लिये बंधाये हुवे दीक्षित साधुओं कि जो सर्वज्ञ प्रभुकी पवित्र आज्ञा - वचनोंको हृदयमें धारण करनेवाले और निष्कपटतासे तद्वत् वर्त्तनेको स्वशाक्त स्फुराने हारे और समस्त लोभ लालचको छोडकर जन्म मरणके दुःखसे डरकर लेश मात्रभी वीतराग वचनको छुपाते श्री सर्वज्ञकी आज्ञाको पूर्ण प्रेमसे आराधनेकी दरकार कर रहे है, वोही धर्मगुरुके नामको सत्यकर बतानेको शक्तिमान हो सकते है. तैसे सिंह किशोरही सर्वज्ञके सत्य पुत्र है, दूसरे तो हाथी के दातोंकी समान दिखाने के दूसरे और खाने के - चर्पण करने के भी दूसरे है तिनके नामको तो डेढ कोसका नमस्कार है ! भो भन्यो ! विवेक चक्षु खोलकर सुगुरु और कुगुरु- सच्चे धर्म गुरु और धर्मठगको बराबर पिच्छानके लोभी, लालचु और कपटी कुगुरुको काले सांपकी तरह सर्वथा त्याग कर अशरण शरण धर्मधुरंधर सिंह किशोर समान सत्य सर्वज्ञ पुत्रोका परम भक्त भावसे सेवन-आराधन करनेको तत्पर हो जाओ ! जिस्से सब जन्म जरा और मरणकी उपाधी अलग कर तुम अंतमें अक्षय पद प्राप्त करो ! उत्तम सारथी या उत्तम नियामक समान सद्गुरुकेही दृढ आलंबन से अगाडीभी असंख्य प्राणि यह दुःखमय संसारका पार पाये है. अपनकोभी ऐसाही महात्माको सदा शरण हो. ऐसे परोपकारशील महात्मा कबीभी प्राणांत तकमी परवंचन करतेही नहि.
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(१७)
२६ कृतघ्नता किये हुवे गुणका लोप
कबीभी नहि करना. उत्तम मनुष्य औगुनके उपर गुन करते है. मध्यम मनुष्य दूसरेने गुन कीया हो तो आप अपनी पस्त हो उस वख्त बने जितनाका बदला देना धारते है; परंतु अधम मनुष्य तो कीये हुये गुनका भी लोप करते है. ऐसी अधम वृत्तिवाले अज्ञानी अविवेकी जनसे तो कुत्तभी अच्छे गिनेजात है, कि जो थोडाभी रोटीका टुकडा या खोराक खाया हो, तो खिलानेवालेको देखकर अपनी पूंछ हिलाकर खुश हो अपना कृतज्ञपना जाहेर करते हुवे उनके घरकी रात दिन चोकी करते है ऐसा समझकर कृतज्ञता आदर कर धर्मकी स्यायकात प्राप्त कर कुछभी धर्म आराधना करके स्व-मानवपना सार्थक करना, अन्यथा मातुश्रीकी कुक्षीको धिःकार पात्र बनाकर भूमिको केवल भारभूत होने जैसा है समझ . रखना कि, कृतज्ञ विवेकी रत्नाकीहो माता रत्नकुक्षी कहलाती है. ऐसा न्यायका रहस्य समझकर स्वपर हितकारी विवेक धारण करने का यत्न करना. ___ २७ सद्गुणीको देखकर प्रसन्न होना.
वो प्रमोद या मुदिता भाव कहा जाता है. चंद्रको देखकर चकोर जैसे खुशी होता है, और मेवगर्जना सुनकर मयुर जैसे नाचता है तैसें सद्गुणीके दर्शन मात्रसे भव्य चकोरको हर्ष-प्रकर्ष होना चाहिये. दुसरेके सद्गुणोकी प्रतीति हुवे पीछेभी तिनके उपर द्वेष धरना ए दुर्गतिकाही द्वार है, पास्ते केवल दुःखदाइ द्वेषવૃદ્ધિ ત્યાર સવૈવ સુવાક્ મુળવુદ્ધિ ધારણ કર વિવો ઇંતવત્ होने के लिये सद्गुणीको देखकर परम प्रमोद धारण करना.
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(१८) २८ जैसे तैरोका संग स्नेह करना नहि. ___ मूरख साथ सनेहता, पग पग होवे कलेश.' ए उक्ति अनुसार मूर्ख कुपात्रके साथ प्रीति बाधनी नहि क्योंकि मूर्खकी प्रीतिसे अपनीभी पत जाती है. यदि स्नेह करना चाहते हो तो विवेकी हंस सश, संत-सुसाधु जनके साथही करो कि जिस तुम अनादिका अविवेक त्याग कर सुविवेक धरनेमें समर्थ हो सको. खास याद रखना चाहिये कि, संत सुसाधुके समागम समान दुसरा उत्तम
आनंद नहि है. ऐसा कौन मूर्सशिरोमणि हो कि अमृतकों छोडकर हालाहल विष साहश अविवेकीकी-कुशीलकी संगति चाहे ? श्याना मनुष्य तो कबीभी न चाहेगा ! जो भूडिये जैसी वृत्तिवाला होगा वो तो जहां तहां अशुचि स्थानमेंही भटकता फिरेंगा उस्में क्या
आश्चर्य है ? क्योंकि जिस्का जैसा जाति स्वभाव होवे वैसाही कृत्य __ कीया करे. ऐसे नीच जनोकी सोबतसे अच्छे सुशील मनुष्योको भी कचित् छिटे लगते है.
२९ पात्रपरीक्षा करनी चाहिये, जैसे सुवर्णकी कस, छेदन, तापादिसे परीक्षा की जाती है, जैसे मोतिकी उज्वलता आदिसे परीक्षा की जाती है, तैसे उत्तम पात्रकी भी सुवृत्तिसे सदगुणोकी परीक्षा करनी चाहिये. सुपात्रकी अंदर उत्तम वस्तु शोभायमान या कायम होती है. सुपात्र में विवेक पूर्वक चोथा हुवा उत्तम बीज शुद्ध भूमिकी तरह उत्तम फल देता है. छीपमें पडा हुवा स्वाति जलबिन्दुका सच्चा मोति पकता है, और सांपके मुखमें पडा हुवा पोहि (स्वाति ) जलबिदु झहेररूप होता है. वार पात्र परीक्षा कर दान, मान, विद्या, विनय और अधिकार वगैरा व्यवहार करना योग्य है. सुपात्रमें सब सफल होता है, और कुपात्र में नफेके बदले टोटा-अनर्थ पैदा होता है. इस लिये पात्रा पात्रका
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( १९) विवेक बुद्धिशालीको अवश्य करना कि जिसे स्वपरको अत्र समाधि पूर्वक धर्माराधनसे परत्र-परलोकमें भी सखसंपत्ति होता है, सोही बुद्धि प्राप्तिका शुभ फल है.
३० अकार्य कबीभी करना नहि. - प्राणतितक भी नहीं करने योग्य नि कार्य सज्जन जन करतही नही है, जो लोग प्रमाद पश होकर (परवशतासे ) लोग विरुद्ध वा धर्म विरुद्ध अति निधर्म करे उन्होको सज्जनोकी पंक्तिसे बहार ही गिनने चाहिये. गुण दोष, लाभालाभ, कृत्या कृत्य, उचितानुचित, भक्ष्यामक्ष्य, पेयापेय वगैर। उचित विवकविकल मनुष्यको पशुवत् समझना और उचित विवक पूर्वक सदैव शुभकायोंके सेवनमें उद्यमशील मनुष्यको, एक अमूल्य हीरेके समानही जानना. ऐसे जनोका जन्मभी सार्थक है. ३१ लोकापवाद प्रवर्तन हो वैसा नहि वर्तना, , ___ जिस कार्यसे लोगोमें लघुता हो वैसा कार्य बिना सोचे-विचारे ( अघटित कार्य ) करना नहि जिस्से धर्मको लाछन लगे-धर्मकी हीलना-निंदा हो शासनकी लंबुता हो तैसा कार्य भवभीरु जनोको प्राणांत तकभी नहि करना चाहिये पूर्व महान् पुरुषोके सदूपतनकी तर्फ लक्ष रखकर जिस प्रकारसे अपनी या दूसरेकीयावत् जिनशासनकी उन्नति हो उस प्रकारसे विवेकसे वर्तना. 'लोग विरुद्ध चाओ' यह सूत्रवाक्य कदापि भूल नहि जाना. जिसे सब सुख साधनेका शुभ मनोरथ कबीभी फलीभूत होय वैसे समालकर चलना सोही सर्वोत्तम है..
३२ साहसीकपना कबीभी त्याग देना नहि. .
आपत्तिको समय धैर्य, संपत्ति के समय क्षमा, समाकी अंदर सत्य बार्ता निर्भय होकर कहनी, शरणागतका सब प्रकारसे शक्ति मुजब
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(२०) संरक्षण करना और स्वार्थभोग चाहे इतना नुकसान हो जाता हो तथापि अदल इन्साफ देना. इत्यादि सद्गुण सत्वपंत सज्जनोमें स्वाभाविकही होते है. और ऐसे ही उत्तम जन धर्मके सत्य-सच्चे अधिकारी है. तैसे विवेकी हंसही सब मलीनता रहित निर्मल पक्ष मजकर धर्म मार्ग दीपानेके वास्ते समर्थ होते है. वैसे सत्य पुरुषोकोही अनंतानंत धन्यवाद है, जो सच्चा पुरुषार्थ स्फुरायके अपना पुरुष नाम सार्थक करते है, तिनकाही उज्वल कीर्ति होती है, या निर्मल यशभी तिनकाही दिगंतमें फैलता है. जो महाशय अचल होकर ऐसी उत्तम मर्यादा सदैव पालते है वो प्रसन्नतासे पवित्र नीतिको अनुसरके अत्र अक्षय कीर्ति स्थापित कर. परत्र अवश्य सद्गति गामी होते है. तैसे साहसीक शिरोमणिकाही जन्म सार्थक है. तैसा उत्तम सात्विक साहसीक सिवा स्व जन्म निष्फल है. सच्चे सर्वज्ञ पुत्र उत्तम प्रकारकी शुद्ध साहसीक वृत्तिसाहितही होते है. वो लखो आश्रितोके आधाररूप है. तिनको सिह किशोरकी तरह
साहसीकता धारण करनीही घटित है. तिनकी आबादीके उपर __ लखो मनुष्योके भविष्यका आधार है. समझकर सुखस निर्वहन हो
सके तैसी महाव्रत आचरनेरुप-महा प्रतिज्ञा करके तिनका अखंड निर्वाह करना वोही उत्तम साहसीकता है. पोही महान् प्रतिज्ञाका ' स्वच्छंद आचरणोसे भंग करने के समान एकनी दुसरी कायरता है ही
नहि. यह दुःख - दावानलसे तैसे प्रतिज्ञाम्रष्टकी मुक्ति हो सकती नहि, ऐसा समझकर-तेल पात्रधार ' या राधावेध साधनेवालाकी' तरह अप्रमत्त होकर सर्वज्ञ प्ररुपित तत्वरहस्य प्राप्त करके अंगीकार की हइ महा प्रतिज्ञाको अखंड पालन करे, वो पूर्ण प्रतिज्ञावंत होके अपना और दुसरेका नितार करनेमें समर्थ होता है. वोही सच्चे साहसीक गिनाये जाते है. वास्ते स्व परकोडुबानेवाली कायरता
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(२१.) छोडकर हरएक मुमुक्षुको उत्तम साहसीकता धारण करनी ही श्रेष्ठ है. ऐसा करनेसे सब मलीनता दूर होकर स्व पर हितद्वारा शासनोन्नति होने पावे. अहो ! कब प्राणी कायरता छोडकर उत्तम साहसीकता आदरंगे और उस द्वारा स्व परकी उन्नति साधकर कब परमानंद पद प्राप्त करेंगे ! ! तथास्तु.
३३ आपत्ति वस्तभी हिम्मत रखकर रहना... ___ कष्टके समयमी नाहिम्मत होना नहि. जो महाशय धैर्य धारण करके संकट के सामने अड जाते है अर्थात् वो वख्त प्राप्त होनेपरभी उत्तम मर्यादा उल्लंघते नहि; मगर उलटे उत्तम नीतिके 'धोरणको अवलंबन करके रहेते है, तिन्हको आपत्तिभी संपतिरूप होती है. शत्रुभी चरा होता है. वो धर्मराजा की मुवाफिक अक्षय कीर्ति स्थापन करके श्रेष्ठ गति साधन करते है; परंतु जो मनुष्य वैसे परतमें हिम्मत हारकर अपनी मर्यादा उल्लघन करके अकार्य सेवनकर मलीनताका पोषन करता है, वो इस जगतमभी निंदापात्र हो पापसें लिप्त हो परत्रभी अति दुःखपात्र होता है. ३४ प्राणात तकभी स.गार्गका त्याग करना नहि. ___ ज्यों ज्यों विवेकी सज्जनोको कष्ट पडता है त्या त्यों सुवर्ण, चंदन और उस ( गन्ने ) की तरह उत्तम वर्ण, उत्तम सुगंधि और उत्तम रस अर्पण करते है; परंतु उन्होको प्रकृति विकृति होकर लोकापवाद के पात्र नहि होती है. ऐसी कठीन करणी करके उत्तम यश उपार्जन कर वो अंतमें सद्गतिगामी होते है. ३५ वैभव क्षय होजानेपरभी यथोचित दान करना. ___चंचल लक्ष्मी अपनी आदत सार्थक करनेको कदाचित् सटक जाय तोभी दानव्यसनी जन थोडेसे थोडा देनेका शुभ अभ्यास
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(२२) छोड देवे नही, तैसे शुभ अभ्यासके योगसे कचित महान लाभ सपादन होता है. यावत् लगीभी तिनके पुन्यसे खींचाइ हुइ स्वयमेव आ मिलती है; परंतु खङ्गकी धारापर चलने जैसा यह कठीन व्रत साहसीक पुरुषही सेवन कर सकता है.
३६ अत्यंत राग नेह करना नाहि, स्वार्थनिष्ठ संबंधी जनके साथ राग करनाही मुनासिब नहि है. जिस्के संयोगसें राग धारण कर सुख मानता है तिकेही वियोगसें दुःखमी आपही पाता है. इतनाही नहि लेकीन संबंधी जनकी स्वार्थनिष्ठता समझ जानेपरभी दुःख होता है. वास्त ज्ञानी अनुभवी पुरुषोके प्रामाणिक लेखो प्रतीति रखकर वा साक्षात् अनुभव-परीक्षा करके तैसा स्वार्थनिष्ठ जगतमें रागही करना लायक नहि है. तिसमें भी बहोत मर्यादा बहारका रोग- स्नेह करना सो तो प्रकट अविवेकही है. क्योंकि ऐसा करनेसे अंधकी माफिक कुछ गुण दोष देखकर निश्चय नहि कर सकता है. यु करतेभी राग करनेकी चाहना हो तो संत सुसाधुजनोके साथही राग करो कि जिसे कुत्सित राग विषका नाश कर आत्माको निर्विषता प्राप्त हो. अन्यथा रागरंगसे अपना स्फटिक समान निर्मळ स्वभाव छोडकर परवस्तुमे बंधनकर जीव अत्र परत्र दुःखकाही भोक्ता होता है. रागकी तरह द्वेष भी दुःखदाइ ही है. ३७वल्लभजनपरभी बार बार गुस्। नहि करना, ' क्रोधसे प्रीतिकी हानि होती है, क्रोधसे पल्लमजन भी अप्रिय हो पडता है, क्रोध वशवी जीव कृत्याकृत्यका विवेक भूलकर अकृत्य करनेको प्रवर्तता है, वास्ते सुखार्थिजनोने कषायवश होकर असभ्यता आदरके कवीभी उचित नीतिका उल्लंघन कर 'स्व परको दुःखसागरमे डुबाना नहि.
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(२३) રૂ૮ વોરા વહાના નહિ. कलह वो केवल दुःखकाही भूल है. जिस मकानमें हमेशा कलह होता है तिस मकान मेंसे लक्ष्मीभी पलायमान हो जाती है। वास्ते बन __ आवे तहतक तो क्लेश होने देनाही नहि, यु करते परभी यदि
पलेश हो गया तो उनको बढने न देते खतम-शमन कर देना. छोटा बडे के पास क्षमा मागे ऐसी नीति है; मगर कभी छोटा अपना गुमान छोडकर बडेके अगाडी क्षमा न मंगे तो बडा आप चला जाकर छोटेको खमावे जिस्से छोटको शरमींद। होकर अवश्य खमना और खमानाही पडे. क्लेशको बंध करने के लिये 'क्षमापना' खमतखामनरुप जिनशासनकी नीति
अत्युत्तम है. जो महाशय वो माफिक वर्तन रखता है तिनको यहां __ और दूसरे लोकममी सुखकी प्राप्ति होती है. और जो इसे विरुद्ध वर्तन चला रहे है तिनको सब लोकमे दुःखही है.
३९ कुसंग नहि करना. जैसा सग हो पैसाही रंग लगता है.' इस न्यायसें नाचकी सोबत या बूरी आदतवाले लोगोकी सोबत करनेसें हीनपन आता है. और उत्तमकी सोबतसे उत्तमता प्राप्त होती है. क्या देवनदी गंगाका शुद्ध मीठा पानीभी खारे समुद्रामें मिलजानेसे खारा नहि होता है ? अवश्य होता है ! तसेही अन्य अपवित्र स्थलसे आया हुवा पानी गंगाका पवित्र जलमें मिलने से क्या गंगाजळके माहास्यको प्राप्त नहि करता है ? अलबत्त, वो गटरका जल हो तो भी गंग समागमसे गंगजलही हो जाता है ! ऐसा संगति महात्म्य समझकर श्याने मनुष्यको सर्वथा कुसंग छोड देकर हर हमेशा सुसंगतिही करनी योग्य है; क्योंकि 'हानि कुसंग सुसंगति लाहु' कुसंगतिमें हानी और सुसंगतिमें लाभ ही मिलता है !'
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(२४)
४० बालकसेभी हित वचन अंगीकार करना. ___ रत्नादि सार वस्तुओकी तरह हितवचन चाहे वहासे अंगीकार करना यही विवेकवंतका लक्षण है. ज्ञानी पुरुष गुणोकीही मुख्यता मानते है. अवस्थासे लघु होने परभी सद्गुण गरीष्ठको गुरु मानते है, और वयोवृद्धको गुणरिक्त होनेसें बालकवत् मानते-गिनते है. ऐसा समझकर विवेकी सज्जन गुणमात्र ग्रहण करनेको सदैव अभिमुख रहेते है.
४१ अन्यायसे निवर्तन होना. समवुद्धि धारण कर राग रोष छोडकर सर्वत्र निष्पक्षपाततासे पर्तन। यही सद्बुद्धि प्राप्त होनेका उत्तम फल है, ऐसा समझकर सत्यपक्ष स्वीकारना सोही परमार्थ है. ऐसा वर्ताव चलानेमेंही तत्वसे स्वपरहित रहा है. लोकापवादकामी परिहार और शासनोन्नति इसी प्रकारसे हांसिल की जाती है. स्वल्पमें निडरतासे सच्ची हिम्मत पूर्वक न्याय मार्ग अंगीकार किये बिगर जीवकी कवीभी मुक्तता होतीही नहि. ऐसा समझकर श्याने जनको सर्वथा न्यायकाही शरण लेना उचित है. नाकम दम आ जाने तकभी अनीतिका मार्ग स्वीकारना अयोग्य है.
४२ वैभवक वस्त खुमारी नहि रखनी. ___ पूर्व पुण्य योगसें संपत्ति प्राप्त हुइ हो, तो संपत्तिके वख्त अहंकारी न होते न होना सोही अधिक शोभारुप है. क्या आम्रादि वृक्ष भी फल प्राप्तिके पस्त विशेष नम्रता सेवन नहि करते है ? वेशक नम्र होते है ! वास्त सपत्तिक वस्त नम्र होनाही योग्य है. नही कि स्वच्छंदी बनकर मदमें खीचाकर तुंग मिजाजी होना. संपत्ति के समय मदांध होना यह बड़ा विपत्तिकाही चिन्ह है! .
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(२५)
४३ निर्धनताके वस्त खेदभी न करना. पूर्वकृत कर्मानुसार प्राणी मात्रको सुख दुःख होय तैसे सम विषम संयोग मिल जाय तो भी तैसे समयमें कर्मका स्वरुप सोचकर हर्ष उन्माद या दीनता न करते समभावसही रहेकर श्यानासुज्ञ जनोने शुभ विचार वृत्ति पोषण कर समर्थ धर्मनीतिका प्रतिसे पा हिम्मतसे सेवन करना योग्य है. पहिले अशुभ कर्म करके वस्त प्राणी पीछे मुंह फिराकर देखते नहि है, जिसके परिणामसे अनंत दुःख वेदना सहन करते हुवे को त्रास पाते है. अशुभ-निकर्म करके अपने हाथासे भंग लिये हुवे दुःख उदय आनेसे दीनता करनी सो केवल कायरता ही कही जाति है. दुःख पसंद पडता न हो तो दुःखदायक निधकृत्योसे विचार कर पश्चाताप कर उनसे अलग हो जाना, जिस्से तैसे दु.ख विपाक भोगने पडेही नहि; परंतु पूर्वके कीये हुवे दुष्कृत्योके योगसे पडा हुवा दुख सहन करते दीन हो खेद विपाद धरना वा विकल हो अविवेकतासे दूसरे दुष्कृत्य करना सो तो प्रकट दुःखका मार्ग है.
४४ सम्भावसे रहना, जो महाशय सुख, दुःख, मान, अपमान, निंदा, स्तुति, सधनता, निर्धनता, राजा, रंक, कंचन, पथ्थर, तृण और मणि वा नारी और नागनको अगाडी कहे हुवे सद्विचार मुजब वर्तन रखकर समान गिनते है और उसम मोह प्राप्त नहीं होता है. यावत् तिनको केवल कमविकाररुप निमित्तभूत गिनकर मनमें विषमता न ल्याते हर्ष विषाद रहित सम बुद्धिसेही देखते है, तैसे सविचारपंत विवेकवंत-सद्गुण शिरोमणी जन समसुख अवगाह कर धर्म आराधनसे अवश्य स्वकार्य सिद्ध करते है, परंतु जो अज्ञानता के
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(२६)
जोरसे-विवेक विकल मनसे विषम वर्तन करते है हर्प खद घरके आप मतसे उलटे चलते है सो तो कोड उपायसे भी आत्मकार्य साध नही सकते है.
४५ सेवकके गुण समक्ष कहना सच्चे सेवककी प्रत्यक्ष प्रशंसा करनेसे कुछ हानि नही किन्तु __ लामही है. उत्साहकी वृद्धिके साथ वो चुस्त स्वामि भक्त हो
जाता है, और तैसे नहि करनेसे कदाचित् तिसकी श्रद्धा मंद होनसे सेवा विमुखभी हो जाता है,
४६ पुत्रको प्रत्यक्ष प्रशंग नही करना, पुत्र या शिष्य चाहे पैसा सद्गुणी हो, तदपि तिसकी समक्ष प्रशंसा नहि करनी सोही उत्तम नीति है. तिनमें विनयादि उत्तम गुण बढानेका वो रस्ता है. बाल्यावस्थामें अच्छे संस्कार प्राप्त हो ऐसी फिकर रखनी वे माता पिता और गुरुकी फर्ज है. मगर गुण प्राप्त हुवे विना मिथ्या प्रशंसासे आमेमानमें आ जानेसे कदाचित् तिनका जन्म विगडता है. ऐसा समझकर तिनकी परिपक्व स्थिति होजाने तक विचार विवेकसे वर्तना, जिस्से तैसा सद् विवेक शीखकर पुत्र, पुत्री, शिष्य वा शिष्या अपना जन्म सुखपूर्वक सुधार सकता है. पुत्रादि समक्ष माता पितादिकोभी अपशव्दादि अविवेक यत्नसे त्याग देना. .४७ स्त्री की तो प्रत्यक्ष वा परोक्ष भी प्रशंसा
करनीही नहि. स्त्रीका स्वभाव तुच्छ होनेसे अपूर्णता बताये बिगर नहि रहेती, वास्ते चाहे वैसी गुणवंती स्त्री हो तोभी मनमही समझ रहना. स्त्रीकोभी पति तर्फ विनीत शिप्यकी माफिक विशेष नम्र होनेकी
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(२७)
आवश्यकता है, अपना पतिव्रत तवही यथाविधि समाला जाता है, पतिकोभी स्त्रीकी तर्फ उचित मृदुता अवश्य रखनी चाहिये. ऐसे एक दूसरेकी अनुकूलतासे गृहयंत्रके साथ धर्मयंत्रभी अच्छी तरह चल सकता है. तिस बिगर दोनु यंत्र बार वार बिगडे या रुकजाते है अपशब्दादि अपमान त्यागकर स्त्रीका अपनी तरह श्रेय चाहकर वर्तना. त्वद्वारा संतोपी पतिकी तरह समझदार स्त्रीकोभी अपना पतित्रत अवश्य पालन करना, जैसे स्वश्रेयपूर्वक स्व संततिभी सुधारने पावे तैसे सी भर्तार दोनुने संप संतोष पूर्वक सद्वर्तन सेवनमें सदैव तत्पर रहेना चाहिये, जैसे आगेके परुतमें अपना पवित्र शीलभूपणसे भूषित बहोतसी सती शिरोमणीयोने अपना नाम अपने अदभुत चरित्रसे प्रसिद्ध कीया है, तैसे अबीभी सूविवेकी भाइ और भगिनीये पावन शील रत्न धारनकर सुशीलता योगसे भाग्यशाली होनाही योग्य है.
૪૮ પ્રિય વચન વોટનાં. दुसरे मनुष्यको प्रिय लागे ऐसा सत्य और हितकर वचन बोलना. प्रसंगोपात विचारके कहा हुवा हितमित वचन सामने वालेको प्रिय हो पड़ता है. विना विचारा, औसर विगरका, कर्णकटुक भाषण कभी सच्चा हो तोभी अप्रिय होता है, और मीठा, गर्व रहित, विवेकपूर्वक विचारके समयोचित बोलावा वचन बहोत प्रिय और उपयोगी हो पडता है. मगर उसे विपरीत बोलना अहितकारी होता है. जो लोकप्रिय होनेको चाहते हो तो उक्त विवेक समालके धर्मको बाध न आवे तैसा निपुण भाषण करना शीखो. तैसा समयोचित विनय वचन वशीकरण समान समझना. कहाभी है कि ' एक बोल्वो न. शील्यो सब शीख्यो गयो घरमें !''
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(२८)
४९ विलय सेवन करना चाहिये. नम्रता, कोमलता, मृदुता वगैरे पर्यायवाची शब्द है सो सब विनयकेही है. विनय सब गुणोका वश्यार्थ प्रयोग है. विनयसे शत्रु भी वश हो जाता है विवेकसे गुणिजनोका कीया हुवा विनय श्रे४ फल देता है. और विनय बिगरकी विधाभी फलीभूत नहि होती है.
५० दान देना. __ लक्ष्मीवंत होकर सुपात्रादिको विवेकसे दान देना सोही लक्ष्मी
तकी शोभा वा सार्थकता है. विवेकपूर्वक दान देनेवालेकी लक्ष्मीका व्यय कीये हुवेभी कुके पानीकी तरह निरंतर पुण्यरूप आमदनीसे चढती होती जाती है. विवेक रहित पनेसे व्यसनादिमें उडादेने वालेकी लक्ष्मीका तत्वसे वृद्धि विनाही तुरत अंत आ जाता है. सूमकंजुसकी लक्ष्मी कोइ भाग्यवान् नर ही मुक्तता है व्यय करके लाभ प्राप्त करता है; परंतु ममण शेठकी तरह तिनसे एक दमडीभी शुभ मार्गमें खर्ची नहि जाती और न वो विचारा तिसको उपभोगभी ले सकता: पूर्वजन्ममे धर्मकार्यकी अंदर गडबड डालनका यह फल समझकर दानांतराय नहि करना.
५१ दूसरेके गुणका ग्रहण करना. __ आप सद्गुणालंकृत हो तदपि संत साधु जन दूसरेका सद्गुण देखकर मनमें प्रमुदित होते है. तोभी सज्जनोकी अंदर के सदगुणोको देखकर असहनताके लिये दुर्जन उलटे दिल में दुःख पाते है-दिलगार होते है और अंतमें दुधकी अदर जंतु ढुंढने मुजब तैसे सदगुणशाली सज्जनोभी मिथ्या दोषारोपण करते है और जुटे दूषण लगाकर महा मलीन अध्यवसायसे पावले कुत्ते की तरह बुरे हालसे मृत्यू पाकर दुर्गतिमें जाते है. अमृतको अंदर विष बुद्धि जैसे सद
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(२९) गुणोंमें औगुनपनका मिथ्या आरोप कर्वाभी हितकारी नहि है ऐसा समझकर सुज्ञ जनको गुणही ग्रहण करनेकी और सदगुणकी प्रशंसा करनेकी अवश्य आदत रखनी.
५२ औसरपर बोलना, उचित औसरकी प्राप्ति विगर बोलनाही नहि. उचित औसर प्राप्त हो तोभी प्रसंग-मोका समालकर प्रसंगानुयायी थोडा और माठा भाषण करना. बिन औसर हदसे ज्यादा बोलनेसे लोकप्रिय कार्य नहि हो सकता. मगर उलटा कार्य विगडेता है. ऐसा समझकर हरहमेशा सच्चा हितकारी और थोडा-- मतलव जितनाही विवेकसे भाषण करनेकी दरकार करना. प्रसंगके सिवा बोलनेवाला बकवादी,, दिवाने मनुष्यमें गिनाया जाता है, यह खूब यादमे रखना ! ५३ खल दुर्जनकोभी जनसमाजकी अंदर
योग्य सामान देना. सिरो लिखित नीति वाक्य सज्जनोको अत्यपयोगी है, उक्त नीतिक उल्लवनसे क्वचित् विशेष हानि होती है. दौजन्य दोषके प्रकोपसे. खलजन रहामनेवालेको संतापित करनेमें बाकी नहि रखता है.
५४ स्व परहित विशेषतासे जानना, हिताहित, कृत्याकृत्य वा बलाबलका विवेकपूर्वक स्वशक्ति देश-- काल मानादि लक्षमे रखकर उचित प्रवृत्ति करनेवालेको हित अन्यथा अहित होने का संभव है, वास्ते सहसा--बिना शोचे काम नहि करनेकी आदत रख कदम दर कदम विवेकसे वर्तनकी जरुरत है. सद्विवेकधारी ( परीक्षापुर्वक प्रवृत्ति करनेवाले ) का सकलार्थ सिद्ध होता है.
५५ मंत्र तंत्र नहि करना, कामन, टोना, वशीकरणादि करना कराना ए सुकलीन जनका
जनका
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( ३० )
भूषण नहि है. वार बने जहांतक तिस वातसे दूर रहेना. और परका मंत्रभेद करना नहि -- कीसीका भेद कीसीको कहेना नहि. और गुप्त बात जहा चलती हो वहा खडा रहेना नहि,
५६ दुसरे पीरायेके घर अकेला नहि जाना. यह शिष्ट नीति अनुसरनेमें अनेक फायदे है. इसे शीलवतका શીવ્રતા संरक्षण होता है, सिरपर झुठा कलक नहि चडता है; यावत् ; यावत् मर्यादाशील गिनाकर लोगो में अच्छा विश्वासपात्र होता है.
५७ कीइ हुइ प्रतीज्ञा पालन करनी. अव्वल तो प्रतिज्ञा करनेकी वख्तही पूर्ण विचार कर अपने से अव्वलसे आखिरतक निभाव हो सके वैसीही योग्य ( बन सके वैसी ) प्रतिज्ञा करनी चाहिये. और कभी उत्तम जनने प्रतिज्ञा करली तो योग्य प्रतिज्ञाका प्रयत्नपूर्वक पालन करना. - नाकमै दम आ जानेतकभी खंडित नहि करनी. विचार करके समजपूर्वक की हुई लायक प्रतिज्ञा सोही सत्य और शुभ प्रतिज्ञा गिनी जाति है. तैसी તેની -सत्य और शुभ प्रतिज्ञासे भ्रष्ट हुए मनुष्य अपनी प्रतिष्ठाको खोकर अपवाद के पात्र होता है. अविवेक न होने पावे ऐसी हरदम फिकर जरुर रखनी योग्य है. योग्य विचारपूर्वक की हुइ प्रतिज्ञा प्राणकी तरह पालनी ये दरेक विचारशील सुमनुप्यकी फर्ज है. सच्चे सत्ववत पुरुष तो स्वप्रतिज्ञाको प्राणसेमी ज्यादा प्रिय गिनकर पूर्ण उत्साह से पालन करते है. फक्त निर्बल मनके कायर डरपोक मनुष्यही प्रतिज्ञा खोकर पत गुमाते है.
५८ दोस्तदारो छुपी वात न रखनी.
जिस मित्र के साथ कायम दोस्ती रखनेकी चाहना हो तो तिनसे कुच्छमी पटंतर- भेद जुदाइ नहि रखनी खाना और
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(३१) खोलाना, मनकी बाते पूछनी और कहनी, और अच्छी वस्तु जरुरत हो तो देनी और लेनी ये छः मित्रताके लक्षण है.
५९ किसीकाभी अपमान नहि करना, मान मनुप्यको बहोतही प्यारा लगता है. मानभंग--अपमानसे मनुप्यको मरणके समान दुःख होता है. यह वार्ता बहोत करके हरएक जनको अनुभव सिद्ध हो चूकी होगी. कीसीकाभी अपमान न करते तिनका मीठे वचनादिसे सन्मान करनेसे अपनेको और दुस२को लाभ होनेका सभव है. गुन्हागार मनुष्यकी भी अपभ्रछना करने करते तो मीठे मधुर वचनसे यदि तिनको तिनके दोषका स्वरूप पहिले अच्छे प्रकारसे समझाया जाय तो बहोत करके पुनः अपराध गुन्हा करना छोड देता है. मृदुता यह ऐसी तो अजब चीज है कि तिनसे वज़ जैसा मान अहंकारभी पिगल जाता है. यह प्रभाव विनय गुणका है, वास्ते दूसरे निको लाखो उपाय छोडकर यह अजब गुणकाही घटित उपयोग करना दुरुस्त है. ऐसा करनेसे अपना कार्य बहोत स्हेलाइसे पार हो सकता है.
६० अपने गुणोंकाभी गर्व नहि करना, ___ उत्तराम जन गर्व नहि करते है सो ऐसा समझकर नहि करते है कि गर्व करनेसे गुणकी हानि होती है. संपूर्ण गुणवंत, ज्ञानी, ध्यानी वा मौनी समुद्रकी तरह गंभीरतावत होनेसे गर्व नहि करते है. फक्त अपूर्ण जन होते है सोही अपनी अपूर्णता जाहीर करते है. अपनी बडाइ करनेसे परनिंदाका प्रसंग सहजहीमें आ जाता है. परनिंदाके बडे पापसे गर्व गुमान करनेवालेका आत्मा लिप्त होकर मलीन होता है. जिस्से मिले हुवे गुणोंकीभी हानि होती है, तो नये गुणों की प्रातिके लिये तो कहनाही क्या ? ( जहां गाठकी मंडी भी गुम जाती है तो नया लाभ होनेकी आशाही कहासे होय !)
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(३२)
ऐसा समझकर सुज्ञ जन अपने मुखसे अपनी पडाइ वा दूसरेकी लघुता करतही नहि.
६१ मनसेंभी हर्ष नहि ल्याना, 'बहु रत्ना वसुंधरा ' पृथिवीमें बहोतसे रत्न पडे है, ऐसा समझकर आपभी शिष्ट नीति विचारके आप तैसी उत्तम पक्तिके अधिकारी होने के लिये प्रयत्न करना. जहांतक संपूर्णता आ जावे वहातक सन्नीतिका दृढालंपन कीये करना दुरस्त है. यदि किंचितभी मंद पडकर मनको छुट्टी दी तो फिर खराबी तैसीही होती है. अल्पगुण प्राप्तिमही मनको दिमागदार बनानेसे गुणकी वृद्धि नहि होती है. बहोतही गुणोकी प्राप्ति होनेपरभी जो महाशय गर्व रहित प्रसन्न चित्तसे अपना कर्तव्य कीया करते है वो अंतमें अवश्य अनंत गुण गणालंकृत होकर मोक्षसंपदा प्राप्त करते है
६२ पहिले सुगम, सरल कार्य शुरू करना. एकदम आकाशको बालगिरी करने जैसा न करते अपनी गुंजाश- ताकात याद कर धीरे धीरे कार्य लाइनपर ल्याना, सोही यानपनका काम है.एकदम बिगर सोचे सिरपर बड़ा काम उठा लेकर फिर छोड देनेका परत आ जाय और उल्टा छछोरापन बेवकूफी सरदारी लेनी पडे उरसे तो समतासे काम लेना सोही सबसे बेहतर है.
६३ पीछे बडा कार्य करना. कार्यका स्वरूप समझकर समतासे वो शुरु किये बाद चित्त उत्साहादि शुभ सामग्री योगसे युक्त कार्यकी सिद्धिके लिये पुख्त प्रयत्न करना. ऐसी शुभ नीतिसे कार्य करने में अध्यवसायकी विशुदिसे उत्तम लाभ प्राप्त होता है.
६४ (परंतु) उत्कर्ष नाहि करना. शुभ कार्य समतासे शुरू करके तिनकी निर्विघ्नतासे समाप्ति
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(३३) होने बादभी अभिमान या बडाई जैसा कुच्छभी करना नहि. मनमें ऐसी श्रद्धा-समझ ल्याके कि कोइभी कार्य काल, स्वभाव, नियति पूर्व कर्म और पुरुषार्थ ये पांचो कारण प्राप्त हुवे विगर होताही नहि, तो वो पांचो कारण मिलनसे कार्य हुवा उस्में गर्व काहेका करना चाहिये ? क्यों कि कार्य तो उन कारणोने कीया है, पास्ते गर्व छोड कार्य सिद्ध होनेसे श्रद्धा-दृढतादि विवेकसे नम्रताही धारण करनी दुरस्त है. वैसे सुनम्र विवेकी जन जगत्के अंदर अनेक उपयोगी शुभ कार्य कर सकते है.
६५ परमात्माका ध्यान करना. पायात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ऐसे आत्माके तीन प्रकार है. शरीर कुटुंबादि वाद्य वस्तुओमें व्याकुलतावंत हो रहा हुवा बाह्य, आत्मा कहा जाता है. अंतरके भीतर विवेक जागृत होनेसे जिस्को गुण-दोष, कृत्याकृत्य, लामालाभका भान-शुद्धि हुई हो, स्व परकी समझ पड गई हो, ज्ञानादि गुणमय आत्मा सोही में हुं और ज्ञानादि उत्तम गुण संपत्तिही मेरे सिवाय शरीर, कुटुंब, धन, धान्यादि सब पुदगलिक वस्तुओ है ऐसा समझनमें आया हो वो अंतरात्मा कह जाता है. और जिसने संपूर्ण विवकसे मोहादि कुल्ल अंतरंग शत्रुओंका सर्वथा उच्छेद करके विमल केवल ज्ञानादि अनंत आत्मसंपत्ति हाथ की हो सो परमात्मा कहाजाता है. बहिरात्मा, परमात्मा का ध्यान करनेको नालायक है और अंतरात्मा लायक है. अंतरात्मा, परमात्माके पुष्टालंबनसे दृढ श्रद्धा-विवेक प्राप्तकर आपही परमात्मपद प्राप्त करता है. वास्ते मोह माया छोडकर सुपिवेकस अंतरात्मापन आदरो. आत्मार्थी जनोंने परमात्माका ध्यानका अधिकार-योग्यता प्राप्त कर निश्चय चित्तसे परमात्माका पद प्राप्त करनेको प्रयत्न-सेवन करना योग्य है. जन्म, जरा और मृत्युरुप
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' (३४)
अनंत दुःख-उपाधिमुक्त सर्वज्ञ परमात्मा होवे है. तिनका तन्मय ध्यान योगसे कीट भ्रमर न्यायसे अंतरात्मा परमात्मपद पाता है. अनंत ज्ञानादि अखंड सहज समाधि पाकर परमानंद सुखमन्न हो रहता है. तैसे परमात्माको अक्षय सुखार्थी आत्मार्थी जनोको हमेशा शरण हो! तैसे परमात्माकी भाक्तिरूप कल्पवल्ली भव्य प्राणियों के भव दुःख दूर कर मनेच्छा पूर्ण करो! यावत् भव्य चकोर शुक्ल ध्यान पाकर भवभवकी भ्रमणा मांगकर संपूर्ण निरूपाधी मोक्षसुख स्वाधीन कर अक्षय समाधि लीन हो !! ६६ दुसरेको अपने आत्माके समान जानना.
समस्त जीवो जीवत्व समान है, ऐसा समझकर सबको अपने जैसा गिनना. द्वैतभाव छोडकर समता सेवन कर किसी जीवको दुःख न हो वैसे यतनासे वर्तन चलाना. चीटीसे हाथी-सब जीवित सुख चाहता है. राजा, रंक, सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पंडित मूर्ख सब निर्विशेष-समान रीतसे सुखके अर्थी है. प्रमाद प्रवर्तन या स्वच्छंद वर्तनसे कोई जीवको सुखमें अंतराय करनेसे वो प्रमादी या स्वच्छदी प्राणी बाधक कर्म वांधता है. जिस्का कटुक फल तिनको अशुभ कर्मक उदय समय अवश्य सहन करना पड़ता है, वास्ते शास्त्रकार कहते है कः
" बंध समय चित्त चेतिये शो उदये संताप" ___ इत्यादि बोध वचनोंको लक्षमें रखकर सुखार्थी जनोने सर्वत्र समता रखकर रहेना योग्य है. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थभावकी प्राप्तिमी ऐसेही हो सकती है. जहांतक ए मैत्री वगैर। भावना चतुष्टयका प्रादुर्भाव-उदय हुपा नहि वहांतक शिवसंपदा पहोतही दूर समझनी,
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६७ राग द्वेष करना नहि... काम, रोह, अभिप्वंग वगैरा रागके पर्याय शब्द है, और द्वेष, मत्सर, ईर्ष्या, असूया निन्दादि रोपके पर्याय है. स्फटिक रत्न समान निर्मल आत्मसत्ताको राग द्वेषादि दोष महान उपाधिरुप होनेसे विवेकवंत जनोने यत्नसे परिहरने योग्य है. जहांतक महा उपाधिरुप ए रागद्वेषादि दोष दूर होवे नहि पहातक कबीभी आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रकट हो सकता नहि, वो रागादि कलंक सर्वथा टल-हट गया कि तुरतही आत्मा परमात्मपदः पाता है. चास्ते परमात्मपदके कामीजनोने शत्रुभूत राग द्वेषादि कलंक सर्वथा दूर करनेको हद प्रयत्न करना जरूरका है. यतः __ " राग द्वेष परिणाम युत, मन हि अनंत संसार ॥ तेहिज रागादिक रहित, जानी परमपद सार ।" (समाधि शतक.)
तथा ए कर्भकलंक दूर करनेके वास्ते संक्षेपसे बालजीवोके हितार्थ अन्यत्र भी कहा है कि:
" शुद्ध उपयोगने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी ॥ कर्म कलंकको दूर निवारी, जीव परे शिवनारी ॥ आप स्वभावमें रे अवधू सदा मगनमें रहेना ॥" ___ इत्यादि रहस्य भूत ज्ञानके वचनोको मोक्षार्थी जीवोको परम
आदर करना योग्य है, जिससे सब संसार उपाधीसे मुक्त होकर परमपद स्वरासे प्राप्त कर सके. सर्वज्ञ भाषित सदुपदेशका येही सारतत्व है. ज्यु बने त्युं चूपसे राग द्वेष मल सर्वथा दूर कर निर्मल हो जाना. राग द्वेष मल सर्वथा दूर हो जानेसे आत्माको शुद्ध चीतराग दशा प्राप्त होती है. तसी शुद्ध वीतराग दशा सोही परमात्मा अवस्था है. वो हरएक मोक्षार्थी सज्जनोंको राग द्वेषादि मलका सर्वथा परिहार करके-सद्विवेक बलसे प्राप्त करनी ही योग्य
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( ३६ )
है. उक्त सर्वज्ञ - उपदेश रहस्यको समझकर जो महाभाग, रुचि प्रीतिसे स्वहृदयमें घारेंगे वो सुविवेकी सज्जनकी समीपमें शिवसुख लक्ष्मी स्वेच्छासे आ क्रीडा करेगी.
श्री सर्वज्ञ प्रणीत स्याव्दादशैलीको अनुसर के पूर्वाचार्य प्रसादिकृत प्रकरणादि ग्रंथोके आधारसे आत्मार्थी भव्यों के हितार्थ, जो कुच्छ स्वल्प स्वमति अनुसारसे यहां कथन करनेमें आया है, उसमें मतिमंदतादि दोषोसे उत्सूत्र - विरुद्ध भाषण हुवा होवे वो सहृदयसज्जन सुधारकर जिस प्रकारसे जयवंता जैनशासनकी शोभा बढे, जैसे अनादि अविवेक दूर हो जाय, और सद्विवेक जागृत होवे, जैसे दुरंत दुःखदायी स्वच्छंद वर्तन छोडकर संपूर्ण सुखदायी श्री सर्वज्ञ कथित सन्नीतिका सद्भावसे सेवन होवे, जैसे सम्यक् ज्ञान प्रकाशसे व्यवहार शुद्ध होवे जैसे लोकविरुद्ध त्यागसे शुद्ध देव, गुरु और धर्मका अच्छे प्रकारसे आराधन कर, अंतमें अक्षय सुख संप्राप्त होवे तैसे वर्तन रखने की सज्जनोको मेरी अभ्यर्थना है. नाक में दम आ जाने तक भी प्रार्थना भंग नहि करनेकी उत्तम नीतिका अवलंबन करके सज्जन महाशय सत्यका कथन करना नहीं चुकेंगे. उत्तम हंसके समान सज्जन जन गुणमात्र कोही ग्रहण कर औगुण-दोष मात्रका त्याग करके जैसे स्व परकी तत्वसे उन्नति साध सके वैसे ध्यान देके वर्त्तनेको अवश्य विवेक घरेंगे. आशा है कि, परोपकार परायण सज्जन वर्ग सत्य नीति की उड़ी नीव डाल उसपर अति उमदा धर्मकी इमारत बाधकर उसमें कुटुंब सहित नित्य विलास करेंगे, और सम्यग् ज्ञान, दर्शन चारित्रका यथाशक्ति से आराधन कर अंतमें अविनाशी पद पाकर जन्म मरणादि दुःखोका सर्वथा नाश करेंगे. और सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होकर लोकालोकको हस्तामलकवत् देखेंगे. यावत परम सिद्धिदायक परमात्मपद प्राप्त कर पूर्णानंद चिद्रूप हो रहेंगे. ( इत्यलम् . )
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(३७)
सदुपदेश सार संग्रह १ जीवदया हरहमेश जयणा पालनी, किसी जीवको दुःख या पीडा हो तसा कुच्छ भी कार्य कभीभी समझकर देखकर करना नहि और करानाभी नहि.
२ झूठ बोलना नहि क्यों कि तिरसे दूसरे सामनेवाले मनुष्यको अपने पर अविश्वास आता है; और कभी सत्यभी मारा जाता है.
३ चोरी करनी नहि चोरी करनेवाला कभी सुखी नहि होता है. चोरीसे संपादन किया हुवा धन माल घरमा रहेताही नहि, चोरका कोई विश्वासभी नहि करता. चोर मरण आये विगरही मरता है याने फांसी वगैरा वूर हालसे मरता है. चोर भटकती फिरती हरामके माल खानेवाली भैसकी तरह असंतोषी होता है.
४ व्यभीचारभी करना नहि परस्त्रीगमन और वेश्यागमन भाइयोंको, और परपुरुषादि गमन बाइयोंको अवश्य त्याग देनेही लायक है. ऐसा कर्म लोक विरुद्ध होनेसे निंदापात्र होता है, कुलको कलंक लगता है और नरकादि दुर्गति प्राप्त होती है.
५ अत्यंत तृष्णा रखनी नहि अति लोभ दुःखकाही मूल है और लोभ अनेक पापकर्म करानेके लिये जीवको ललचाके दुर्गतिमें डालता है.
६ क्रोध नहि करना क्रोध अग्निके समान संतापकारी है. प्रथम आपहीको संतापता है. और जो सामनेवाला मनुष्य समझदार क्षमावंत नहि हो तो तिस्कोभी संताप कराता है क्रोधको टोल देनेका उत्तम उपाय क्षमा, समता वा धैर्य है.
७ अभिमान करना नहि जो सल्स अहंकार करते है सो
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(३८)
मानहीन हो जाकर नीचा दरज्जा पाते है, और जो नम्र रहते है सो उंचे दरज्जेके अधिकारी होते है. कहा है कि जहां लघुता वहां प्रभुता विद्यमान रहती है. कुल, जाति, बल, तप, विद्या लाभ और ठकुराइ आदिका गर्व कभीभी नहि करना.
८ माया कुटिलता करनी नहि-- छल, प्रपंच, दगा, दंभ, पक्रता, कपट करके अपनी मगरतासे उलटे रास्तेपर चलनेवाला कभी सुख पाताही नहि कहानीभी है कि 'दगा किसीका सगा नहि.' कपटि जनकी धक्रिया निष्फल होती है. कपटी मनुष्य मुंहका भीठा मगर दिलका झूठा होता है. ___९ लोभको त्याग देना लोभी मनुष्य कृत्याकृत्य, हिताहित भक्ष्याभक्ष्य करनेमें विवेकहीन होकर अग्निके समान सर्वभक्षक बनता है. - १० रा दूध नहि करना राग द्वेष दोषस आत्मा मलीन होता है. रागद्वेष दोनु माथही रहेते है तिन्होको जीतनेके लिये वीतराग प्रभुजीकी सहायता मदद मांगनेकी आवश्यकता है, क्यों कि वह प्रभु सर्वथा रागद्वेषरहित अनंत शक्तिवंत और अनंत गुणवंत है.
११ क्लेश करना नहि कलह-क्लेश दुःखकाही मूल है. जह। हरहमेशा क्लश हुआ करता है वहां लक्ष्मी पलायन कर (भाग) जाती है. इस लिये क्लेश दूर रहेना.
१२ झूठा कलंक नहि देना-- किसीको झूठा कलंक लगा देना उस्के समान दूसरा ज्यादा पाप नहि है. झूठे कलंकसे जीवको मरण साहश दुःख होता है जैसा दुःख दूसरे जीवको देने में तत्पर' होता है तैसा बल्कि तिरसभी सोगुना, लाख क्रोड गुना कटुक दुःख देनेवालेको पर भवम भुक्तना पडता है.
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१३ चुगली करनी नहि--- चुगलखोर मनुष्य दुर्जन गिना जाता है. चुगली करनेकी बुरी आदतसे कचित् अच्छे भले मनुष्यभी संकटमें फस जाते है.
१४ वैभवके वस्त छक जाना नहि सुख प्राप्त होतेही विचार कर लेना के सुखका साधन धर्मही है, तो तिकीही सेवना करनी योग्य है. यह समझकर धर्म सेवन करना. - १५ दुःखके वरून दीनता करनी नहि दुःख आनेसे विचार लेना के दुःखका निदान पाप-दुष्कृत्यही है, तो तिस परत पापसे पहोतही डरते रहेना फायदेमंद है.
१६ पराइ निंदा नहि करनी- निदाखोर मनुष्य धर्मी भाई बाइयोकीभी निदा करता है, तिस्से तिस निदकका आत्मा अत्यंत मलीन होता है. निंदा करनेवाला मृत्युके शरण हो करके नारकी होता है. महान पातकी होने के लिये निदकको ज्ञानी जनभी उनको कर्मचडाल कहकर बुलाते है.
१७ कोनी और रहेनी समान रखनी कहेना कुछ और करना कुछ, यह तो जाहीर ठाइ और लघुताइ गिनी जाती है. सज्जन जो बोलता है सोही पालता है. और प्रतिज्ञा पल सके तितनाही वोलते है. सज्जन पुरुष सदाचारवंत होते है. लोक विरुद्ध वर्तन तो सर्वथा तज देते है.
१८ झंटा खोटेका पक्ष नहि खीचना सत्यासत्यकी परीक्षा करके निश्चय कर सच्चेकाही हमेशा पक्ष ग्रहण करना. परीक्षा किये बिगर कदाग्रहके लिये खोटेका पक्ष-तरफदारी खीचना यह आत्मार्थीका लक्षण नहि है.
१९ शुद्ध देवकीही सेवना करनी राग द्वेष और मोहादि महा दोषस सर्वथा वर्जित निर्दोष, निष्कलंक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी,
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(४०)
वीतराग, परमात्मा ( जिस्का नाम चाहे सो हो, मगर गुणमें सर्वोस्कृष्ट हो सो ), तिन्हीकाही अनन्य भावसे शरण ग्रहण करना. - २० शुद्ध गुरुकीही सच्चे दिलसे सेवा करनी आप निर्दोप, पांतराग शासनको सेवने वाले और अन्य आत्मार्थी सज्जनोको ऐसाही निर्दोष मार्ग बतानेवाले क्षमा, मृदुता, सरलता अने निलमितादिक श्रेष्ठ गुणोको भजनेवाले भिक्षु, साधु, निग्रंथ, अणगार मुमुक्षु-श्रमणादिक सार्थक नामसे पिछाने जाते मुनिगणही शुद्ध गुरुबुद्धिसे सेवन करने योग्य है. ___२१ शुद्ध सर्वज्ञ कथित धर्मकाही समझकर सेवा करनी दुर्गतिसे बचाकर सद्गति प्राप्त करानेवाला, स्यावाद अनेकात मार्ग मध्य शुद्ध श्रद्धा रखकर सेवा करनी दोष मात्रको दलन करनेम समर्थ महावत सेवन करनेरुप प्रथम मुनीमार्ग. उस्के अभावसे अणुव्रत सेवन करनरुप दुसरा श्रावक मार्ग, और महावतादि सम्यक् पालनमें असमर्थ होते भी दृढ शासनरागसे शुद्ध भार्ग सेवन करनेवालोंका बहोत मान्यपूर्वक सत्यतत्व कथन होनेसे तीसरा संविज्ञ पक्षीय मार्गको आत्मार्थी सज्जनीन दृढ आलंबन योगसे जलदी भव समुद्रसे पार करनेवाला समझकर सेवन करनाही योग्य है.
२२ शुद्ध देवगुरु अने धर्मकी सेवा करने लायक होना चाहिये--(तैसी योग्यता प्राप्त करनी चाहिये. ) अयोग्य-योगता रहित मलीन आत्मा शुद्ध देव, गुरु धर्मकी सेवाका अधिकारी नहि है.
२३ आत्माकी मलीनता दुर करनेको मथन करना अपने मन वचन और शरीरको नियममें रखनेसे आत्मा निर्मळ हो सकता है.
२४ शूद्रता त्याग देनी नीच मलीन बुद्धि त्याग कर
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सुबुद्धि धारण कर कर अंतःकरण निर्मळ करना. गंभीर दिल रखना, तुच्छता करनी नहि, दुसरेके छिद्र तर्फ दुर्लक्ष देकर अपना और दुसरेका हित किस प्रकारसे होय सोही दान दिलसे विचारना.
२५ मात्र न्यायसेही धन उपार्जन करके आजीविका चला लेनी योग्य है. संसार व्यवहार वा धर्मव्यवहार अच्छी तरांहसे चलाने के लिये न्याय नीतिकोही अगामी रखके योग्य व्यापारद्वारा द्रव्य उपार्जन करना मुनासिब है. न्यायव्यसे मति निर्मळ रहती है. कहाहै कि.-' जैसा आहार वैसाही उदगार.' अन्यायका परिणाम विपरीत आता है.
२६ स्वभाव शीतळ रखना कडक प्रकृति बहोत दफै नुकसान करती है, ठंडी प्रकृतिवाला सुखसे स्वकार्य सिद्ध कर सकता है, और अपने शीतल स्वभाव वळसे समस्त जन समुदायको अवश्य प्रिय वल्लभ लगता है.
२७ लोक विरुद्ध कार्य कभी करनाही नहि मास भक्षण, मदिरापान, शीकार, जुगार, चोरी, और व्यभिचार यह सब महा निधकर्म उभय लोक याने यह जन्म और परजन्म विरुद्ध है, तिस्से करके उक्त कार्य अवश्य त्यागदने लायकही है. '
२८ क्रूरता नहि करनी- कठोर दिलसे कोइमी पापकर्म करना नहि. नहितो उसे उभयलोक बिगडते है और निंदापात्र होता है.
२९ परसवका डर रखना बुरे कार्य करनेसे प्राणीको परभवके अंदर नरक तीर्यचके अनंत दुःख मुक्तने पड़ते है. ऐसा समझकर तैसे नीच अवतार धारण करने न पडे ऐसी पेहलसेही खबरदारी रखनी और अपना वर्तन सुधारकर चलना.
३० ठगबाजी करनी नहि ठग लोगोको दुसरे मनुष्योकी खुसामत करते हुएभी हरहमेशां अपना कपट छुपानेके लिये
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(४२) दुसरोका भय रखना पड़ता है. लोग दुसरेको ठगनेकी इंतेजारीका उपयोग करनेमें आपही होत ठगात है. विचारे ठगलोग समझते नहि है कि हमलोग धर्मक अन अधिकारी हानसे हमारी धर्मकरणी कट काया कलेशरूप निकम्मी हो जाती है.
३१ पडिलकी मर्यादा उहंधन करनी नहि वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और गुणवृद्धकी योग्य दाक्षिण्यता संभालनेसे अपना हित जरुर होता है. - ३२ उत्तम कुल भर्यादा त्याग देनी नहि नम्रता रखनी, कोइभी एव लगानी नहि. सुशतासे वा स्यानेपनसे बोलना चालना इत्यादि उत्तम नीति रीति आदरनेके लिये प्रयत्न कियेही करना. मतलवमें इतनाही कहेना काफी है कि कोईभी प्रशंसनीय प्रकारसे कुलकी शोभामें वृद्धि हो वैसेही कार्य करना.
३३ दया स्वभाव धारण करना समस्त प्राणियोको समान गिनकर किसीका जीव दुःख पावे वैसा करना नहि सब जीवोंको मित्रके साइश मान लेनाही लाजीम है.
३४ पक्षापक्षी करना नहि सत्यकाही आदर करना. सत्य बावतमें भेद भाव धरना नहि और शत्रु मित्र समान गिन लेकर मध्यस्य भावमें स्थित होना
३५ गुणिजनको देखकर प्रसन्न होना यदि आपको गुण संग्रहनेकी जरूरत हो तो गुणिजनोको देखकर प्रसन्न रहो. क्यों कि गुण गुणियोके पासही निवास करते है. गुणिलोगोका अनादर करनसे गुण दूर भाग जाते है और उनोका योग्य आदर करनेसे गुण नजदीक आते है. ___३६ मोज में आ जाय जैसा वाक्याच्चार करना नहि जब जरुरत हो तब जरुरत जितनाही ज्ञानीके वचनानुसार बोलनेसे
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स्व परको हित होता है अन्यथा उन्मत्त भाषणसे तो अवश्य अपना और दूसरेका अहितही होता है.
३७ समस्त अपने कुटुंबको धर्मचुस्त बनाना (धर्मस्त करने में योग्य यत्न-प्रयत्न उपयोगमें लेना.) - उपकारी कुटुंबियोके उपकारका दूसरी रीतिसे बदला दे सकते नहि, मगर धर्मके संस्कारी करनेसे उन्हके उपकारका बदला अच्छी तरह से पूर्ण कर सकते है, और धर्मके संस्कारी होनेसे वोह सब प्रकारसे अनुकूलवर्ती होते है.
३८ बिना विचार किये कोइभी कार्य करना नहि साहस कार्य करनसे कोइ वरूत जीव जोखममें झुक जाकर महान् शोकातुर होता है, इस लिये तिका अंतका परिणाम विचार करकेही घटित कार्य करनमें तत्पर रहेना.
३९ विशेष ज्ञान संग्रह करना सत्यतत्व जानने के लिये जिज्ञासा हो तो अंध क्रियाका त्याग करके हरएक व्यवहारक्रियाका परमार्थ समझकर सत्य-निष्कपट क्रिया करने के लिये पूर्ण आदर करना.
४० हम्मेशा शिष्टाचार सेवन करना महान् पुरुषोंने सेवन किया हुवा मार्ग सर्व मान्य होनेसे अवश्य हितकारी होता है, इस सबबसे स्वकपोलकल्पित मार्गको छोडकर सन्मागे सेवन करना. क्यों कि 'महाजनो येन गतः सपन्थाः'
४१ विनयवृत्ति-नम्रता धारण करनी--सद्गुणी वा सुशील सज्जनोंका उचित विनय करना. सद्गुणी जनोंका कभीभी अनादर करना नहि. क्यों कि विनय सोही समस्त गुणोंका वश्यार्थ प्रयोग है. धर्मका मूलभी विनय है. विनयसेही विधा फलीभूत होती है. और विनयसेही अनुक्रम करके सर्व सपत्ति संपादन होती है. .
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४२ उपकारी जनका उपकार भूल नहि जाना माता, पिता और मालिकका उपकार अतुल माना जाता है. यह सबसे धर्मगुरुका उपकार बेहद है. तिन्हका उपकारका बदला पूर्ण करनेको सञ्चा उपाय यह है कि तिन्हको जरुरतके समय धर्ममें मदद देनी ऐसा समझकर वैसी उत्तम तक मौका सुजनको खो देना नहि चाहीये. क्यों कि, गया वरूत फेर हाथ आता नहि.
४३ यथाशक्ति जरूर पर दुःखमंजन करना दीन, दुःखी, अनाथ जनको यथा उचित सहाय देकर तिन्होंको आश्वासन देना.
और कुछ न बन सके तो योग्य वचनसेभी तिन्होंको संतोष देना. तिन्होंका जीवात्मा कोइ प्रकारसे दुःखी हो तैसा कुछ करना या शब्दोचारभी करना नहि. और तिन्होंको टिगमगाकर देना नही. जलदी अपनी शक्ति मुजब दे देना. ___४४ कार्यदक्ष होना--अभ्यास बलसे कोइभी कार्यमें फिकरमंद नहि होके तिरकों पार पहोंचानेमें पूर्ण हिम्मतवंत होना. आरंभ किये हुवे कार्यमें कितनेभी विन आ जाय तोभी हाथ धरे हुवे कार्यमें निडरतापूर्वक अडग रहकर कार्य सिद्ध करना.
४५ मिथ्वात्व सेवन करना नहि--राग द्वेषसे कलंकित हुवे कुदवोंका, तत्वसे अज्ञ मिथ्या कदाग्रही कुगुरुका और हिंसादि दूषणोसे सहित कुधर्मका सर्वथा त्याग करना, अज्ञानमय होळी प्रमुख मिथ्या पर्वोकामी अवश्य परिहार करना, मिथ्या देव देवीकी मानत नहि करनी. शासन भक्त सुरवरोंकी सच्चे दिलसे आस्था रखनी. क्यों कि, आपत्तिके वस्त भक्तजनोंको शासनदेवही सहायभूत होते है.
४६ शंका खा धारण करनी नहि , सर्वज्ञ वीतराग परमा माके प्रमाणभूत वचमनमें कदापि शंका करनी नहि. क्योंकि,
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तिन्हकों सर्वथा दोष रहित होनेसे झूट बोलनेका कुछ प्रयोजन, नहि है, इसे निःशंकपणे श्री जैनशासनकी शुद्ध दिलसे सेवा करनी. प्राणात होनेसेभी पाखंडी लोगोंने फेलाई हुई जाळमेंफसाना नहि. -
४७ धर्म संबंधी फलका संदेह करना नहि जो साक्षात' धर्म कल्पवृक्षका सेवन करके तीर्थकर गणधर प्रमुख असंख्य मनुप्याने साक्षात सुखका अनुभव कीया है उस पवित्र धर्मके अमोध फलका संदेह निर्बल मनवाले मनुष्य सिवाय दुसरा कौन करेगा? अपितु अन्य कोइभी नहि करेगा.
४८ मिथ्यात्वका परिचय त्याग देना-- 'सोबत असर ' यह दृष्टांतसे स्वगुण की हानी और कदाग्रही विपरीत दृष्टी जनके ज्यादा संगसे आत्माका सहज शत्रुभूत दुर्गुणकी वृद्धि होती है.
४९ मिथ्यात्वीकी स्तुति भी नहि करनी--इस्की स्तुति करनेसेभी मिथ्यात्वकाही वृद्धि होती है. . ५० तत्वाही होना ---- मध्यस्थ वृत्तिसे सत्य गवेषक होकर सुवर्णकी राह परीक्षा पूर्वक शुद्ध तत्व अंगीकार करना..
५१ जोहेरीकी मुवाफिक सुपरीक्षक होना शुद्ध तत्व स्त्रीकारते पहेले जोहेरीकी तरह अपनी चातुर्यताका जहां तक बने वहां तक पूर्ण उपयोग करना.
५२ तत्वपर पूर्ण श्रध्दा रखनी श्री सर्वज्ञ प्रभुके फरमाए हुए तत्व वचनोपर पूर्ण प्रतीति रखनी, किचितभी चलित नहि होना.
५३ नीच आचारपालेकी सोबत सर्वथा त्याग देनी नीच संगतिसे हीनपदही प्राप्त होता है. प्रत्यक्ष देखो कि गंगानदीका पवित्र जलभी क्षार समुद्र में मिल जानेसे क्षाररूप हो जाता है. ऐसा समझकर सत्संग सेवन करनाही मुनासिब है.
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(४६) .५४ धर्म ( शास्त्र ) श्रवण करनेमें तीव्र रुची करनी जैसे कोइ सुखी और चालाक युवान बहोत उत्साहसे देवी गायन नादको अमृत समान जानकर श्रवण करे तैसे बल्कि तिरसेमी अधिक उत्कंठासे शास्त्र श्रवण करना योग्य है. शास्त्रपाणी श्रवण करनेमें बडी सकर-द्राक्षसेभी ज्यादा मिटता पैदा होती है. _५५ धर्मसाधन करनेपर बहोत रुची रखनी जैसे कोई ब्राह्मण जंगल उल्लंघन करके थकित बनकर बेहोश हो गया हो और उस्को बहोतही भूक लगी हो, उस परत कोइ सख्स उसे धेबरका भोजन दे दे तो बहोतही रुचिदायक हो. तैसे मोक्षार्थीको धर्मसाधन करना रुचिकर होना चाहिये.
५६ देवगुरुका वैयावच करने में कपाश नहि रखनी चाहिये- जैसे विद्यासाधक प्रमाद रहित विद्या साधनमें तत्पर रहेते है, तैसे शुद्ध देव गुरुका आराधन करनेमें कुशलता रखनी आत्मा
ओंको योन्य है.
५७ विनयका स्वरुप समझकर अरिहंतादिकका निम्। लिखे मुजब आदर रखना १ भक्ति (बाह्य उपचार), २ हृदयप्रेमबहु मान, ३ सद्गुणोंकी स्तुति. ४ अवगुन-दोषदृष्टिका त्याग करना और ५ बनते तक आशातनाओसे दूर रहना. . ५८ शुध्द समकित पालना (मन, वचन और कायासे ) श्री जिन और जैनमार्ग बिगर समस्त असार है, ऐसा निश्चय करनेसे मनसे, श्री जिनभाक्तसे जो बन सके सो करनेवाला दुनिया में दसरा कौन समर्थ है, ऐसा कहनेसे पचनसे, और अडगपनसे श्री जिनके सिवा अन्य कुदेवको कबिभी प्रणाम नहि करनेसे कायासे, ऐसे त्रिकरण शुद्धिसे सम्यकत्व पालना.. ____ ५९ जैनशासनको प्रभावना करनमें तत्पर रहना पवित्र
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(४७) जैन सिद्धांतका पूर्ण अभ्यास करनेसे भव्य जनोको धर्मोपदेश देनेसे, दुर्वादीका गर्व मनसे, निमित्त ज्ञानसे, तपोबलसे, विद्यामंत्रसे, अजन योगसे और काव्य बलसे राजा वगेरहिको प्रतिबोधनेमें, जैनशासनकी विजयपताका फडफडानेमें घटित वीर्य स्फुररायमान करना.
६० जिस प्रकारसे समकित शुद्ध निर्मळ हो तिस प्रकाका त्वरासे उपयोग करना-- शुद्ध दव गुरुको यथाविधि वदन करके, यथाशक्ति व्रत ५च्चलखाण करना. तथा उत्तम तीर्थ सेवा, देवगुरुकी भक्ति प्रमुख सुकृत ऐसी तराहसे करना कि जिरसे अन्य दर्शनी जनोभी वह वह सुकृत करणीकी अवश्य अनुमोदना करके बोध बीज बोकर भवातरमें सुधर्म फल प्राप्त करनेको समर्थ होके यावत् मोक्षाधिकारी होवे.
६१ अपराधी परभी क्षमा करनी-अपराधिकाभी अहित नहि करना, और बनसके वहातक अपराधीकोभी सुधारनेकी-केलवणी देनेकी इच्छा रखनी.
६२ मोक्ष सुखकीही अभिलाषा रखनी जन्म मरणादि समस्त सासरिक उपाधि रहित अक्षय सुख संपादन करनेके लिये अहर्निश यत्न करना. देव मुनुप्यादिकके सुखोंकोभी दुःखरुपही जानना.
६३ संसारके दुःखसे त्रासवंत होना--यह संसारको नरक वा काराग्रह समान जानकर तिनसे मुक्त होनेका यत्न किये करना.
६४ पीडित जनोंको वते वहांतक सहायता देनी द्रव्यसे दुःखी होनेवाले मनुष्योंको, तथा धर्म कार्यमे सीदाते हुवे सज्जनोंको यथायोग्य मदद देकर तिन्होंको घटित तोष देना. तिन्ह की उपेक्षा करके वेदरकार न रहना. एकभी जीवको सत्य सर्वज्ञ धर्म प्राप्त करानेवाला महान् लाम उपार्जन करता है.
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६५ वीतरागके वचन प्रमाण करे सर्वज्ञ वीतराग परमा___ माने तीनों कालके जो जो भाव कहे है वह वह भाव सर्व सत्य
है, ऐसी दृढ आस्तावाला मनुष्य उत्तम लक्षणोसे लक्षित समकित रत्नको धारण कर सुखा होता है.
६६ ग्रहण किये हुवे व्रत साहसीकतासे पालन करे सत्य सत्ववंत शूरवीरोको लिये हुवे व्रत अखंडतासे पालन करनेमें तत्पर रहेना घटित है. प्राणांत समयमेंभी अंगीकार किये हुवे व्रतोंको खंडन करना मुनासिब नहि है.
६७ अपवाद के वरूत जिस प्रकारसे धर्मका संरक्षण हो तिस प्रकारसे ध्यान पूर्वक परीना.--- राजा, चोर दुर्मिक्षादिकक सवल कारणके वसत जिस प्रबंधसे चित्त समाधिवंत रह सके तिस प्रबंध युक्त दीर्घदृष्टि से स्ववत सन्मुख दृष्टि रखकर उचित प्रकृति करनी,
६८ हरेककार्य प्रसंगमें धर्ममर्यादा याद रखकर चलना-- जिरो धर्मको बाध न लगे, धर्म लघुता न पावे और स्वपर हित साधनमें खलेल न पहोचे ऐसी उचित प्रवृत्ति करनी चाहिए.
६९ आत्मा हर एक शरीरमें विद्यमान है.-- जैसे तिलमें - तैल, फुलोमें खुसबु, दुग्धौ धृत, तैसे प्रत्येक शरीरमें आत्मा रहा है.
सर्वथा शरीर रहित आत्मा सिद्धात्मा कहा जाता है. ____७० आत्मा नित्य है-- नारकी, तिथंच, मनुष्य और देवतारुप चारो गतिमें आत्मत्व सामान्य है.
७१ आत्मा का है-- अशुद्ध नयसे आत्मा कर्मका कर्ता है और शुद्ध नयसे स्वगुणका कर्ता है. ____७२ आत्मा भोक्ता है--- अशुद्ध नयसे आत्मा कर्मका भोक्ता है और शुद्ध नयसे तो स्वगुणकाही भोक्ता है.
७३ मोक्ष है समस्त शुभाशुभ कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे
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आत्मा परमात्मा - सिद्धात्मा होकर जो लोकाय अजरामर, अचल, निरुपाधिक स्थानको संप्राप्त होता है सो मोक्ष कहा जाता है.
७४ मोक्षका उपायभी है-- सम्यक ज्ञान ( तत्वज्ञान ), सम्यक दर्शन ( तत्व दर्शन ) और सम्यक चारित्र ( तत्व रमण) यह मोक्ष प्राप्तिके अवंध्य-अमोघ उपाय है. • ७५ सबके साथ मैत्रीभान रखना सर्व जीवों को मित्रही जानना, किसीके साथ शत्रुता धारण करना नहि, सबमें जीवत्व समान है, सर्व जीव जीनेकी इच्छा रखते है, सुख दुःख समय मित्रवत् समभागी होना. द्वेष इर्ष्या या स्वार्थबुद्धिसे किसीका भी कार्य विगाडना नहि. ___ ७६ पापी, निर्दय, कठोर परिणामवाले प्राणीओंपरभी द्वेषभाव धरना नहि तसे दुर्भव्य वा अभव्य जीवके साथ प्रीति वा द्वेष रखना नहि. मध्यस्थ रहकर चितवन करना : कि वो बिचारे निबिड कर्मके पश होकर तैसा वर्तन करते है.
७७ बुद्धिवंत होकर तत्वका विचार करना-कि में ऐसी स्थितिवंत क्यों हुवा ? मेरेको कैसा सुख अभिष्ठ है ? वो कैसे मिल सके ? मेरेको सुखमें अंतराय कौन करता है ? उन उन अंतरायोंको में किस प्रकारसे दूर कर सकुं ? वगैराः वगैराः। ___७८ मानवदेह प्राप्त करके वन सके वैसे सुव्रत धारण करे बोध प्राप्त कियेका यही सार है कि असार और अनित्य देह से सार व्रत धारण कर सत्य और सनातन धर्म साधना. __७९ लक्ष्मी प्राप्त करके सुपात्र दान दे, सदुपयोग करे लक्ष्मीका चंचल स्वभाव जानकर विवेकसे पात्र-सुपात्र दान देना, सो ऐसा समझकर देना कि ' हाथसे करेंगे सोही साथ आयगा' 'जैसा देखेंगे तैसाही पावंगे.'
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( to )
८० सत्य और प्रिय वचन मुंहकी शोभा है जिस करके જૂસરેા ઉદ્દત દ્દો વૈસા મીઠા-મથુર્ માષણ ના, જ્યારે માત્રળ कदापि नहि करना सो यह समझकर नहि करना कि - 'वचने क... રિદ્રતા ’
દુઃરવ
૮૨ નિતના વન સ તિતના નીર્વાદસામે દૂર રહેના દુર્ભાગ્ય, વામારી વગૈરાં પ્રત હિંસાઅે હૈં। છ સમક્ષ સુનનન પ્રમામે પરાયે પ્રાણ અપહરણરુપ હિંસામે દૂર રહને છિયે વને વહાંત પ્રયત્ન છે.
ભૂપત્ત,
૮૨ નિતના બંને તિતના સત્યને દૂર રહેના ચોવડાપન, મુલપાવિ રોપ વેના વોરાં પ્રજ્સ અસહ્ય માષળની જી સમક્ષા સુજ્ઞનન બસત્યા ત્યાપર વેવે.
૮૨ નિતના વન સદ્દે તિતના ઐત્ત-ચોરીસે દૂર રહેના. વાસા સમાનંદ' ઘેલા સમાર તથા રાનવું, મય, નિર્ધનતા, પળવિ પ્રત ચૌરી ∞ નાના સમનવાર જોજો વને વહાંત અતિતે दूर રહેનાહીં दुरात હૈ.
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૮૪ મૈથુનીયા પશુવૃત્તિાવને વાંત ત્યાગ જર વિરત્ત્ત દેશા ધારણ ર જેની, ધાતુક્ષય, ક્ષયરોગ, ચાંદી વોરાં અને दुःख के भोग होनेरूप प्रकट कामक्रीडाके फल समझकर तथा ज्ञानी के વશ્વન મુઝવ વહુતસે નીવોા નારા ઢોનેગારળ નાના સત્ય જીવાર્થીનન વન સòતતના મૈથુન પરિત્યાય જર સંતોષ ધાર જેવે. ૮૬ નિતના વન સ સિત્તના પાપ્રદા પ્રમાળ મ મોહમમત્વો વાનેહારાં ધનધાન્યાવિ નવ પ્રજાર વરમહ વનતે ત ધા તેના. સૂમુમ, બ્રહ્મવત્ત પ્રમુવી પરિબ્રહ વહોત મમતાને દુર્વા દુરૂ વિશ્વાર યાને આ અર્થો નથજારી સમક્ષર્ ધતિ સંતોષ ધારપર હેવે.
તેના
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(५१) ८६ निर्यथ मुनि महाव्रतके अधिकारी है हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, यह पाचोंका सर्वथा मन वचन और कायासे ___ करना कराना और अनुमोदन आदी त्याग करके वो महानतोको शूर' चीर होकर पालन करनेवाले निग्रंथ अणगारके नामसे पहेचाने जाते है.
८७ अणुव्रत धारक श्रावक कहे जाते हैं स्थूल हिंसादिकका यथाशक्ति संकल्प पूर्वक त्याग करनेवाला श्रावक कहा जाता हैं.
८८ रात्रिभोजन महान् पापका कारण है . पवित्र जैनदर्शनमें साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका मात्रको रात्रिभोजन सर्वथा निषेध है. अन्य दर्शनमेंभी रात्रिमें अन्न लेना मांस बराबर
और पानी पीना रुधिर बराबर कहा है. ऐसा समझकर सुझं मनु'प्योको रात्रिभोजन छोड देनाही लाजीम है. रात्रिभोजन करनेचालेको सांप, धूधू, छपकली प्रमुख नीच, अवतार लेने पडते है. और भोजनमें क्वचित् विषजंतु आजानसे. विविध जातिके च्याधि विकार पैदा होते है.कभी मर जावे तो दुर्गतिमें जाना पडता है.
८९ दूसरेभी अभक्षोंका त्याग करना दो रात्रिके वादका दही, तीन रात्रि व्यतीत हुवे बादकी छाछ, कच्चा गोरस दूध, दही,
और छांछके साथ मुंग, उडद, अरहर, चणे, इत्यादि द्विदल खाना, कचा निमक, तिल, खसखस, तुच्छ फल, अनजाने फल, दिनके उदय सिवा भोजन करना, संध्याकी संधिके वरूत भोजन करना, अख्खे फलका और बिगर धूप बताए हुवे आचार, गत दिनका पकाया हुवा भोजन, विषग्रहण. ओते, बरफ वगैरा जो जो प्रसिद्ध. अभक्ष ( नहि खाने लायक ) है वह वह सर्व पदार्थ सर्वथा त्याग देने चाहिये. बेंगन, पिल, वडके फल, शहद, मक्खन आदिमी सब अभक्ष समझकर वर्जित करना सो बहोतही फायदेमंद है.
९० अनंतकायका भक्षणभी त्याग देना अद्रक, मूली,
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( ५२ )
गाजर, पिंड, पिंडालु, सूरन, वगैरां नमिकंद, तथा बहोतही कोमल फूल वा पत्र पत्ति, थेग, नीमगिलोय, मोथ प्रमुख, किंवा नये उगते हुवे अंकुर कुंपल वगैरा में अनंत जीवोंकी उत्पत्ति जानकर तिन्होंकी हिंसासे डरकर तिन्होका त्याग करना.
९१ तीन गुणत्रत धारण करना उपर कहे हुवे अणुत्रतकी पुष्टिके लीये दिग् विरमणव्रत १, भोगोपभोग विरमण २, अनर्थ - दंड विरमणत्रत रुप तीन गुणव्रत धारण करना. पहीले गुणत्रत में मर्यादा की हुइ भूमिके बहार जाना नहि. दूसरेमें महापाप वाले १५ कर्मादानका व्यापार बंध कर देना, तथा चौदह नियम धारण करना. और तीसरेमें दुसरेको पापोपदेश नहि देना. पापकारी उपकरण कोइमी मंगे तो नहि देना. नाटक प्रेक्षणा नहीं करना.
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९२ चार शिक्षात्रत सेवन करना सामायिक ( संकल्प पूर्वक अमुक वख्त समताभाव सेवन करणरूप ) १, देशावगासीक (दीविरमण व्रतका संक्षेप करण रुप ) २, पौषध ( आहार, शरीरसत्कार मैथुनक्रीडा तथा अन्य पाप व्यापारका सर्वथा वा अंशसे त्यागरूप ) ३, अतिथि संविभाग ( साधु, साध्वीको दान देकर भोजन करणरुप ) ४, यह चारों शिक्षाव्रत सुश्रावक श्राविकाओने मूल गुणों की पुष्टि खातर अभ्यासरूपसे अवश्य सेवन करने लायक है.
९३ ग्रहण किये हुवे व्रतोंको यथार्थ पालन करे लक्ष्मी, यौवन और जीवितको अस्थिर जानकर तिन्होंको उत्तम व्रतसे सफल करनेके लिये सज्जन जन दृढ निश्चय करे, और प्राणांत समयभी ग्रहण करे हुवे व्रत खंडित न करे.
९४ पहिले व्रतका स्वरूप जानकर अंगिकार करे. व्रतका स्वरुप समझकर तिरसे यथाविधि पालन करनेसे यथार्थ फल प्राप्त कर सके. ९५ व्रतकी तुलना कर लेनी- अंगीकार करने योग्य व्रतका
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(५३)
प्रथम अच्छी तरांहसे अभ्यास कर पिछे तिसका पच्चलखाण करना.
९६ अभ्यासको कुच्छ असाध्य नहि है अभ्यासक बलस प्राणी पूर्णताको प्राप्त कर सकता है, इस लिये अभ्यास कियेही करना.
९७ सावधानीसे मोक्ष क्रिया साधनी शास्त्र कथन भुजब मोक्षगमन योग्य सक्रिया साधते हुवे तेल पात्रधर' (संपूर्ण तैलका पात्र लेकर चलनेवाले ) तथा 'राधावेध साधनेवाले' की तसंह सावध रहेना किंचित्भी फळत करनी नहि. विद्या मंत्रसाधककी तरांह अप्रमत्त होकर रहेना.
९८ सुख दुःखम सिंह वृत्ति भजनी धारन करनी-सुख दुःखके पत्तम हर्ष शोककी बेदरकारी रखकर कैसे कारणोसे वह सुख दुःख पैदा हुवे है, सो तपास कर अशुभ कर्मसे डरकर पलना
और बने वहातक शुभ कर्म-सुकृत समाचरना. ___ ९९ श्वानवृत्ति सेवन करनी नहि जैसे कूतरा पथ्थर मारने पालेको काटना छोडकर पथ्थरको काटने दोडता है, तैसे अज्ञानी अविवेकी जनभी सुख दुःख समयमें सीधा विचार करना छोडकर उलटा विचार कर हर्ष खेद धारणकर कुत्तेकी तराह दुःखपात्र होता है. मगर जो समजदार है वो तो उभय समयमेंभी समानभाव धारण करते है.
सर बोल संग्रह. १ लोभी मनुष्य फक्त लक्ष्मी इकट्ठी करने में ही तत्पर-हुंसियार रहते है, मूढ-कामी मनुष्य काम भोग सेवनमें ही तत्पर रहते हैं, तत्वज्ञानीजन काम क्रोधादि दोषका पराजय करके क्षमादि गुण धारण करने ही तत्पर रहते है, और सामान्य मनुष्य तो धर्म, और काम यह तीनोका सेवन करने ही तत्पर रहते है,
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(५४)
२ पंडित उन्हीकोही समझो कि, जो विरोधसे विरामकर शांत, समभावत हुवे हो3; साधु उन्हीकोही जानो कि, जो समय और शास्त्रानुसार चले; शक्तिवंत उन्हीकोही समझो कि, जो प्राणांत तक भी धर्मका त्याग न करे; और मित्र उन्हीकोही जानो कि, जो विपत्तिमें भागीदार हो
३ क्रोधी मनुष्य कभी सुख नहीं पाते है, अभिमानी शोकाधीन होनेसे कभी जय नहीं पाते हैं, कपटी सदा औरका दासपणाही पाते है, और महान् लोभी और मम्मण जैसे मनहूस मख्खीचूस नरकगति ही पाते है. ____क्रोधके जैसा दूसरा कोई भवोभव नाश करनेहारा विष नहीं है; अहिंसा-जीवदयाके जैसा दूसरा जन्मजन्ममें सुख देनेवाला कोई अमृत नहीं है; अभिमानके जैसा कोई दूसरा दुष्ट शत्रु नहीं है; उधमके जैसा कोई दूसरा हितकारी बंधु नहीं है; मायाकपट के समान दूसरा कोई प्राणघातक भय नहीं है; सत्यके जैसा कोई दूसरा सत्य शरण नहीं है; लोभके जैसा कोई दूसरा भारी दुःख नहीं है और संतोषके जैसा कोई दूसरा सर्वोत्तम सुख नहीं है. * ५ सुविनीतको बुद्धि बहुत भजती है, क्रोधी कुशीलको अपयश बहुत भजता है, भन्न चित्तवालेको निर्धनता बहुत भजती है, और सदाचारवंत-सुशीलको लक्ष्मी सदा भजती है. __६ कृतघ्न मनुष्यको भित्र तजते हैं, जितेंद्रिय मुनिको पाप तजते है, शुष्क सरोवरको हंस तजते हैं, और धुररोबाज-कषायवंत मनुष्यको बुद्धि तज देती है. __ ७ शून्य हृदयवालेको बात कहनी सो विलाप समान है, गइ गुजरीको पुनः पुनः कथन करनी सो विला५ समान है, विक्षेप चित्तपालेको कुछभी कहना सो विलाप समान है, और कुशिष्य
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(५५)
शिरोमणीको हितशिक्षा देनी सो भी विलाप समान है.
८ दुष्ट अकसर लोगोंको दंड देनेके वास्ते तत्पर रहते हैं, मूर्खलोग कोप करनेमें, विद्याधर मंत्र साधनेमें, और संत साधुजन तत्वग्रहण 'करनेमें तत्पर रहते हैं,
९क्षमा उतपका, स्थिर समाधीयोग उपशमका, ज्ञान तथा शुभ ध्यान चारित्रका, और अति नम्रतापूर्ण गुरु तर्फ वर्तन शिष्यका भूषण है.
१० ब्रह्मचारी भूषण रहित, दीक्षांत द्र०य रहित, राज्यमंत्री" बुद्धि सहित और स्त्री लज्जा सहित शोभायमान् मालूम होते है.
११ अनवस्थित-अनियमित-अस्थिर प्राणीका आत्माही अपने आपका वैरी जैसा और जितेंद्रियका आत्माही' आत्माको शरण करने योग्य समझना.
१२ धर्मकार्यके समान कोई श्रेष्ठ कार्य, जीवहिंसाके समान भारी अकार्य, प्रेम-रागके समान कोई उत्कृष्ट बंधन, और बोधी लाम-समकित प्राप्तिके समान कोइ उत्कृष्ट लाभ नहीं है.
१३ परस्त्रीके साथ, गमारके साथ, अभिमानीके साथ और चुगलखोरके साथ कबी भी सोबत न करनी चाहिए; क्यो कि ए हरएक महान् आपत्तिके ही कारण है.
१४ धर्मचुस्त मनुष्योंकी जरूर सोबत करनी चाहिए, तत्व ज्ञाता पंडितजनको जरुर दिलका संशय पूंछना चाहिए, संत-सु साधुजनोंका जरुर सत्कार करना चाहिए और ममता-लोम-दर । कार रहित साधुओंको जरुर दान देना चाहिए; क्यौ कि ये हरएक. लाभकारी है. .
१५ विनय विचारसे पुत्र और शिप्यको समान गिनने चाहिए। गुरुको और देवको समान गिनने चाहिए, मूर्ख और तिथंचको समान,
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(५६) गिनने चाहिए, और निर्धन तथा मृतकको समान गिनने चाहिये.
१६ तमाम हुन्नरासे धर्माराधनका हुन्नर, समस्त कथाओंसे मूल्यमें धर्म कथा, सब पराक्रमसे धर्म पराक्रम, और तमाम सासारिक सुखोंसे धर्म संबंधी सुख विशेष शोभा पात्र है. .
१७ जुगार खेलनेवाले जुगारीके धनका, मास खानेकी आदत चालेकी दयाधुद्धि का, मदिरा पीनेवालेके यशका और वेश्यासंगीके कुलका नाश होता है. " १८ जीवहिंसा-शीकार करनेवाले उत्तम दयाधर्मका, चोरीकी
आदतथालेके शरीरका, और परस्त्रीगमन करनेवाले दयाधर्म और शरीरका नाश होता है उनकी अवममें अधमगति होती है. वास्त ए तीनो दुर्व्यसन यह लोक और परलोक इन दोनोसे विरुद्ध होने के लिये अवश्य छोड देनेके योग्य ही है.
१९ निर्धन अवस्थामें दान देना, अच्छे होदेदार अफसरको क्षमा रखनी, सुखी अवस्थामें इच्छाका रोध करना, और तरुण अवस्थामें इंद्रियोंको कजमें रखनी-ये चारों बातें बहुत ही कठीन हैं; तथापि वो अवश्य करने योग्य होनेसे जब पैसा मोका हाथ लगे तब जरूर लक्ष देकर करनी ही चाहिए.
धर्म कल्पवृक्ष (याने) दानके पार प्रकार, दान:-धर्म साक्षात् कल्पवृक्ष जैसा है, दान, शील, तप और भावना यह चार उनके प्रकार हैं. अभय-सुपात्र-ज्ञान दान वगेर: दानके भेद है. दानसे सौभाग्य, आरोग्य, भोग, संपत्ति ' तथा यश प्रतिष्ठा प्राप्त होते है. दानगुणसे दुश्मन भी ताबेदार हो पाणी भरता है. यावत् दानसे शालीभद्रकी तरह उत्तम प्रकारके दैवीभोग प्राप्त करके अंतमें मोक्ष सुख प्राप्त होता है. : शीलः पशुवृत्ति, छोडकर शील-सदाचारका विवेक पूर्वक
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सेवन करना उनके समान एक भी उत्तम धन नहीं हैं. शील परम मंगलरूपी होनेसे दुर्भाग्यको दलन करनेवाला और उत्तम सुख देनेवाला है. शील तमाम पापका खंडन करनेवाला और पुण्य संचय करनेका उत्कृष्ट साधन है, शील ये नकली नही मगर असली आभरण है, और स्वर्ग तथा मोक्ष महेलपर चढनेकी श्रेष्ठ सीढी है. इस लिये हरएक मनुष्यको सुखके वास्ते शील अवश्य सेवन करने लायक है. शीलवतको पूर्ण प्रकारसे सेवन करनेसे अनेक सत्वाका कल्याण हुवा है, होता है, और भविष्यमें होयगा. ___ तपः-कर्मको तपावे सोही त५. सर्वज्ञने उनके बारह भेद कहे है यानि छः बाह्य और छः अभ्यंतर एसे दो भेद सामिल होकर बारह होते है, उसकी नाम संख्या भेद नीचे मुजब है.
अनशन-उपवास करना सो (१), उनोदरी-दो चार कपल कम खाना सो।२), वृत्तिसंक्षेप-विवेक-नियम मुजव मित अन्नजल आदि लेना सो (३), रसत्याग-मद्य, मांस, शहद, मलखन, ये चार अभक्ष्य पदार्थोंका बिलकुल त्याग के साथ दुध, दही, घी, तेल, गुड और पकान्न वगैर.का विवेकसे बन सके उतना त्याग करना सो (४), कायाक्लेश आतापना लैनी, शीत सहन करनी सो (५), और संलीनता अगोपाग संकुचित कर-एकत्र कर स्थिर आसनसे बैठना सो (६) ये छः बाह्य तप कहे जाते है. अब छः अभ्यंतर तप पतलाते है.
प्रायश्चितः-कोई भी जातका पाप सेवन किये वाद पश्चाताप पूर्वक गुरु समक्ष उनकी शुद्धि करने के वास्ते योग्य दंड लेना सो (१) विनय-चाहे वो सद्गुणीकी साथ नम्रता सह वर्जन, सद्गुण समझकर उनका योग्य सत्कार करना सो (२), वैयावच्च-अरिहत, सिद्ध, आचार्य वगैरः पूज्य वर्गकी बहुतमान पुरःसर भक्ति करनी सो (३), स्वाध्याय-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और
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(५८)
धर्मकथा रुप ए पांच प्रकारका है उनका उपयोग करना सो (४), ध्यान-शुभ ध्यानको चिंतन और अशुभ ध्यानका विस्मरण करना यानि मलीन विचारोंको दूरकर शुभ या शुद्ध-निदोष विचारोंको धारण करना.आत्म-परमात्मकाएकाग्रतासे चिंतन करना, और बैहिवृत्ति
छोड अंतरवृत्ति भजनी सो (५). कासग-देहकी तथा उनकी साथ __ लगे हुवे मन और वचनकी चपलता दूर कर ही तत्पर-लीन होना सो (६), यह छ अभ्यंतर तप है.
अंतर शुद्धि करनेके वास्ते अवंध्य कारणभूत होनेसे वो अभ्यंतर तप कहा जाता है. अभ्यंतर तपकी पुष्टि हो वैसा बाह्य तय करना ऐसा सर्वज्ञ भगवानने भव्य जीवोंके लिये कथन किया है; वास्ते वो अवश्य तप आदरने योग्य है. तपके प्रभावसे अचिंत्य शक्तिये प्रकटती है, देव भी दास होते है, असाध्य भी साध्य होता है, सभी उपद्रव शांत होते है, और सब कमल दहन हो शुद्ध सुन्नकी तरह अपना आत्मा निर्मल किया जाता है; वास्ते आत्मार्थी-मुमुक्षु
वर्गको उनका सदा विवेक पूर्वक सेवन करना योग्य है. तप सच्चा __पही है कि जो कर्ममलको अच्छी तरह तपाक साफ कर देव..
भावनाः धर्म कार्य करने के भीतर अनुकूल चित्त व्यापार रूप है. पैसी अनुकूल चित्तवृत्ति रूपकी प्राप्तिक सिवाय धर्मकरणी चाहिए पैसा फल नहीं दे सक्ती है. यावत चित्तकी प्रसन्नताके बिगर . की गई या करानेमें आती हुई करणी राज्यवेठ समान होती है. वारते सब जगह भाव प्राधान्य रुप है, भाव बिगरका धर्मकार्यभी अलने धान्य गोजन जैसा फीका लगता है, और वो भाव सहित होवे तो सुंदर लगता है. इस लिये हरएक प्रसंगमें शुद्ध भाव अवश्य
आदरने योग्य है. सर्वकथित भावना ए भव संसारका नाश करती है. भैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता रु५ चार भावनायें भवभया
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(५९) • हरने वाली हैं. जगत्के जीव मात्रको मित्र गिननेरु५ मैत्री भाव है. चंद्रको देख जैसे चकोर प्रमुदित होता है वैसे सद्गुणीको देखकर भव्य चकोर चित्तमें प्रसन्न होवै वो प्रमुदित या मुदिता भाव कहा जाता है। दु.खी जीवको देखकर आपका हृदय पिघल जाय और यथाशक्ति उसका दुःख दूर करनेके लिये प्रयत्न हो सकै सो करें। उसको करुणा भाव कहा जाता है, और महापापरत प्राणीपर भी क्रोध-द्वेष न लाते मनमें कोमलता रख उदासीनता धरनेमें आवे उसको मध्यस्थ भाव कहा जाता है. ऐसी उत्तम भावना भावित अंत:करणवाले प्राणी पवित्र धर्मके पूर्ण अधिकारी गिने जाते है. उनके दर्शनसे भी पाप नष्ट हो जाता है. वैसे शुद्ध भाव पूर्वक शुद्ध क्रिया करनेवाले महात्माओं के प्रभावसे पापी प्राणी भी अपना जाती वैर छोडकर--अपना कर स्वभाव दूर कर शांत स्वभाव धारना करते है. ऐसे अपूर्व योग-प्रभाव पूर्वोक्त सदभावनाके जोरसे प्रकटत है; वास्ते मोक्षार्थिजनाको उपर कही गई भावनाये धारनके लिये अवश्य प्रयत्न करना योग्य है. सर्वज्ञ कथित तत्व रसिकको ए शुभ भावनाए सहजही प्रकट होती है.
सामान्य हितशिक्षा, (१) जयणा-यतना, उस उस धर्म संबंधी या व्यवहार संबंधी,. परलोक वास्ते या इस लोक वास्त, परमार्थसे या स्वार्थसे जो जो व्यापार करने में आवें उनमें बराबर उपयोग रखना वो उसका सामान्य अर्थ है. विशेषार्थ विचारनेसे तो, आत्माका शुद्ध निर्दभ मोक्षार्य शातिपूर्वक करनमें आये हुवे मन-वचन-तन-द्वारा व्यापार विशेष मालुम होता है, इसी लिये ही ज्ञानीशेखर पुरुषांने जय-- णाको धर्मकी माता कह बतलाई है यानि आत्मधर्म-गुणोंको उत्पन्न
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( ६० )
करनेवाली - वृद्धि
करनेहारी - पालन करनेवाली - यावत् एकांत सुखकारी जयणा ही है. जयणा रहित चलनेवाले, खडे रहनेवाले, चेठनेवाले, सोनेवाले, भोजन करनेवाले या भाषण करने-बोलने-वाले उन उन चलनादिक क्रिया करनेमें त्रस या स्थावर जीवों की हिसा करते है जिस्से पापकर्म बांधते है. उनका विपाक कटु होता है. वास्ते सुज्ञ विवेकी सज्जनोको वो वो चलनादिक क्रिया करनेके - वख्त ज्यौ ज्यौ विशेष जयणा समाली जाय त्यौ वर्तन - रखना वही हितकारक है; क्यौं कि सभी जीवोंको अपने जीव समान गिनता - हुवा जो किसी भी जीवको दुःख न देनेकी बुद्धिसे समस्त पापस्थान त्याग कर आत्मनिग्रह करता है वही महात्मा कर्म नहीं बचता है. अन्यथा अपने कल्पित क्षणिक सुखकी खातिर नाहक अनेक निरपराधि जीवों के प्राणों को हरण करता हुवा, अजयणासे वर्तन चलाता हुवा वो जीव भारीकर्मी होता है यानि बडे भारी कर्म बांधता है, कि जो कर्म उदय आने से बहुतही कटुरस देता है. दृष्टांतरूप कि परजीवों के संरक्षण के वास्ते मुनिमहाराज रजोहरण ओधा, तथा सामायिक पोपधादिक व्रतामे श्रावक चरवला, और इन सिवाय के गृहस्थ लोक कचरा कस्तर दूर करनेके वास्ते बुहारी रखते है; मगर वे सुकोमल होवे तब और हलके हाथोंसे उन्हों का उपयोग करनेमें आवै तब तो जीवरक्षारुप प्रमार्जना सार्थक हो जयणा 'पालन करने में मददगार होती है; लेकिन उस बिगर नही होती. आजकल अज्ञान दशासे मुग्ध जीव जमीन साफ करने के वास्ते अच्छे सुकोमल नरमासवाले उपकरण न रखते बहुत करके खजुरी वगैरः की तीक्ष्ण वुहारीयों का उपयोग करते हुवे मालुम होते है कि जो विचारे एकेंद्रिय से लगाकर त्रस जीवो तकके संहार होनेके लिये भारी शस्त्र हो पडता है. अपनको एक काटा लगनेसे दुःख होता है, तो
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। विचारे वे क्षद्रजीवोंकी जान निकल जाय वैसे शस्त्र समान घातक पदार्थ वपरासमें लेनेके वास्ते हिदु-आर्य मात्रको और विशेष करके कुल जैनोंको तो साफ मना ही है जिरो दुरस्त ही नही है. अल्प खर्च और अल्प महेनतसे सेवन करने में आता हुवा भारी दोष दूर हो सके वैसा है; तथापि वे दरकारीसे उनकी उपेक्षा किये करै, ये दयालु जीवोको क्या लाजिम है ? बिलकुल नहीं ! वास्ते उमेद है कि उस संबंध धर्मकी कुछ भी फि रखनेवाले या तरकी करनेवाले उनका तुरत विचार करके अमल करेंगे.
दुसरी भी उपर बताई गई चलनादिक क्रिया करनेकी जरूरत पडती है, उनमें बहुत ही उपयोग रखकर जीवोंकी विराधना न करते जयणा पालन करनी चाहिये. चलने के वस्त पूर्णपणेसे जमीनपर समतोल नजर रखकर एकाग्र चित्तसे वर्तन रखनेमें, और बैठने, ऊठनेमें, खडे रहने-सोनेमें, भी उसी तरह किसी जीवको तकलीफ न होने पावै वैसी सावचेती रखकर रहना चाहिए. भोजन संबंध तो जैनशास्त्र प्रसिद्ध बाइस अभक्ष्य और वत्तीस अनंतकाय छोड कर, और दुसरे भोज्यपदार्थंभी जीवाकुल नही है ऐसा मालुम हुवे बाद, तथा जानकरके या अनजानते जीवों का संहार करके बनाया गया न होय पैसेही उपयोग लेने चाहिए. वो भी दिनमे प्रकाशवाली जगहमें पुख्ते परतनमें रखकर उपयोग लेने चाहिए कि जिसे स्वपरकी बाधा-हरकत के विरहसे जयणा माताकी उपासना की कही जावै.
भाषण भी हितकारी और कार्य जितना-(Short and Sweet) तथा धर्मको दखल न पहुंचने पावे वैसा और जैसा जहा समय उपस्थित हो वहा वैसाही ( समयोचित ) बोलना. और बोलने के' परस्त विरतिवंतको मुहपत्ति और गृहस्थको भी इंद्र महाराजकी
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(६२)
तरह धर्मकथा प्रसंग समय जरुर उत्तरासंग-वस्त्रको मुंह आगे रखकर बोलना कि जिस्से जयणा सेवनकी मालुम होवै. ___ इस तरह उपर कही गई करणिय करने के वरूत ज्यौं ज्यों अप्रमत्ततासे वर्तन रखा जाय त्यौ त्यो विशेषतासे आराधकपणा समझना. और उसे विरुद्ध वर्तन रस तो विराधकपणा समझ लेना. पूज्य मातुश्रीकी तरह मानने लायक श्री पूज्य तीर्थकर गणधर 'प्रणीत पवित्र अगवाली जयणामाताका अनादर करके वर्तन चलानेवाले कुपुत्रोंकी तरह इन लोकमें और परलोकमें हासी तथा दुःख के पात्र होते है. वास्ते सपूतकी तरह जयणामाताका आराधन करनेमें नहीं चूकना-यही तात्पर्य है.
(२) झूठवाडा झूठा अन्न या पानी खाने पीने या छांटनेसे ___ अपने मुग्ध भाइ और भागनायें कितना बहुत अनर्थ सेवन करते
है सो ध्यान में रखो ! पूर्व तथा उत्तरके देशोंको छोडकर आजकाल यहां के अज्ञ जीव इन झूठको बाबतमें बहुत अधर्म सेवन करते है उनका नमूना देखो ? सभी कोइ कुटुंबी या ज्ञाति भाइयों के वास्ते पानी पीने के लिये रखे हुवे बरतनामसे पानी निकालने भरनेके लिये एक इलायदा बरतन-लोटा अगर प्याला नहीं रखतें है; मगर 'जिसी बरतनसे आप मुंहको लगाकर पानी पीते है, बस वही झूठे जलयुक्त बरतनसे पुनः उसी जल भरित बरतनकी अंदरसे पानी निकाल कर आप पीते है या दूसरोंको पिलाते हैं जिस्से शास्त्र मर्यादा मुजब उन जल भाजनमें असंख्यात लालिये समूर्छिम जीव , पैदा होते है यानि वो जलभाजन (पानीका बरतन ) क्षुद्र अति सुक्ष्म जीवमय हो जाता है, उन्हीको, मुंह लगाकर झुठा बरतन
पानी भरे हुवे बरतनमें डालने वाले अज्ञ पशु जैसे निर्विवेकी __जीव पीते है ऐसा कहना अयोग्य नहीं होगा. झूठा अन्न या
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(६३) पानी अंतर्मुहुर्त उपरात अविवेक या प्रामादसे रख छोड़ने वाला इस तरह असंख्य जीवों की विराधना करने वाला होता है. ऐसा समझकर-हृदयमें ज्ञान और मगजमें भान लाकर परमवसे डरकर जिस प्रकार बै असंख्य जीवोका नाहक-मुफत संहार न होवे उस प्रकार चेतने रहना योग्य है यानि खाने पीनेकी वस्तुमें झूठा पात्र हाथ न डालना और न झूठा बनाकर दुसरेको देना. ___ उसी तरह गत दिनका ठंडा भोजन पदार्थ, धूप दिखाये बिगर चनाया गया आम आदिका आचार, दो हिस्से होने वाले विदल मूग, उडद, चणे, अरहर, मटर वगैरः के साथ केच्चा दहीं खाना अभक्ष्य भक्षणरूप होनसे उन्होंका तद्दन त्याग करना. (वैद्यकीय नियमसेभी ए चीजे तन्दुरस्ती बिगाउन वाली ही है वास्ते छोडनेसे जरूर फायदाही होता है.) छोटे बडे जीमन-ज्ञाति, कुटुंब भोजनके वास्ते बनाई गई रसोइ कि जिसके बनानेके वरूत जयणा न रखनसे बहूतसे जीवों का सत्यानाश निकस जाता है. और झूठा अन्न जल ढोलनेसेमी बहूतही नुकसान होता है यदि सब जगह जयणा पूर्वक वर्तनमें आवै तो किसीकोभी हरकत न पहुंचने पाने,
और धर्माराधनका बड़ा लाभ भी सहजहीमें हासिल कर सके पास्ते हे सुज्ञ जन धुंद ! लज्जा और दयावंत हो एक पलभरभी जयाणाको भूल नहीं जाना.
(३) उडाउ खर्च-मा वापके मरे बाद अगर लडका लडकीकी शादी के वरूत बहुत जगह फजुल खर्च करने में आता है, और उन वख्तोंमें करने लायक खर्च तर्फ बेदरकारी रखने आती है. दृष्टांतरुप यह कि माता पिताने अंत कालम वैराग्य द्वारा मोह उतारकर तन मन धनसे जिस प्रकार उन्होंको धर्म समाधि होवै-यावत् उन्होंकी या आपकी सद्गति जिस सुकृत करनेसे हो सकै उसी प्रकार वतना
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लाजिम है. अवश्य करने लायक वो बावतका भान भूलकर पीछे फक्त लोकलाज से नाहक भारी खर्चमें उतरना उन करसे तो उतनाहीं धन परमार्थ मार्गमें व्यय करना सो विशेष श्रेष्ठ है. पुत्रादिकके जन्म या लग्नादि प्रसंगपर परम मागलिक श्री देवगुरुकी पूजा भक्ति भूलकर झूठी धूमधाम रचनेमें लख्खों नहीं बलके करोडो जीवोंका विनाश होवै वैसी आतशबाजी छोडने वैगेरेमें अपार धनका गैर उपयोग करनेमें आता है, वैसा भवभीरु सज्जनोंको करना नादुरुस्त है.
( ४ ) मानापोंका उलटा शिक्षण और उलटा वर्तनः - मावाप, उनके माबापोंकी तर्फसे अच्छा धार्मिक व्यवहारिक वारसा निला - नेमें कमनशीब रहनेसे, किवा भाग्य योगसे मिले हुये परभी उनको कुसंग द्वारा विनाश करनेसे अपने बालकोंको वैसा उमदा वारसा देनेमें भाग्यशाली किस तरह वन सकै ? अगर कमी सत्संगति मिलगइ होवें तो वैसे माबाप भी अपने बाल बच्चोंको वैसा प्रशंसनीय वारिसनामा करदेनेमें शायद भाग्यशाली बन भी शकै ! क्यौ कि - 'सत्संगतिः कथय कि न करोति पुंसाम् ? यानि कहो भाइ ! उत्तम संगति पुरुषोंको क्या क्या सत्फल न दे सकती है ? सभी सत्फल दे सकती है ।' उत्तम संगति के योगसे प्राणी उत्तमताको प्राप्त करता है, उत्तम बनता है, तो फिर वैसी अमूल्य सत्संगति करनेमें और करके कौनसा कमवख्त उत्तम फल पाणेमें बेनशीव रहेगा ? शास्त्र के जाननेवाले पंडित लोग कहते है कि - ' बुरेमें बुरी और बुरेंमें बुरे फलकी देनेहारी कुसंगतिही है.' तो बुरे फल को चखनेकी चाहनावाला कौन मंदमति ऐसी कुसंगतिको कबूल करेगा ? बस प्रसंगवशात् इतनाही कहकर अब विचार करे कि - अपने वालबच्चों को सुखी करने की चाहतवाले मावाप वैसी कुसंगतिके-लडके ' लडकीको बचा रख्खें और सत्संगतिमें लगा देनेकी बडी खत '
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रखकर उसको अमलमें लेवें, यदि ऐसा न करेंगे, तो वेसै मा बापोकों बाल बचों के हित करनेवाले नहीं मगर बेधडकसे अहितबुरा समझनेवाले ही कहेंगे. चै मावित्र नही किंतु कट्टे दुशमन ही समझो; क्यौ कि उन्होने अपने वाल बच्चोको जान बुझकर या बेदरकारीसे सद्गतिका मार्ग बंधकर दुर्गतिका मार्ग खुल्ला कर दिया हैं, उलटे रस्ते पर चडा दिये हैं; वास्ते वालकका जन्म हुवेके पेस्तर भी गर्भ में उसको हरकत न होवे उस तरह विषय सेवन संबंधम संतोषयुक्त भावापको रहना चाहिये. जन्म हुवे बाद कुछ बोलना शिख लेवे तब तक, या बाल्यावस्था तक में वो बच्चा अपशब्द न सुने या बोले नहीं. तथा सूक्ष्म जंतूको भी मारनेका न सीखे और न मारे ऐसा उपयोग देने में मावित्रोंकों बडी खबरदारी रखनी चाहियें और उसको किसी बढ़चाल चलन-चद् खिसलत वाले लोगों की सोबत न होने पावे उनकी बडी फिकर और तजवीज रखना चाहिये. जब समझके घरमें आया के तुरंत उसको अच्छे विद्यागुरु या धर्मगुरुके वहा सौंप देना चाहिये. कि जो विद्याधर्मगुरु उनको विनय वगैरः सद्गुणों का अच्छे प्रकार सह पूर्ण शिक्षण देवे. जिससे प्राप्त हुइ विद्याकी सफलतारुप वो विवेकरत्न प्राप्त कर सके. अन्यथा कुसंग कुच्छंदके योग से विनय विद्याहीन रहनेसे विवेक रहित पशु जैसी आचरणा करता हुवा जंगलके रोझकी तरह भवाटवी में भटकता फिरता है.
बाललझा कुजोड- ये सब विद्या विनयादिक पानेमें बड़े हरकत रुप होते है, जिसके परिणामसे वे इस लोकके स्वार्थसे भ्रष्ट होकर परभत्रका भी साधन प्रायः नही कर सकते हैं; इतनाही नहीं लेकिन अनेक प्रकारके दुर्गुण शीखकर बडे कष्टोके भुक्तनेवाले हो जाते है; वास्ते बाल बच्चोका सुधारा करनेकी जोखमदारी भाबा
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पोके शिरपरसे कभी नहीं होती है, वो उन्होंको खूब शोचनेकी जरुरत है. माबापाकी कसूरसे लडके मूख प्रायः रहनस उन्हाका हा एक शल्यरूप होते है. और उन्हीकी पवित्र खंतसे बालक व्यवहार
और धर्म कर्ममे निपूण होनेके सबसे उभय लोको सुखी होनेसे उन्होको भवोमवमें शुभाशिर्वाद देते है. परंपरासे अनेक जीवोंक हितका होते है. और वै श्रेष्ठ मावापोंके दर्जकी खुदकी फर्ज अपन बालबच्चे या संबंधीयोंकी तर्फ अदा करनमें नहीं चूकते है. हमेशा सज्जन वर्गमें अपने सद्विचार फैलाने के वास्त यत्न करते है, और पारमार्थिक कार्योंमें अवल दर्जेका काम उठाकर दूसरे योग्य जीवोंको भी अपने अपने योग्य करनेकी प्रेरणा करते है. ये सब फायदे मावापोंके उत्तम शिक्षण और उत्तम चाल चलनपर आधार रखनेवाले होनेसे अपन इच्छंगे कि भविष्यमें होनेवाली अपनी आल औलादका भला चाहनेवाले मावाप आप खुद उत्तम शिक्षण प्राप्त कर, उत्तम चालचलन रखकर अपने बाल बच्चांके अंत:करणको शुभ धन्यवाद मिलानेको भाग्यशाली होवेंगे. ( अस्तु ! ).
* बोधकारक दृष्टांतोका संग्रह
* *** * * * ** **ar -थायमें अन्याय करने पर शेठकी पुत्रीका दृष्टांत
एक धनवान शेत था. वह शेठाईकी वढाई एवं आदर बहुमानका विशेष अर्थी होनेसे सबकी पंचायतमें आगेवानके तोरपर हिस्सा लेता था. उसकी पुत्री बडी चतुरा थी. वह वारंवार पिताको समझाती कि पिताजी अब आप वृद्ध हुए, बहुत यश कमाया अब तो यह सब प्रपंच छोडो. शेठ कहता है कि, नहीं. मै किसीका
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पक्षपात या दाक्षिण्यता नहीं करता कि जिससे यह प्रपंच कहा जाय, मै तो सत्य न्याय जैसा होना चाहिये वैसा ही करता हू. लडकी बोली पिताजी, ऐसा हो नही सकता. जिसे लाभ हो उसे तो अवश्य सुख होगा परंतु जिसके अलाभमें न्याय हो उसे तो कदापे दुःख हुये बिना नही रहता. कैसे समझा जाय कि वह सत्य न्याय हुवा है. ऐसी युक्तियों से बहुत कुछ समझाया परंतु शेठके दिमागमे एक न उतरी. एक समय वह अपने पिताको शिक्षा देने के लिए घर में असत्य झगडा करके बैठी और बोली कि पिताजी ! आपके पास मैने हजार सुवर्ण मोहरें घरोहर रखी हुई है, सो मुझे वापिस दे दो. शेठ आश्चर्यचकित होकर बोला कि बेटी, आज तु यह क्या बकती है ? कैसी मोहरें, क्या बात ? विचक्षणा बोली- नहीं नही जबतक मेरी धरोहर चापिस न दोगे तवतक मै भोजन भी न करूंगी और दूसरे को भी नखाने दूंगी. ऐसा कहकर दरवाजेके बीचमें बैठकर जिससे हजारो मनुष्य इकट्ठे हो जाय उस प्रकार चिल्लाने लगी और साफ साफ कहने लगी कि इतना वृद्ध हुवा तथापि लज्जा शर्म है ? जो बालविधवा के द्रव्य पर वुरी दानत कर बैठा है. देखो तो सही यह मा भी कुछ नही बोलती और भाईने तो बिलकुलही मौन धारा है ! ये सब दूसरेके द्रव्यके लालचू बन बैठे है. मुझें क्या खबर थी कि ये इतने लाचू और दूसरेका धन दवाने वाले होगे ? नहीं नहीं ऐसा कदापि न हो सकेगा. क्या बालविधवाका द्रव्य खाते हुए लज्जा नही आती ! मेरा रुपया अवश्य ही वापिस देना पडेगा. किस लिए इतने मनुप्योंमें हास्य पात्र बनते हो ? विचक्षणा के वचन सुनकर बिचारा गेठ तो आश्चर्यचकित हो शरमिदा बन गया, और सब लोग उसे फटकार देने लग गये, इस बनावसे शेठके होस हवास उड गये. लोगों की फटकार स्त्रियोंके रोने कूटने का करुण ध्वनि और लडकीका विलाप
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इत्यादिसे खिन्न हो शेठने विचार करके चार बडे आदमियों को बुलाकर पंचायत कराई. पंचायती लोगाने विचक्षणाको बुलाकर पूछ। कि तेरी हजार सुवर्ण मुद्रायें जो शेठके पास धरोहर है उसका कोइ साक्षी या गवाहभी है ? वह बोली-साक्षी या गवाहकी क्या बात ? इस घरके सभी साक्षी है. मा जानती है, बहन जानती है, भाई भी जानता है, परंतु हडप करनेकी आशासे सब एक तरफ बैठे है, इसका क्या उपाय ? यों तो सबही मनमें समझते हैं परंतु पिताके सामने कौन बोले ? सबको मालूम होने पर भी इस समय मेरा कोई साक्षी या गवाह बने ऐसी आशा नहीं है. यहि तुम्हें दया आती हो तो मेरा धन वापिस दिलाओ नही तो मेरा परमेश्वर , वाली है. इसमें जो बनना होगा सो बनेगा. आप पंच लोग तो मेरे मांबापके समान है. जब उसकी दानतही बिगड़ गई तब क्या किया जाय ? एक तो क्या परतु - चाहे इकीस लंघन करने पड़ें तथापि मेरा द्रव्य मिल विना में न तो खाऊगी और न खान दूगी. देखती हूं अब क्या होता है. यों कहकर पंचोके सिर मार डालकर विचक्षणा रोती हुई एक तरफ चली गयी. ___ अब सब पंचोंने मिलकर यह विचार किया कि सचमुचही इस बेचारीका द्रव्य शेठने दबा लिया है अन्यथा इस बिचारीका इस प्रकारके कलहट पूर्ण वचन निकलही नहीं सकते. एक पंच बोला अरे शेठ इतना धीठ है कि इस बेचारी अबलाके द्रव्य पर भी दृष्टि डाली. अंतमे शेठको बुलाकर कहा कि इस लडकी का तुम्हारे पास जो द्रव्य है सो सत्य है, ऐसी बाल विधवा तथा पुत्री उसके द्रव्यपर तुम्हें इस प्रकारकी दानत करना योग्य नहीं. ये पंच तुम्हें कहते है की उसका लेना हमे पंचोंके बीच में ला दो या उसे देना कबूल करो और उसबाईको बुलाकर उसके समक्ष मंजुर करो कि हां ! तेरा द्रव्य मेरे
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पास है फिर दुसरी बात करना. हम कुछ तुम्हे फसाना नही. चहाते परंतु लडकीका द्रव्य रखना सर्वथा अनुचित है, इस लिए अन्य विचार किये विना उसका धन ले आओ. ऐसे वचन सुनकर विचारा शेठ लज्जासे लाचार बन गया शरममें ही उठकर हजार सुवर्ण मुद्राओकी रकम लाकर उसने पंचाको सोपी. पंचोने विलाप करती हुई वाईको बुलाकर वह रकम दे दी, और वे ७० कर रास्ते पडे. ___ इस बनावसे दूसरे लोगोमें शेठकी बडी अपम्राजना हुई. जिससे विचारा गेठ पडा लज्जित हो गया और मनमें विचार करने लगा कि हां! हा ! मेरे घरका यह कैसा फजीता ! यह रांड ऐसी कहांसे निकली कि जिसने व्यर्थ ही मेरा फजीता किया और व्यर्थ ही द्रव्य ले ' लिया ! इस प्रकार खद करता हुषा शेठ परके एक कोनमें जा बैठा. अब उसे दुसरोंकी पंचायत में जाना दूर रहा दूसरोंको मुह बतलाना या घरसे बहार निकलना भी मुश्किल हो गया. घरमें कुछ शांति हो जाने बाद के पास आकर भाई बहिन और माताके सुनते हुए विचक्षणा बोली-क्यौ पिताजी ! "यह न्याय सच्चा या झूठा ? इसमें आपको कुछ दुःख होता है या नहीं ? " शेठने कहा. इससे भी बढकर और क्या अन्याय होगा ! यदि ऐसे अन्यायसे भी दुःख न होगा तो वह दुनियाम ही न रहेगा. विचक्षणाने हजार सुवर्ण मुद्राऑकी थेली लाकर पिताको सोंपी और कहा - पिताजी ! मुझे आपका द्रव्य लेने की जरुरत नहीं, यह तो परीक्षा बतलानी थी कि आप न्याय करने जाते हैं उनमें ऐसे ही न्याय होते है या नहीं ? इससे दूसरे कितने एक लोगोंको ऐसा ही दुःख न होता होगा? इससे पंचाको कितना पुण्य मिलता होगा ? मै आपको सदैव कहती थी परंतु आपके ध्यानम ही न आता था इस लिये मन परक्षिा कर दिखलानेके लिये यह सब कुछ बनाव किया था,
आपका द्राने जाते हैं को ऐसा ही
में आपकार
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अब न्याय करना वह न्याय है या अन्याय ? सो बात सत्य हुई या नही, अबसे ऐसे पंचायती न्याय करनेमें शामिल होना या नहीं? शेठ कुछ भी न बोल सका. अंतमें विचक्षणाने शात करके पिताको न्याय करने जानेका परित्याग कराया. इस लिये कही कही पर पूर्वोक्त प्रकारसे न्यायमें भी अन्याय हो जाता है इससे न्याय करनमें उपरोक्त दृष्टांत पर ध्यान रखकर न्याय कर्ता को ज्यों त्यों न्याय न कर देना चाहिये, परंतु उसमें बड़ी दीर्घ दृष्टि रख कर न्याय करना योग्य है ! जिससे अन्यायसे उत्पन्न होने वाले दोषका हिस्से. दार न बनना पडे. धर्म करते अतुल धनप्राप्तिपर विद्यापति काष्टान्त..
एक विद्यापति नामक महा धनाढ्य शेठ था. उसे एक दिन स्वममे आकर लक्ष्मीने कहा कि मैं आजसे दसवें दिन तुम्हारे घरसे चली जाऊंगी. इस बारेमें उसने प्रातःकाल उठकर अपनी स्त्रीसे सलाह की तब उसकी स्त्रीने कहा कि यदि वह अवश्य ही जानेवाली है तो फिर अपने हातसे ही उसे धर्ममार्गमें क्यों न खर्च डाले ? जिससे हम आगामी भवमें तो सुखी हों. शेठके दिलमे भी यह बात बैठ गई इस लिए पति पत्नीने एक विचार हो कर सचमुच एक ही दिनमें अपना तमाम धन साता क्षेत्रों में खर्च डाला. शेठ और शेठानी अपना घर धन रहित करके मानो त्यागी न बन बैठे हों इस प्रकार होकर परिग्रह का परिमाण करके अधिक रखनेका त्यागकर एक सामान्य विछौने पर सुख पूर्वक सो रहे, जब प्रात: काल सोकर उठे तब देखते है तो जितना घरमें धन था उतना ही भरा नजर आया. दोनो जने आश्चर्य चकित हुये परंतु परिग्रहका त्याग किया होनेसे उसमेंसे कुछ भी परिग्रह उपयोग में न लेते. जो मिट्टी के वर्तन पहलेसे ही रख छोडे थे उन्हीमें सामान्य भोजन
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बना खाते है, वे तो किसी त्यागी के समान किसी चीजको स्पर्श तक भी नही करते. अब उन्होंने विचार किया कि हमने परिग्रह का जो त्याग किया है सो अपने निजी अंग भोग खर्चने के उपयोगमें लेनेका त्याग किया है परंतु धर्म मार्ग में खर्चनेका त्याग नहि किया. इस लिये हमे इस धनको धर्मं मार्गमें खर्चना योग्य है. इस विचारसे दूसरे दिन दुपहर से सातों क्षेत्र में धन खर्चना शुरु किया. दीन, हीन, दु.खी, श्रावकों को तो निहालही कर दिया. अब रात्रीको सुख पूर्वक सो गये. फिर भी सुबह देखते है तो उतना ही धन घरमें भरा हुवा है जितना कि पहेले था. इससे दूसरे दिन भी उन्होने वैसा ही किया, परंतु आगले दिन उतनाही धन घरमें आ जाता है. इस प्रकार जब दस रोज तक ऐसा ही क्रम चालू रहा तब दसवी रात्रीको लक्ष्मी आकर शेठसे कहने लगी कि बाहरे भाग्यशाली ! यह तुने क्या किया ? जब मैने अपने जानेकी तुझे प्रथमसे सूचना दी तब दो तब तूने मुझे सदा के लिये ही बांध ली. अब मै कह | जाऊं ? तूने यह जितना पुण्य कर्म किया है इससे अब मुझे निश्चित रूप से तेरे घर रहना पडेगा. शेठ शेठानी बोलने लगे कि अब हमें तेरी कुछ अवश्यकता नहीं हमने तो अपने विचारके अनुसार अथ परिग्रह का त्याग ही कर दिया है. लक्ष्मी बोली- “ तुम चाहे सो कहो परंतु अब मै तुम्हारे घरको छोड नही सकती. शेठ विचार करने लगा कि अब क्या करना चाहिये यह तो सचमुचही पीछे आ खड़ी हुई. अब यदि हमें अपने निर्धारित परिग्रहसे उपरात ममता हो जायगी तो हमें यहा पाप लगेगा, इस लिये जो हुवा सो हुवा, दान दिया सो दिया, अब हमें यहा रहना ही न ' चाहिये. यदि रहेंगे तो कुछ भी पापके भागी बन जायेंगे, इस विचारसे ये दोनों पति पत्नी महा लक्ष्मीसे भरे हुये घर बारको
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जैसाका तसा छोडकर तत्काल चल निकले. चलते हये ये एक गांवसे दूसरे गांव पहुंचे, तब उस गांवके दरवाजे आगे यहाका राजा अपुत्र मर जानसे मंत्राधिवासित हाथीने आकर शेठ पर जलका अभिषेक किया, तथा उसे उठा कर आपनी स्कंधपर बठा लिया. छत्र चामरादिक राजचिन्ह आपहि प्रगट हुये जिससे वह राजाधिराज बन गया. विद्यापति विचारता है अब मुझ क्या करना चाहिये ? इतनेमे ही देववाणी हुई कि जिनराज की प्रतिनाको राज्यासन पर स्थापन कर उसके नामसे आज्ञा मान कर अपने अंगीकार किए हुये परिग्रह परिमाण व्रतको पालन करते हुये राज्य चलानेमें तुझे कुछ भी दोष न लगेगा. फिर उसने राज्य अंगीकार किया परंतु अपनी तरफसे जीवन पर्यत त्यागवृत्ति पालता रहा. __ अंतमें स्वर्गसुख भोगकर वह पांचवें भवमें मोक्ष जायगा.
* देना सिर रखनेसे लगते हुए .. " दोष पर महीषका दृष्टांत पर · महापुर नगरमें बड़ा धनाढय व्यापारी ऋषभदत्त नामक शेठ परम श्रावक था. वह पर्वके दिन मंदिर गया था. वहां उस वक्त उसकेपास नगद द्रव्य न था, इससे उसने उधार लेकर प्रभावना की. घर आये वाद अपने गृहकार्य की व्यग्रतासे वह द्रव्य न दिया गया. एक दफा नशीन योगसे उसके घर पर डाका पडा उसमें उसका सब धन लुट गया. उस वक्त वह हाथमें हथियार ले लुटेरोके सामने गया. इससे लुटरोने उसे शस्त्रसे मार डाला. शस्त्राधात से आतध्यानमें मृत्यु पाकर उसी नगरमें एक निर्दय और दरिद्री पखालीके घर (सक्के ५) वह भैसा हुवा. वह प्रतिदिन पानी ढोने वगैरेह का काम करता है. वहे गाम बड़े ऊंचे पर था और गांवके समीप नदी नीचे प्रदेशम थी. अब उसे रात दिन नदी से नीचेसे ऊपर पानी
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ढोना पडता था, इससे उसे बड़ा दुःख सहन करना पडता. भूख * प्यास सहन करके शक्तिसे उपरात पानी उठाकर ऊंचे चढते हुए वह पखाली उसे निर्दय होकर मारता है, और वह सर्व कष्ट उसे सहन करना पड़ता है. ऐसे करते हुए बहुतसा समय व्यतीत हुवा. एक समय किसी एक नवीन तैयार हुए मंदिरका किल्ला बंधता था, उस कार्यके लिये पानी लाते समय जाते आते मंदिरकी प्रतिमा देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा, अब उसका मालिक उसे बहुत ही मारता पीटता है तथापि वह पूर्व भव याद आनेस उस मंदिरका दरवाजा न छोडकर वहाही खड़ा हो गया. इससे वहा मदिरके पास खडे हुए उस भैसेंको मारते पीटते देख किसी ज्ञानी साधुने उसके पूर्व भवका समाचार सुनाया इससे उसके पुत्र, पौत्रादिकने वहां आकर पखालीको अपने पिताके जीव भैसेको धन देकर छुडाया, और पूर्व भवका जितना कर्ज था उससे हजार गुना देकर उसे कर्ज मुक्त किया. फिर अनशन आराधकर वह स्वर्गमें गया और अनुकमसे. मोक्ष पदको प्राप्त हुआ. इस लिये अपने सिर कर्ज न रखना चाहिए. विलंब करनेसे ऐसी आपत्तिया आ पडती है.
- पाप रिद्धि पर दृष्टांत ? वसंतपुर नगरमें क्षत्रिय, विप्र, वणिक, और सुनार ये चार जने मित्र थे. वे कही द्रव्य कमानेके लिये परदेश निकले. मागम रात्रि हो जानेसे वे एक जगह जंगलमें ही सो गये, वहां पर एक वृक्षकी शाखामें लटकता हुवा, उन्हें सुवर्ण पुरुष देखनमें आया. ( यह सुवर्ण पुरुष पापिष्ट पुरुषको पाप रिद्धी बन जाता है और धर्मिष्ट पुरुषको धर्म ऋद्धि हो जाता है) उन चारोमेसे एक जनेने पूछा क्या तू अर्थ है ? सुवर्ण पुरुषने कहा " हा! मै अर्थ हुं. परंतु अनर्थकारी हूं" यह वचन सुनकर दुसरे भय भीत हो गये
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(७४) परंतु सुनार बोला कि यद्यपि अनर्थकारी है तथापि अर्थ-द्रव्य तो है न ? इस लिये जरा मुझसे दूर पड. ऐसा कहते ही सुवर्ण पुरुष एकदम नीचे गिर पडा, सुनारने उठकर उस सुवर्ण पुरुषकी अंगुलिया । काट ली और उसे वहा ही जमीनमें गढा खोदकर उसमें दबाकर कहने लगा कि, इस सुवर्ण पुरुषसे अतुल द्रव्य प्राप्त किया जा सकता है, इस लिये यह किसीको न बतलाना. बस इतना कहते ही पहले तीन जनोके मनमें आशाकुर फूटे. सुबह होनेके बाद चारोमेंसे एक दो जनोको पासमे रहे हुये गांवमेंसे खान पान लेने के लिये भेजा. और दो जने वहां ही बैठे रहे. गावमें गये हुवोने विचार किया कि, यदि उन दोनोंको जहर देकर मार डालें तो वह सुवर्ण पुरुष हम दोनोंकोही मिल जाय, यदि ऐसा न करें तो चारोंका हिस्सा होनेसे हमारे हिस्सेका चतुर्थ भाग आयगा. इस लिये हम दोनो मिल कर यदि भोजनमे जहर मिलाकर ले जाय तो ठीक हो. यह विचार करके वे उन दोनोके भोजनमें विष मिलाकर ले आये. इधर वहांपर रहे हुए उन दोनोने विचार किया कि हमें जो यह अतुल धन प्राप्त हुवा है. यदि इसके चार हिरो होगे तो हमे बिलकुल थोडा थोडा ही मिलेगा, इस लिये जो दो जने गावमें गये है उन्हे आते ही मार डाला जाय तो सुवर्ण पुरुष हम दोनोंको ही मिले. इस विचारको निश्चय करके बैठे थे इतनेमें ही गावमें गये हुए दोनो जने उनका भोजन ले कर वापिस आये तब शीघ्र ही वहा दोनी रहे हुए मित्रोने उन्हें शस्त्र द्वारा जानसे मार डाला. फिर उनका लाया हुवा भोजन खानेसे वे दोनो भी मृत्युको प्राप्त हुये. इस प्रकार पाप ऋद्धिके आनेसे पाप बुद्धि ही उत्पन्न होती है अतःपाप बुद्धि उत्पन्न न होने देकर धर्म ऋद्धि ही कर रखना जिससे वह सुख दायक और अविनाशी होती है.
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विविध विषयाक प्रशोत्तर संग्रह 23, 343-3 -- - 3. प्रश्न १ धर्म कितने प्रकार के हैं ? उत्तर गृहस्थ धर्म और यति–साधु धर्म यह दो प्रकार के है.. प्रश्न २ गृहस्थ धर्म किसको कहते है ?
उत्तर--गृह (धर ) वासमें रहकर श्री जिनेश्वर देवोक्त तत्व श्रद्धापूर्वक बन सके, तैसे व्रत, पच्चखाण करे उस्को गृहस्थ धर्म कहा जाता है.
प्रश्न ३ साधु-यतिधर्म किसको कहते है ?
उत्तर--गृहस्थावास त्यागकर पाच महाव्रत अंगिकार करकेरात्रिभाजन त्याग व्रत आदिके लीये सख्त नियम धारन करके गृहस्थोको बोध दना सो साधुधर्म कहा जाता है.
प्रश्न ४ पाच महाव्रत कोनसे है?
उत्तर बिलकुल जीवहिंसा, झूट, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन सबका त्याग यह पांच महान व्रत है.
प्रश्न ५ बिलकुल जीवहिसाका त्याग किस रीतिसे पालना चाहिये ?
उत्तर किसी जीवको राग द्वेषसे नाश करना नहिं, नाश करानेकी सन्मतीभी न दें और जो कोइ शख्स नाश करता हो उसकी अनुमोदना ( अच्छा करता है ! ठीक किया है ! ऐसा कहना) भी मन वचन और कायासे न कर, उस्को अहिंसाधर्म पालन करा कहा जाता है.
प्रश्न ६ विलकुल झूट बोलनेका त्याग किस प्रकारसे पाले ?
उत्तर क्रोध, मान, माया, लोभ, भय या हास्यसें थोडा भी झूट न बोले. .
प्रश्न ७ बिलकुल माल धनीके दिये शिवाय कुछ भी चीज न लेवे
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वह अदत्तादान लेनेका नियम किस रीतिसे पाले ?
उत्तर जिनेश्वर भगवान्की या गुरुजी की आज्ञा विरुद्ध कुछ भी चीज लेवे देवे नहि. अगर उन्होंकी आज्ञा हुए बादभी जो मालधनीकी रजा न मिली हो तो कुच्छमी चीज लेवे देवे नहि. अगर मालधनीकी रजा मिलचूकी हो मगर सचित्त या मिश्र वस्तु हो तो देवे नहि, उस्को अदत्तादान विरमण व्रत पालन किया कहा जाता है.
प्रश्न ८ सर्वथा मैथुन त्याग - ब्रह्मचर्यव्रत किस प्रकारसे पालना ? उत्तर -- देव, मनुष्य और तिर्यच सबंधी विषय क्रीडा बिलकुल त्याग दे, किवा पांचों इद्रियोंके विषयोंको कब्ज करे. आप उन्हों को वश्य न हो, उस्को सर्वथा मैथुन त्याग किया कहा जावे.
प्रश्न ९ सर्वथा परिग्रह त्याग किस तरहसे पालन करे ? उत्तर -- जस्सेि मूर्छा हो तैसी मारे या हलकी ( सचेत अचेत या मिश्र ) वस्तुका संग्रह ही न करें तब बिलकुल परिग्रह परित्याग किया कहा जावे.
प्रश्न १० सर्वथा रात्रि भोजनका त्याग किस प्रकारसे पाले ?
उत्तर -- कोइ भी प्रकारका आहार, सूर्योदय हुए प्रथम या सूर्यास्त हुए बाद न खावे. ( वास्तविक रीति तो यह है कि सूर्यके उदय होने बाद दो घड़ी और सूर्य अरे । पहिलेकी दो घडी भी त्याग देनी योग्य है. नहि तो रात्रि भोजनका भांगा लगता है.
प्रश्न ११ उपर कहे हुए व्रतोंको महाव्रत कहनेका सबब क्या है ? उत्तर. गृहस्थ के अणुत्रतकी अपेक्षासे वो महाव्रत कहे जाते है.. किंवा महान् शूरवीर मनुष्यसे ही सेवन कीये जाते है ( डरपोक - कातरसे सेवन न कीये जावे ) इसी लिये उन्हको महाव्रत कहते है. प्रश्न १२ अणुव्रत किसको कहते है ?
उत्तर
अगु अर्थात् छोटा. मुनिके महान् व्रतों से बहोतही कम
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( ७७ ) ___ अल्प होनसे अणुव्रत कहे जाते है.
प्रश्न १३ गृहस्थके अणुव्रत कोनसे कोनसे है ?
उत्तर---स्थूल (बडी) हिसा, झूठ, चोरी, मैथुनका त्याग और परिग्रहका प्रमाण रखे, वह गृहस्य के पाच अणुव्रत है.
प्रश्न १४ स्थूल हिंसासे छूट जाना वो कैसे ?
उत्तर--निरपराधी, त्रस जीवकी निष्कारण जान बुझके हिंसा न करे, सो स्थूल हिंसासे मुक्त होना कहा जाता है.
प्रश्न १५ स्थूल जूठसे बच जाना सो क्या ?
उत्तर कन्या, पशु, भूमि संबंधी नाहक झूठ बोलना, कोर्ट अदालतमें जाकर जूठी गवाह देना और खोटे दस्तावेज बनाना यह पांच बडे जूठोंसे अलग हो जाना उस्को स्थूल असत्य विरमण व्रत कहते है.
प्रश्न १६ स्थूल अदत्त-चोरीका त्याग व्रत किस तरह है ?
उत्तर----जान बूझकर चोरी करनी, या चोरीका माल खरीदना, पिराया माल हजम कर जाना, विश्वासघात करना, अच्छी बूरी
चीजोंको एकत्र मिलाना और जकात-दाणचोरी करना. मतलब जिसे राजदंडका भय प्राप्त होय सोही चोरी कही जाती है. यह उक्त कथित पाच भेद अदत्तका त्याग करे.
प्रश्न १७ स्थूल मैथुन त्याग किसको कहते है ?
उत्तर परस्त्री, वेश्या, विधवा, या बालकुमारी इन्होंके साथ. अत्याचार-संभोग करनेका बिलकुल त्याग करके अपनी विवाहिता स्त्री संतोष करे. ( स्त्री अपने पति संतोष करें ). तो स्थूल मैथुन - त्याग व्रत कहा जाता है.
प्रश्न १८ परिग्रह प्रमाण किरकों कहा जाता है ? उत्तर--धन, धान्य वगैरेः नव प्रकार के परिग्रह का प्रमाण अर्थात्
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(७८) 'इतनेसे ज्यादा मेरे स्वभोगार्थ न चाहिये' ऐसा नियम रखे और प्रमाणसे ज्यादा हो सो शुभ धर्म मार्गमें व्यय कर देवे, उस्को परिग्रह प्रमाण व्रत कहते हे. __ प्रश्न १९ यह पांच अणुव्रतके शिवाय गृहस्थको दूसरे कोनसे व्रत होते है ?
उत्तर तीन गुणत्रत और चार शिक्षाव्रत यह मिलकर बारह व्रत होत है.
प्रश्न २० तीन गुणव्रत कोनसे कोनसे है ?
उत्तर दिशा (जाने आनेका ) प्रमाण, भोगोपभोग, और अनर्थ दंड यह तीन गुणव्रत संज्ञा धारक है !
प्रश्न २१ दिशा प्रमाण व्रत किस्को कहते है ? ___उत्तर--पूर्व, पश्चिम उत्तर दक्षिण यह चार दिशा और ईशान, वायव्य, नत्य, अग्निय यह चार विदिशा, और उपर नीचे जाने आनेका संबंध धर्म कार्य शिवाय अपने कार्य निमित्त जाने . आनेका प्रमाण प्रतिबंध रखे उनको दिशा प्रमाण कहते है, प्रश्न २२ भोगोपभोग विरमण व्रत किसको कहते है ? ।
उत्तर , पंद्रह कर्मादान महापाप व्यापारका त्याग करे, और चौदह नियम धारण कर उस्को भोगोपभोग विरमणव्रत कहते है.
प्रश्न २३ अनर्थ दंड विरमण किरको कहते है ?
उत्तर-- पाप कार्यके साधनभूत-कुल्हारा, हल, मूशल, चक्की वगैरेः तैयार करके दूसरेको न देवे, पापका उपदेश न देव, आतरोद्रध्यान न ध्यावे, नाटक पटक-खेल तमासे भांडोकी नकल वेश्याओंका नाच न देखें, और हिंसक-मासाहारी जीवोका व्यापार अर्थ न पोषण करे अर्थात् पापी जीवोंको न पाले उस्को अनर्थदंड
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(७९) विरमण व्रत कहते है.
प्रश्न २४ चार शिक्षावत कोनसे कोनसे है ?
उत्तर सामायिक, दिशावगसिक, पौषध और अतिथि सांवभाग यह चार शिक्षाव्रत कहे जाते है.
प्रश्न २५ सामायिक व्रत किस्को कहते हैं ?
उत्तर-- संकल्प निश्चयपूर्वक समताभावमें पाप व्यापारको त्याग कर जघन्य दो घडी और उत्कृष्ट जीवन पर्यंत कायम रहे उस्को सामायिक व्रत कहते है.
प्रश्न २६ दिगावगासिक व्रत किस्को कहते है ? .
उत्तर-- छ8 व्रतम धारण की हुइ दिशाओंका संक्षेप करना और मर्यादामें रहकर धर्मध्यान सेवन करना उसीको दिशावगासिक व्रत कहते है.
प्रश्न २७ पौषध व्रत किस्को कहा जाता है ?
उत्तर-- जीस्से धर्मकी पुष्टि-वृद्धि हो वह पौषधके चार प्रकार है. १ आहार पोषह, उपवास अयंबिल बगैरे २ शरीरसत्कार त्याग पोषह ३ ब्रह्मचर्य पोषह और ४ पाप व्यापार परिहार करनेरुप पोषह. यह चार भेद है सो उपयोगमें लेवे उस्को पौषधव्रत कहा जाता है.
प्रश्न २८ आथिति संविभाग व्रत सो क्या ?
उत्तर--अतिथि याने अणगार साधुजी उन्होको आहार पाणी व्होराकर सुपात्र दान देकर भोजन करे सो अतिथि संविभाग व्रत कहा जाता है.
प्रश्न २९ दुनियामें कौनसी बाबत रात दिन सदा चिंतन करने योग्य है ?
उत्तर-- संसारकी असारता--अनित्यता निरंतर चितवन करने
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(८०) योग्य है परंतु महा मोहको उत्पन्न करनेवाली प्रमदा स्त्री चितवन करने योग्य नहि है. तिस्के रंग रूपसे जित होना नहि, लेकिन तिस्को विकार कारिणी जानकर त्याग देनी योग्य है. ___ प्रश्न ३० कौनसी कौनसी वावते विशेष प्रिय वल्लभ गिनकर आदरनी चाहिये ?
उत्तर--- करुणा, दुःखी जीवोपर अनुकंपा, दाक्षिण्यता और सब जीवोंके उपर समान भाव गैत्रीभाव याने "आत्मवत् सर्व भूतेषु " ऐसी बुद्धि रखना चाहिये.
प्रश्न ३१ प्राणांत कट आ जानेपरभी किस किसके वश्य नहि होना ?
उत्तर--- मूर्ख ( अज्ञानी-अविवेकी), दीनता, गर्व और कृतम वश नहि होना,
प्रश्न३२ जगत्में पूजने योग्य कौन है ?
उत्तर-- सदाचारी, शुद्ध व्रतधारी-निर्मल चारित्रवंत जन पूजने योग्य है.
प्रश्न ३३ जगत्में कमनसीब कौन है ?
उत्तर-- मन्नवती-भन्न परिणामी-खंडित शीलपाला बेशक कम नसीवदार है. ____ प्रश्न ३४ जगत्में कौन वश कर शकता है ? जन प्रिय कौन
हो शकता है? __ उत्तर - हित मित ( सत्य ) भाषी और सहनशील क्षमावत हो सो जगत्मान्य और प्रितिपात्र हो सकता है.
प्रश्न ३५ देव भी कैसे मनुष्यको नम्रतासे नमन करते है ? ____उत्तर--- दया प्राधान्य-जिनके हृदयमें उत्तम दयाधर्म स्थित हो तिनको देव भी नमन करते है.
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गुजराती भाषानो विभाग. WWXWW.222 WWW HX
वैराग्यसार ने उपदेश रहस्य. (१) जे पराइ निंदा विकथा करवामां मुंगो छे, परस्त्रीमुख जोवामां आंधळो छे, अने परायु धन हरपामा पांगळो छे, तेवो महापुरुषज जगमा जयवंतो वर्ते छ. परनिंदा, परस्त्रीमा रति अने परद्रव्य हरण महा निंद्य छे.
(२) जे आक्रोश भरेला वचनोथी दूमातो नथी अने खुशामतथी खुशी थइ जतो नथी, जे दुर्गन्धथी दुगंछा करतो नथी. अने खुशबोथी राजी थइ जतो नथी, जे स्त्रीना रुपमा रति धारतो नथी. अने मृतश्वानथी सूग लावतो नथी, एवो समभावी उदासी योगीश्वरज सर्वत्र सुख समाधिमा रहे छे.
(३ ) जेने शत्रु अने मित्र बने समान छे, जने भोगनी लालसा तूटी गई छे, अने तपश्चर्यामां जेने खेद थतो नथी, जेने पथ्थर अने, सवर्ण ( रत्नादिक ) बंने समान छे, एवा शुद्ध हृदयवाळा समभावी . योगीजनोज खरा योगधारी छे.
(४) कुरंगनी जेवा चंचळ नेत्रवाळी अने काळा नागनी जेवा कुटिल केशने धारवावाळी कामिनीना राग पाशमा जे नथी पडी जाता तेज खरा शूरवीर छे.
(५) स्त्रीना मध्यमा कृशता, भृकुटीमां वक्रता, केशमा कुटीलता, होठमा रक्तता, गतिमा मंदता, स्तनभागमा कठीनता, अने चक्षमा चचळता स्पष्ट जोइने फक्त कामाकुल मंदमति जनोज वैराग्यने
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(८२) भजता नथी. सुविवेकी जनाने तो ते वैराग्यनी वृद्धि माटेज थाय छे.
(६) स्त्रीयो कपट करि गद्गद् वाणीथी बोले छे, तेने कामांधजनो प्रेमक्ति तरीके लेखे छे. विवेकी हंसो तेथीं ठगाइ जता नथी.
(७) ज्यां सुधी आहारनी लोलुपता तजी नथी, सिद्धांतना अर्थरुपी महौषधिनुं सम्यग् सेवन कर्यु नथी, अने अध्यात्म अमृतन विधिवत् पान कयु नथी, त्या सुधी विषय ज्वरनु जोर जोइ५ तेवू चतुं नथी. विषय तापनी शांति भाटे रसलौल्पना त्याग पूर्वक सिद्धांतसार चूर्ण तथा तत्वामृतनुं सभ्यम् सेवन करवुज जोइए.
(८) भारयौवन वयमा कामने जय करनार धन्य धन्य छे.
(९) जेणे जाणी जोइने कामिनीने तजी छे, अने संयमश्रीने सेवी छे, एवा सुविवेकी साधुने कुपित थयेलो पण काम कई करी शकतो नथी.
(१०) प्रियाने देखताज कामज्वरनी परवशताथी संयम-सत्त्व क्षीण थइ जाय छे, पण नरकगतिना विपाक सामरताज तत्त्वविचार प्रगट थवाथी गमे तेवी व्हाली वल्लभा पण विष जेवी भासे छे.
(११) जेमणे यौवन वयमा पवित्र धर्म धुराने धारी महाव्रतो अंगीकार कर्या छे, तेवा भाग्यशाली भन्योथीज आ पृथ्वी पावन थयेली छे.
(१२) कामदेवना बंधुभूत वसंतने पामीने स वनराजी पण विविध वर्णवाळी माजरना मिषथी रोमांचित थयेली लागे छे, तमा सिद्धांतना सारनुं सतत सेवन करवाथी, जेमनु मन विषय तापथी लगारे तप्त थतुं नथी, एवा संत सुसाधु जनीनेज धन्य छे. . (१३ ) स्वाध्यायरुपी उत्तम संगीत युक्त, संतोषरुपी श्रेष्ठ पुष्पथी मंडित, सम्यग् ज्ञान विलासरुपी उत्तम मंडपमा रही शुभ ध्यान शय्याने सेवी, तत्त्वार्थ बोधरुपी दीपकने प्रगटी अने समता
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(८३)
__ रुपी श्रेष्ट स्त्रीनी साथे रमण करी केवळ निवीण सुखना अभिलाषी महाशयोज रात्रीने समाधिमा गाळे छे.
(१४ ) शुद्ध ध्यानरुपी महा रसायणमां जनुं मन मग्न थयु छे, तेने कामिनीना कटाक्ष वगेरे विविध हावभावो शु करनार छे ?
(१५) सम्यग् ज्ञानरुपी जेना उंड। मू छे, समकितरुपी जेनी मजबूत शाखा छे, एवा व्रत-वृक्षने जणे श्रद्धाजळथी सिच्यु छेतेने अवश्य मोक्ष आपे छे. स्वर्गादिकना सुख तो पुष्पादिकनी पेरे प्रासंगिक छे, तेतो सहजमां प्राप्त थइ शके छे.
(१६) क्रोधादिक उग्र कषायरुपी चार चरणवाळो. व्यामोहरूपी सुंढवाळो, राग द्वेषरुपी तीक्ष्ण दीर्च दांतवाळो, अने दुरि कामथी मदोन्मत्त थयेलो, महा मिथ्यात्वरुपी दुष्ट गजने सम्यग ज्ञान-अंकूशना प्रभावथी जेणे वश कर्यो छे, ते महानुभावेज त्रणे लोकने स्ववश कर्या छ एम जाणवू.
(१७) यशकीर्तिने माटे पोतानुं सर्वस्व आपी दे एवा, अने पोताना स्वामीने माटे प्राण पण आपी दे एवा, बहु जनो मळी आवशे, पण शत्रु मित्र उपर जेमनु मन समरस ( सरखं ) वर्ते छे एवा तो कोई विरलाज देखाय छे.
(१८) जेर्नु हृदय दया छे, वचन सत्यभूषित छ, अने काया परमार्थ साधनारी छे, एका विवेकवानने कळिकाळ शु करी शकवानो छ ?
(१९) जे कदापि असत्य बोलतोज नथी, जे रणसंग्राममां पाछी पानी करतो नथी, अने याचकोनो अनादर करतो नथी, तेवा रत्नपुरुषथीज आ पृथ्वी रत्नवती कहेवाय छे. केमके कहेवाय छे के–'बहुना वसुंधरा.'
(२०) सर्व आशारुपी वृक्षने कापवा कुवाडा जेवो काळ, जो
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सर्वनी पाछळ पडयो न होत तो विविध प्रकारना विषय सुखथी कोइ कदापि विरक्त थातज नहिं.
(२१) जगतनी कल्पित मायामा फसाइ जीवो ममताथी मार मारुं कर्या करे छे, पण मूढताथी समीपवती कोपला कृतांत-काळन देखी शकता नथी. नहिं तो जगतनी मिथ्या मोह मायामां अंजाइ जइ मारुं भारं करीने तेओ केम मरे ?
(२२) छती साम्रग्रीनो सदुपयोग करपामा पेदरकार रहे नारने काळ समीप आव्ये छते मनमा खेद थाय छे के हाय ! में स्वाधीनपणे कांइ पण आत्म साधन न कयु, हवे पराधीन पडेलो हुं हुं करी
शकुं ? प्रथमथीज सावधानपणे सत् सामग्रीने सफ: करी जाणनारने पाथी खेद करवो पडतोज नथी.
( २३ ) प्रथम प्रभादवडे तप जप व्रत पचखाण नहि करनार कायर माणस पछि थी व्यर्थ मात्र देवनेज दोप दे छे. खरो दोष तो पोतानोज छे के पोते छती सामग्रीए सवेळा त्यो नहिं.
(२४ ) वाळ शीघ्र योवन क्यन प्राप्त करतो अने जुवान जरा अवस्थाने प्राप्त थतो अने ते पण काळने वश थयो छतो, १४ नष्ट थयो देखाय छ; एवा प्रत्यक्ष कौतुकवाळा बनाव देख्या वाद बीजा इंद्रजार्नु शु प्रयोजन छे ? आ संसारज अनेक पात्रयुक्त विचित्र नाटकरुपज छे.
(२५) कर्मन विचित्रपणुं तो जूवो ? के मोटा राजाधिराज पण दुर्दैव योगे भीख मागतो देखाय छ; अने एक पामर भीखारी जेयो मोटुं साम्राज्य सुख पामे छे. ए पूर्वकृत कर्मनोज महिमा छे.
(२६) परलोक जतां प्राणीने पुत्रादिक संतती'तेमज लक्ष्मी विगेरे,कामे आवतां नथी. फक्त पुण्यने पापज तेनी साथे जाय छे.
(२७ ) मोहना मदथी मानवी मनमां धारे छे के, धर्म तो
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आगळ कराशे, पण विकराळ का अचानक आवीन ते बापडानो कोळीयो करी जाय छे. पवित्र धर्मर्नु अराधन करवामां प्रमाद सेवनार खरेखर ठगाइ जाय छे; माटेज कयुं छे के काले कर होय ते आजे कर अने आज कर होय ते अवघडीए कर.'. केमके कालने काळनो भय छे. : (२८ ) रावण जेवा राजपी, हनुमान जेवा वीर अने रामचंद्र जेवा न्यायीनो पण काळ कोळीयो करी गयो तो बीजानुं तो कहेबुज ? आथीज का सर्वभक्षी कहेवाय छे, ए वात सत्य छे.
(२९ ) सुकृत या सदाचरण विना मायामय बंधनोथी बंधायेला संसारी जीवोनी मुक्ति-मोक्ष शी रीते थइ शके वारु ? . (३०) आ मनुष्य जन्मरुपी चिंतामणी रत्न पामीने, जे गफलत करे छे, ते तेने गुमावीने पछिळथी पस्तावो करे छे. काम क्रोध, कुबोध, मत्सर, कुबुद्धि अने मोह मायावडे जीवो स्वजन्मने निष्क करी नाखे छे.
(३१) आ मनुष्य देहादिक शुभ सामग्रीनो सदुपयोग करपाथी निर्वाण सुख स्वाधीन थइ शके तेम छता, रागाध बनी जीव मोहमायामां मुंझाइ मूढनी जेम कोटी मूल्यवाळु रत्न आपी कागणी खरीदे छे.
(३२) भयंकर नादिकनो मोटो डर न होत तो कोई कदापि पापना त्याग करी शकत नहि अने सद्गुणनो मार्ग सेवी शकत नहि.
(३३ ) जेणे निर्मल शीळ पाण्यु नथी, शुभ पात्रमा दान दीधुं नथी अने सद्गुरुनु वचन सामळीने आदथु नथी, तेनो दुर्लभ मानव भव अलेखे गयो जाणवो. ,
(३४) संयोगर्नु सुख क्षणीक छे; देह व्यधिग्रस्त छे अने भयंकर का नजदीक आवतो जाय छे; तोपण चिंत्त पाप कर्मथी विरक्त कम थतुं नथी ? अथवा संसारनी मायाज़ विलक्षण :छे, ..
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(३५) आ संसार चक्रमा जीव अनंतशः जन्म मरणना असह्य दुःख सह्यां छतां हजी तेथी मन उद्विग्न थतुं नथी, अने पाप क्रियामां तो ते अहोनिश मग्नज रहे छे.
(३६) अहो आकेला सांढनी परे चित्त स्वेच्छा मुजब निंद्य मार्गमा भन्या कर छे; पण चारित्र धर्मनी धुराने अने महाव्रतना भारने वहन करतुं नथी ! आज आत्मानी संसार चक्रमां बहु प्रकारे खराबी थाय छे.
(३७) पूर्व पुण्ययोगे अनुकूल सामग्री मन्या छतां प्रमादना पशथी जीव कंइ पण आत्मसाधन करी शकतो नथी, तेज तेने संसारचक्रमा पुनः पुनः मम पड़े छे.
(३८) जेणे संसार संबंधी सर्व दुःखनां मूळ कारणभूत क्रोध मान, माया अने लोभरूपी चारे कषायोने हठाववा प्रयत्न कयों नथी, ते बापडाए हाथमां आवेलु मनुष्यजन्मरूपी कल्पवृक्षनु अमृत 40 वारस्युज नथी.
(३९) बाल्यवय क्रीडा मात्रमा, योवनवय विषयमागमा अने वृद्ध अवस्था विविध व्याधिना दुःखमा हारी जनारने सुकृतना अभाव परलोकमां कई पण सुख साधन मळी शकतुं नथी.
(४०) जे द्रव्यना लोभथी जीव अनेक आकरा जोखममा उतरे छे, ते द्रव्यर्नु अस्थिरपणुं विचारीने संतोष वृत्ति धारवी उचित छे.
(११) आ मनमर्कट मोह मैदिराना मदथी मत्त बन्यु छतु, अनेक प्रकारनी कुचेष्टा करवा तत्पर रहे छ; सत् समागमरूपी अमृत सिंचन विना मननु ठेकाणुं पडवू महा मुश्केल छ, सद्बोधथी केवाइने लांबा अभ्यासे ते पांसरु थाय छे.
(४२)निर्मळ शीलवतधारी श्रावकने, परस्त्रीथी अने उत्तम चारित्रधारी साधुजनने सर्व स्त्रीथी निरंतर पेतता रहेवानी खास
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(८७) जरूर छे. प्रमादथी घणा पतित थइने पायमाल थइ गया छे.
(४३) जो विषयमोगमां नित्य जतुं मन रोकवामां आव्यु नहिं तो; भस्म चोळपाथी, धूम्रपान करवाथी, वस्त्र त्यागथी, तेमज अनेक बीजां कष्ट सहन करवाथी, के जपमाळा फेरववाथी शुं वळपानुं हतुं ?
(४४) अमृत जेवा मधुर वचनथी खळ पुरुषोने जे सन्मार्गमा जोडवा इच्छे छे, ते मघना बींदुथी खारा समुद्रने मीठो करवा पांछे छ; अने निर्मळ जळथी कोयलांने साफ करवा मागे छे, जे बनवू केवळ अशक्य छे.
(४५) कुमतिने सर्वथा तिलांजली दइने, सुमतिनो सर्वदा आदर करनार महामति दुर्गतिने दळीने सद्गतिनो भागी थइ शके छे. ___ (४६) कमळना पत्र उपर रहेला जळबिंदु समान जीवितने चंचळ लेखीने, विविध विषय भोगथी विरमीने, मोक्षार्थी जीवे दान शील तप अने भावना रुपी पवित्र धर्म, सेवन करज उचित छे.
(४७) सर्व संयोगिक भावोने क्षणविनाशी समजीने, गुरुकृपायी शीघ्र स्वहित साधी लेवा बनतो श्रम करवो विवेकीने उचित छे.
(४८) जेमणे दुर्जननी संगति करी तेणे धर्म साधननी आ अपूर्व तक खोइ छे; एम निश्चयथी समजवु. दुर्जन द्विजिव्हा सर्पनी जेवाज झरीला होवाथी सामान पण विक्रिया उपजावे छे.
(४९ ) जो परमात्मामां पूर्ण प्रेम जाग्यो नहिं यातो संपूर्ण गुणानुराग जाग्यो नहिं, तो विविध शास्त्र परिश्रम मात्रथी शु वळ्युं ?
(५०) मिथ्याडबस्थी जीव परिणामे भारे दुःखी थाय छे. मिथ्या दमामथी जीव उधुं वेतरवा जाय छे, जेमा निश्चे हानिज पामे छे. एवो दभ निश्चे दूर्गतिनुज मूळ छे. माटे सर्व प्रकारे कपटवृत्ति तजीने सरल भावज धारण करवो मोक्षार्थीने युक्त छे. दंभ युक्त सर्व
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कष्ट करणी मिथ्या थाय छे, निर्मळ ज्ञान वैराग्य योगेज दंभनी दु४ घाटी उल्लंघी शकाय छे.
(५१) हे हृदय ! करुणा समान बीजो कोइ अमृतरस नथी, परद्रोह समान बनुं हालाहल झेर नथी, सदाचरण समान बीजो कल्पवृक्ष नथी, क्रोध समान कोई दावानळ नथी, संतोष उपरांत कोइ प्रिय मित्र नथी, अने लोभ समान कोइ शत्रु नथी. आमाथी युक्तायुक्त विचारीने तुजने रुचे ते आदर ! हितकारी मार्गज आदवो ए सद्विवेक पाम्यानुं सार छे.
( ५२ ) हे भाइ जो तुं निर्वाण सुखने वांछतो होय तो परम शान्तिरुपी प्रियानो आदर कर; केमके तेणी शील, श्रद्धा, ध्यान, विवेक, कारुण्य औचित्य, सद्बोध अने सदाचरणादिक अनेक गुण रत्नोथी अलंकृत छे. क्षान्ति - क्षमानुं सम्यग् सेवन कर्या विना कोइ कदापि मोक्षपद पामी शकेज नहिं .
( ५३ ) जे रागद्वेष अने मोहादिक दुष्ट दोषोथी सर्वथा मुक्त थइ, परमात्मपदने प्राप्त थया छे, अने जेमनुं वचन सर्व विरोधरहित छे, जे जगत् त्रयना निष्कारण बंधु छे, एवा प्ररम कारुणिक सर्वज्ञ पुरुषज शरण करवा योग्य छे. एवा आप्त पुरुषना वचन अनुसारे वदनारा सत्पुरुषो पण मोक्षार्थी सज्जनोए सावधानपणे सेवन करवा योग्यज छे..
( ५४ ) ज्यां सुधी सुकृतवडें करेलो पूण्यनो संचय होचे छे, त्या सुधीज सर्व प्रकारनी अनुकूल सुख सामग्री मळी आवे छे, एम समजीने शुभ धर्मकरणी करवा मन सदोदित रहे तेम प्रमादरहित वर्तं .
(५५) ज्यां सुधी दुष्कृत - करेलो पाप संचय व्होचेछे त्या सुधीज સર્વ પ્રારની પ્રતિષ્ઠવાળાં જારળ મઝાઁ આવે છે, મ સમીને पूर्व पापनो क्षय करवा उदित दुःखने समभावे सहन करवा पूर्वक
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(८९) नवा पाप कर्मथी सदा निवतीने शुभ धर्मकरणी करपा सदा सावधान रहेवू युक्त छे.
(५६) जेमणे आ अमूल्य मनुप्य जन्म पामीने प्रमादन परवश थइ धमे आराध्यो नहि, तेमज छते धने कृपणताथी तेना सदुपयोग कयों नहि, एवा विवक विकळने मोक्षनी प्राप्ति दूरज छे.
(५७) आकाश मध्ये पण कदाच पर्वतशिला मंत्रतंत्रना योगे कदाच लाबो काळ लटकी रहे, दैव अनुकूळ होय तो बे हाथना बळे समुद्र पण तराय अने घोळे दहाडे पण कदाच ग्रह योगथी आकागमा स्फुट रीते ताराओ देखाय परंतु हिसाथी कोइनु कदापि कई पण कल्याण संभवतुंज नथी.
(५८ ) जेम ज्योतिश्चक रात्री अने दिवस- मंडन छे, तेम अखंड शील सीओ अने यतिओन खरेख भूषण छे.
(५९) मायावडे वेश्या, शीलवडे कुल बालिका, न्यायवडे पृथ्वीपती, अने सदाचारवडे यति महात्मा शोभे छे.
(६०) ज्या सुधीमा शरीर व्याधिग्रस्त थइ न जाय, ज्या सुधीमां जरा अवस्थाथी देह जर्जरित थइ न जाय, अने ज्या सुधीमा इद्रियोन वळ घटी न जाय, त्या सुधीमा स्वस्वशक्ति अने योग्यता मुजब पवित्र धर्मनु सेवन करवु युक्त छे, सद् उद्यमथी सकळ कार्यनी सिद्धि थाय छ; अने प्रमदाचरणथी सक कार्यने हानि होचे छे.
(६१ ) मद्य ( Intoxication) विषय ( Evil propensities) कषाय ( Wrath etc ) निद्रा ( Idleness ) अने किकथाकपोल कथारूप पाच प्रकारना प्रमाद जीवोने दुरत व्यथामा पाडे छे.
(६२) जगत्गुरु जिनेश्वर प्रभुना पवित्र वचन- उल्लंघन करी ने स्वच्छद वतन चलावq एज प्रमाद्नु व्यापक लक्षण छे. . (६३ ) एवा प्रमादना जोरथी चौद पूर्वधर समान समर्थ
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पुरुषो पण सत्य चारित्र धर्मथी चलायमान थइ पतित थइ गया छे. तो बीजा अल्पज्ञ अने ओछ । सामर्थ्य वाळा ओनुं तो कहेवुज शुं ?
( ६४ ) थोडुं ऋण, थोडु व्रण ( चांदु ) थोडो अनि अने थोडा कषायनो पण कदापि विश्वास करवो नहि. केमके ते सर्व थोडामांथी वधीने मोटु भयंकर रूप धारण करे छे.
( ६५ ) ज्या सुधी क्रोधादि चारे कषायोनो सर्वथा क्षय थाय नहिं, थोडो पण कषाय शेष रह्यो त्या सुधी तेनो विश्वास करवो नहिं. थोडा पण अवशिष्ठ रहेला कषायनी उपेक्षा करवायी क्वचित् भारे विषम परीणाम आवे छे, माटे तेमनो सर्वथा क्षय करवा सतत् प्रयत्न करवो युक्त छे.
( ६६ ) ज्ञानी पुरुषो क्रोधादिक चारे कषायने चंडाळचोकडी तरीके ओळखावे छे. अने तेनाथी सर्वथा अळगा रहेवा आग्रह करे छे.
( ६७ ) राग अने द्वेष ए बने क्रोधादिक चारे कषायनुं परिणाम छे, अथवा तो राग अने द्वेषयी उक्त क्रोधादि चारे कषायनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे. एम समजीने रागद्वेषनोज अंत करवा उजमाळ थवुं युक्त छे. ते बनेनो अंत थये पूर्वोक्त चारे कषायनो स्वत: अंत थइ जाय छे.
( ६८ ) रागद्वेष ए बने मोहथकी प्रभवे छे, तेथी ते बने मोहनाज पुत्र तरीके ओळखाय छे, रागने केसरी सिंह जेवो बळवान कह्यो छे अने द्वेषने मदोन्मत हाथी जेवो मस्त मान्यो छे. तेथी तेमनो जय करवा ज्ञानी पुरुषो मोटा सामर्थ्यनी जरुर जोवे छे.
( ६९ ) राग अने द्वेष केवळ मोहनाज विकारभूत होवाथी, ज्ञानी पुरुषो मोहनेज मारवानुं निशान ताके छे. मोह सर्व कर्ममा अग्रेसर छे
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( ७० ) मोहनो क्षय थये छते शेष सर्व परिवार पण स्वतः क्षय
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( ९१ ) थाय छे. पण तेनी प्रबळता पडे सर्व शेष परिवारनुं पण प्रावल्य वधतुं जाय छे. दुनीयामां बळवानमां बळवान शत्रु मोहज छे.
(७१ ) काम, क्रोध, मद मत्सरादिक सर्व मोहनाज परिवार छे, ___ एम समजीने मोह क्षयाथींए ते सर्वथी चेतता रहेपानी खास जरुर छे.
(७२) हुं अने माहरु एका गुप्त मंत्रथी मोहे जगतने आधळ करी नांव्यु छे. अर्थात् ममताथीज मोहनी वृद्धि थती जाय छे. ' (७३-) नहिं हु अने नहि मारु ए मोहनेज मास्वानो गुप्त मत्र छे. अर्थात् निर्मलताज मोहने मारवा प्रबळ साधन छे.
(७४ ) आत्मानुं शुद्ध स्वरूप समजवाथी तेमज परभावने बरापर पाछानवाथी मोहन जोर पातळ पडे छे.
(७५ ) स्फटिक रत्नोनी जे निर्मल आत्मानुं स्वरूप छे; छता कर्मकलकथी ते मलीनताने पामेलं होवाथी, जीव तेमां मुग्धताथी मुझाय छे.
(७६ ) कर्मकलंक दूर थथे छते जेवु ने ते, निर्मल आत्म स्वरूप प्रगटे छे, त्यारे आत्माने तेनो साक्षात् अनुभव थाय छे.
(७७) कर्मकलंकने दूर करवा माटे सर्वज्ञ प्रभुए सभ्यम् ज्ञान दर्शन अने चारित्ररुपी श्रेष्ट साधन बतावेलुं छे.
(७८ ) एज साधनधी पूर्वे अनेक महाशयोए आत्म शुद्धि करी छे, वर्तमान काळे साक्षात करे छे, अने आगामी काळे करशे एम समजीने उक्त साधनमा दृढतर उधम करखो युक्त छे.
(७९ ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य अने उपयोगएज आत्मानुं अनन्य लक्षण छे, एथी भिन्न विपरीत लक्षण अजीव जडनुज छे.
(८०) स्व लक्षणाकित सद्गुणोमां रमण कर, ते स्वभाव रमण कहेवाय छे, अने तेथी विपरीत दोषोमा विभाव प्रवृत्ति कहे-- वाय छे. मोक्षार्थीए विभाव प्रवृत्तीने तजी स्वभाव रमणज कर
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( ९२) उचित छे; एम करवाथी आत्मानुं शुद्ध स्वरुप प्रगट थाय छे.
(८१ ) सम्यम् ज्ञान, दर्शन, अने चारित्ररुपी रत्नत्रयीन संसेवन करवाथी जेमने अनंत ज्ञान, अनत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत-वीर्यरुपी अनंत चतुष्टयी प्राप्त थयेल छे; एवा परमात्मपद प्रात महापुरुषोज मोक्षार्थीओए ध्यावा योग्य छे.
(८२ ) एवा परमात्मानु ध्यान करवाथी मन स्थिर थाय छे, इंद्रियो अने कषायनो जय थाय छ, अने शात रसनी पुष्टिथी आत्मा पातज परमात्मपदनो अधिकारी थाय छे, घनधाति कर्मनो क्षय थताज पोते परमात्म रुप थाय छे, माटे मोक्षार्थी जनोए एवाज परमात्म प्रभुनु ध्यान कर के जेथी अंते पोते पण तद्पज थाय.
( ८३ ) एवा परमात्मपद प्राप्त पुरुषो पण अवशिष्ट अघाति कर्म क्षय यता सुधी तो शरीरधारीज होय छे पण संपूर्ण कर्मथी मुक्त थये छते तेओ शरीरमुक्त-अशरीरी पूर्ण सिद्ध अवस्थाने प्राप्त थाय छे अने एकज समयमा सर्वथा सर्वबंधनमुक्त छता लोकना अग्र भागे जइ अक्षय स्थितिने मजे छे.
(८४ ) त्यां तेओ अनंत ज्ञानादिक स्वरुप स्वभावमां स्थित छता परमानंदमां मना रहे छे; जन्म मरणादिक सर्व बंधनथी सर्वथा मुक्तज रहे छे. एवा सिद्ध परमात्मा पण अनंत छे.
(८५) एवा सिद्ध भगवानना सद्गुणोनुं अनुकरण करीने जे तेम अभेदपणे ध्यान करे छे ते स्फीताशयो पण तेवीज स्थितिने अंत भजे छे. (८६) एवा भावी सिद्ध पुरुषो पण अनंत छे.
(८७) उत्तम प्रकारना आचार विचारमा कुशलपणे पोते प्रवतता छतां अन्य मोक्षार्थी वर्गने प्रवर्तावनारा आचार्य महाराजा, पवित्र अंग उपांगरुप आगम सिद्धातने संपूर्ण जाणीने अन्य विनीत
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(९३)
वर्गने परमार्थ भावे पढावनारा : उपाध्याय महाराजा, तथा पवित्र रत्नत्रयीना पालन पूर्वक अन्य आत्मार्थी जनोने यथाशक्ति आलंबन आपनारा मुनिराज महाराजा, सर्वोत्तम लोकोत्तर मार्गना सेवनथी पूर्वोक्त परमात्म पदना पूर्ण अधिकारी होवाथी अनुक्रमे परमात्मपद पामीने संपूर्ण सिद्धरू५ थाय छे.
(८८ ) जेओ संसारीक सुख संयोगोनी अनित्यता विचारीने ससारना सर्व संबंधथी विरक्त थइ, उदासीन भाव धारण करी. परमात्म पंथने अनुसरवा कटिबद्ध थइ, स्व स्वभावमा, स्थित थइ, सिद्ध, परमात्माने अभेद भावे ध्यावे छे तेओ सर्व दुःखबंधनने छेदीने निश्चे सिद्ध दशाने प्राप्त थाय छे.
( ८९ ) एवा महा पुरुषोनो समागम मोक्षार्थी जीवोने परम आशीर्वादरूप छे एम समजीने सर्व प्रमाद तजी सत्समागमनो बनतो लाभ लेवा चूकवू नहिं, एवा सत्समागमथी क्षण वारमा अपूर्व लाभ संपादन थाय छे.
(९० ) जेमनु मन सत्समागम बडे ज्ञान वैराग्यमां तरबोळ रहे छे तेमनुं सुख तेओज जाणे छे. प्रियाना आलिगनथी के चंदनना रसथी जेवी शीतळता वळती नथी एवी शीतळता वैराग्य रसनी ल्हेरीयोथी प्रभवे छे जेम वैराग्य रसनी वृद्धि थाय तेम प्रयत्न करयो जरुरनो छे.
(९१) वैराग्य रसथी अनादि काळनो रागादिकनो ताप उपशमे छे, तृष्णा शात थाय छे अने ममत्वभाव दूर थाय छे, यावत मोहन जोर नरम पडे छे अने चारित्रमार्गनी पुष्टि थाय छे.
(९२) वैराग्य रसनी अभिवृद्धिथी एपी तो उत्तम उदासीन दशा छाय जाय छे के तथी सर्वत्र समानभाव वर्ते छे. निंदा रतुतिमा तेमज शत्रु-मित्रमा समपणुं आववाथी हर्ष शोक थता नथी.
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(९४) अनुकळ के प्रतिकुल सर्व संयोगोमां समचित्त पणु आवे छे तेथी स्वभावनी शुद्धि विशेष थाय छे.
(९३ ) वैराग्यनी वृद्धिथी संसारवास कारागृह जेवो भासे छे अने तेथी विरक्त थइ पारमार्थीक सुख माटे यत्न करवा मन दोराय छे.
(९४ ) शात रसनी पुष्टि थता द्रव्य अने भाव करुणानी वृद्धि थाय छे अने शांत रसना समुद्र एवा वीतराग प्रमुनी वचन उपर पूर्ण प्रतीति आवे छे जेथी गमे तेवी कसोटीना वखते पण सत्य मार्गथी चलायमान थवातुं नथी.
(९५ ) प्रशम रसनी पुष्टि थवाथी अपराधी जीवन मनथी पण प्रतिकूळ-अहित चितवन करातुं नथी आवी रीते विवेक पर्तनथी मोक्ष महेलनो मजबूत पायो नंखाय छे अने सकळ धर्मकरणी मोक्ष साधकज थाय छे.
(९६ ) चिरकाळना लाबा अभ्यासथी शांतवाहिता योगे अहिं. सादिक महानतोनी दृढता अने सिद्धि थाय छे, जेथी समीपवर्ती हिसक जीवो पण पोतानो क्रूर स्वभाव तजी दइने शात भावने भजे छे अने सातिशयपणाथी देव दानवादिक पण सेवामा हाजर रहे छे. आवो अपूर्व महिमा शांत-वैराग्य रसनोज छे. एम सर्व मोक्षार्थी जनोने विशेषे प्रतीत थाय छे तेथी तेमा तेओ अधिक प्रयत्न करे छे.
(९७ ) जेमने मन, वचन अने कायामा संपूर्ण स्थिरता प्राप्त थइ छ एवा योगीश्वरो गाममां के अरण्यमा दिवसे के रात्रीमां सरखी रीते स्व स्वभावमांज स्थित रहे छे. कदापि संयम मार्गमां अरति भजताज नथी, सुवर्णनी पेरे विषम संयोगमां चढवाने ते वर्ते छे.
(९८ ) जेओ फक्त अन्यनेज शिखामण देवामां शूरा छे तेओ खरी रीते पुरुषनी गणनामांज नथी. पण जेओ पोतानेज उत्तम "शिखामणो आपीने चारित्र मार्गमा स्थिर करे छे तेओज खरेखर
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(९५)
__ 'सत् पुरुषानी गणनामां गणावा. योग्य छे.
(९९) काचनने जेम नेम अग्निमां तपाववामां आवे छे तम तम तनो वान वधतोज जाय छे. शेलडीना साठाने जेम जेम छेदबामा के पीलवामां आवे छे तेम तेम ते सरस मिष्ट रस समर्षे छे तमज चंदनने जेम जेम वसवामां के कापवाभा आवे छे तेम तेम ते तेना धसनार के कापनारने उत्तम प्रकारनी सुगध या खुशबो आपे छे, तेवाज रीते सत्पुरुषोने प्राणांत कष्ट पडये छते पण कदापि प्रकृतिनो विकार थतोज नथी. ते तो तेवे वखते उलटी अधिक उजळी थइ आत्म लाभ भणी थाय छे. आवाज पुरुषो जगतमा खरा पुरुषनी गणनामा गणावा योग्य छे.
(१०० ) योगी पुरुषोने वैराग्य-पुष्टिथी जे अंतरंग सुख थाय छ तेवं सुख इंद्रादिकने स्वममा पण संभवतुं नथी. केमके इंद्रादिकर्नु सुख विषयजन्य होवाथी केवळ बहिरग-बाह्य-कल्पितज छे.
(१०१ ) मध्य-उदरनी दुर्बळताथी कृशोदरी-स्त्री शोभे छे, तपोनुष्टानवडे थयेली शरीरनी दुर्बलताथी यति-मुनि शोभे छे, अने मुखनी कृशताथी घोडो शोभे छे, पण तेओ कंइ अमुषणथी शोभता नथी. सर्व कोइ स्व स्व लक्षण लक्षित छताज शोभे छे.
(१०२ ) जे स्त्रीना प्रेमाळ वचन सामळीने चचळ-चित्त थतो नथी तेमज स्त्रीना नेत्र कटाक्षथी पण लगारे संक्षोभ पामतो नथी तेज योगीश्वर रागद्वेष विवार्जित होवाथी जगतमा जयवंतो वर्ते छे.
(१०३ ) अनेक दोषथी भरेली कामनी कुपित थये छते पण कामातुर जीव तणीनो आदर करतो जाय छे. एवी कामाधताने धिकार पडो.
(१०४ ) जेनो संयोग थयो छे तेनो वियोग तो अवश्य ___ व्हेलो मोडो थवानोज छे. त्यारे वियोग पखते शा माटे हृदयने
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(९६)
शल्यरुप शोक करवोज जोइये ? तेवा दुःखदायी शोकथी शुवळवार्नु छ ?
(-१०५ ) ममता विना शोक थतो नथी. ज्ञान वैराग्यथी ते ममता घटे छे. सम्यग्ज्ञान या अनुभव ज्ञानथी मोहनी गाठ तूटे छे अने हृदयनुं बळ वधवाथी, घटमा विवेक जागबाथी शोकादिकने अंतरमा पेसवानो अवकाश मळतो नथी.
(१०६ ) कफना विकारवाळ नारीनु मुख क्या अने अमृतथी भरेलो चंद्रमा क्या ? ते बने वच्चे महान् अंतर छतां मंदबुद्धि एवा कामी लोको तेमनु ऐक्य सरखापणुंज माने छे.
(१०७) हाथीना कानी माफक चपळ-क्षणवारभां छेह दे एवा विषय भोगने परिणाम माठा विपाक आपवावाळा जाण्या छता तजी न शकाय ए केवळ मोहनीज प्रबळता देखाय छे,
(१०८ ) एक एक इंद्रियनी विषय लंपटताथी पतंगीया, भमरा, माछला, हाथी अने हरण प्राणांत दुःख पामे छे तो एकी साथे पाचे इंद्रियोने परवश पडेला पामर प्राणीयोनु तो कहेज ?
(१०९ ) जेम इंधनथी अग्नि शात थतो नथी, परंतु ते वृद्धिज पामे छे तेम विषय भोगथी इंद्रियो तृप्त थती नथी, परंतु तेथी तृष्णा वधती जाय छे. अने जेम जेम विशेष विषय सेवन करवा जीव ललचाय छ तेम तेम अग्निमा आहूतिनी पेरे कामाग्निनी वृद्धि थया करें छे,
(११० ) अनुभव ज्ञानीयोए युक्तज कथु छे के ज्ञान-वैराग्यज परममित्र छे, काम भोगज परमशत्रु छे, अहिंसाज परम धर्म छे अने नारीज परम जरा छे ( केमके जरा विषय लंपटीनो शीघ्र पराभव करे छे.)
(१११ ) वळी युक्तज कयुं छे के तृष्णा समान कोइ व्याधि नथी अने संतोष समान कोइ सुख नथी.
( ११२ ) पवित्र ज्ञानामृत या पैराग्य रसथी आत्माने पोषवाथी
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(९७)
तृष्णानो अंत आवे छे, अने संतोष गुणनी प्राप्ति अने वृद्धि थाय छे.
(११३ ) संतोष सर्व सुखनु साधन होवाथी मोक्षार्थी जनोए ते अवश्य सेवन करवा योग्य छे, अने लोभ सर्व दुःखD मूळ होवाथी __ अवश्य तजया योग्य छे. लोभ-बुद्धि तजवाथी संतोष गुण वधे छे.
( ११४ ) क्रोधादि चारे कषाय, संसाररुपी महावृक्षनां डंडा मजबूत मूळ छे. संसारनो अंत करवा इच्छनार मोक्षार्थीए कषाय
नोज अंत करवो युक्त छे. कपायना अंत थये छते भवनो अंत ___थयोज समजवो.
(११५) उपशम भावथी क्रोधने टाळवो, विनयमावथी मानने टाळयो, सरळभावथीमाया-कपटनो नाश करवो अने संतोषथी लोभनो नाश करवो. कषायने टाळवानो एज उपाय ज्ञानीयोए बताव्यो छे.
(१११६ ) राग अने द्वेषथी उक्त चारे कषायने पुष्टि मळे छे. माटे वीतराग प्रभुए सर्व कर्मनो जड जेवा राग अन द्वषनज मुळथीटाळवा वारंवार उपदेश कर्यों छे. द्वेषथी क्रोध अने मान तथा रागथी माया अने लोभनी वृद्धि थाय छे. राग-द्वेषनो क्षय थवाथी सर्व कषायनो स्वतः क्षय थइ जाय छे माटे मोक्षार्थीए राग द्वेषनो अवश्य क्षय करवो युक्त छे.
(११७ ) विषय भोगनी लालसाथी राग-द्वेषनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे माटे मोक्षार्थीए विषय लालसाने तजीने सहज संतोष गुण सेववो युक्त छे.
(११८ ) विविध विषयनी लालसावाळु मलीन मनज दुर्गतिनुं मूळ छे माटे एवा मननेज मारवा महाशयो भार देइने कहे छे.
(११९) मनने मार्याथी इंद्रियो स्वतः मरी जाय छे. इंद्रियोना मरणथी विषयलालसानो अंत आववाथी रागद्वेषरूप कषायनो पण अंत आवे छे, रागद्वेष रूप कषायनो क्षय थवाथी घाति कर्मनो
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क्षय थाय छे अने अनंत ज्ञानादिक सहज अनंत चतुष्टयी प्रगट थाय छे. यावत् अवशिष्ट अघाति कर्मनो पण अंत थतांज अज, अविनाशी मोक्ष पदवी प्राप्त थाय छे.
(१२० ) मन अने इंद्रियोने वश करीने विपयलालसा तजवाथी आवो अनुपम लाभ थतो जाणीने कोण हतभाग्य कामभोगनी वाछा करीने आवा श्रेष्ट लाभ थकी चूकशे ? मुमुक्षु जनोने तो विषयवाछा हालाहल झेर जेवी छे.
(१२१ ) विषयलालसा हालाहल झेरथी पण आकरी छे केमके झेरतो खाधा बादज जीवनुं जोखम करे छे अने विषयन चितवन करवा मात्रथी चारित्र-प्राणनु जोखम थाय छे. अथवा विष खाधुं छतु एकज वखत मारे छे पण विषयवांछा तो जीवने भवोभव भटकावे छे. ___ . ( १२२ ) विषयसुखने पैराग्य योगे तजींने फरी वांछनार वमन-भक्षी श्वाननी उपमाने लायक छे.
( १२३ ) योगमार्गथी पतित थता मुमुक्षुने योग्य आलंबन आपीने पाछो मार्गमां स्थापनामा अनर्गळ लाभ रहेलो छे..
( १२४ ) जेम राजीमतिये रहनेमिने तथा नागिलाए भवदेव मुनिने तथा कोशाए सिह गुंफावासी साधुने प्रतिबोध आपीने संयम मार्गमा पुनः स्थाप्या, तेम निःस्वार्थ बुद्धिथी मोक्षार्थी जीवने अवसर उचित आलंबन आपनार मोटो लाभ हासल करी शके छे.
(१२५) मोक्षार्थी जनोए हमेशां चढताना दाखला लेवा योग्य छे पण पडताना दाखला लेवा योग्य नथी. चढताना दाखलाथी आत्मामांशूरातन आवे छे, अने पडताना दाखलाथी कायरता आवे छे. . (१२६ ) चाहे तो पुरुष होय के स्त्री होय पण खरो पुरुषार्थ सेववाथीज ते सद्गति साधी शके छे. पुरुष छता पुरुषार्थहीन होय तो, ते पुंगणमां नथी अने स्त्री छता पुरुषार्थयोगे पुंगणनामा गणवा
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(९९)
योग्यज छे. पूर्व अनेक उत्तम स्त्रीओए पुरुषार्थना बळे परमपदनो अधिकार प्राप्त कर्यो छे. मोक्षार्थी जनोए एवा चढताना दाखला लेपा योग्य छे. तेथी स्वपुरुषार्थ जागत थाय छे. । (१२७ ) केवळ पुरुषज परमपदनो अधिकारी छे. स्त्रीने तेवो अधिकार नथी एम बोलनारा पक्षपाती या मिथ्याभाषी छे. खरी वात तो ए छे के जे खरो पुरुषार्थ सेवे छे, ते चाहे तो पुरुष होय यातो स्त्री होय पण अवश्य परमपदनो अधिकारी होवाथीं परम-पद मोक्ष सुखने साधी शके छे. पुरुषनी परे अनेक स्त्रीओए पूर्व परमपद साधेलु छे. . (१२८ ) सम्यग् ज्ञानदर्शन अने चारित्रनुं विधिवत् पालन कर ते खरो पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थहीन कायर माणसो तेम करीशकता नथी.'
(१२९ ) अहिंसादिक पाच महाव्रत तथा रात्री भोजननो सर्वथा त्याग करवारुपी छटुं व्रत विवेकवुद्धिथी समजीने ग्रहण करी सिहनी परे शूरवीरपणे ते सर्व व्रतोतुं यथाविधि पालन कर तथा अन्य योग्य-अधिकारी स्त्रीपुरुषोने शुद्ध मार्ग समजावी सन्मार्गमा स्थापी तमने यथोचित सहाय आपवी ते खरी कल्याणनो मार्ग छे. '
। ( १३० ) सर्व जीवोने आत्म समान लेखीने कोइने कोई रीते मनथी, वचनथी के कायाथी हणवो नहिं, हणाववो नहिं के हणनारने संमत थर्बु नहि ए प्रथम महाव्रतर्नु स्वरुप छे. एम सर्वत्र समजी लेवानुं छे.
. ( १३१ ) क्रोधादिक कषायथी, भयथी के हास्यथी जूठ बोल नहिं, जूठ बोलावq नहिं तेमज जूठ बोलनारने संमत थवं नहि ए बींज महानत छे. पवित्र शास्त्रना मार्गने मुकीने स्वच्छंदे बोलनार मृषावादीज छे. .
। ( १३२ ) पवित्र शास्त्रनी आज्ञा विरूद्ध कोइपण चीज स्वामीनी । रजा विना लेवी नहि, लेपडाववी नहिं, तेमज लेनारने संमत थर्बु
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(१००)
नहिं. संयमना निर्वाह माटे जे काइ अशन पसनादिक जरुर होय ते पण शास्त्र आज्ञा मुजब सद्गुरुनी संमति लइने अदीनपणे गवेपणा करतां निर्दोष मळे तोज ग्रहण कर, एत्रार्जुमहावत कमु छे.
(१३३ ) देव, मनुष्य के तिर्यंच संबंधी विषयभोग मन, वचन, के कायाथी सेवा नहिं बीजाने सेवडाववा नहिं अने सेवनारने संमत थर्बु नहिं ए चोथु महावत जाणवू.
(१३४ ) कंइ पण अल्प मूल्यवाळी के बहु मूल्यवाळी वस्तु उपर मुर्छा राखवी नहिं, संयमने बाधकभूत कोई पण पस्तुनो संग्रह करवो नहिं, करावयो नहि, तेमज करनारने संमत थयु नहिं. ए पांचमुं महानत छे.
(१३५ ) अशन, पाणी, खादिम के स्वादिम रात्री समये (सूर्यअस्त पछी अने सूर्योदय पहेला) सर्वथा वापरवा नहि, चपरावया नहिं तेमज वापरनारने संमत थवु नहिं ए छठं व्रत छे.
(१३६ ) पूर्वोक्त सर्व महानतानु यथाविधि पालन करतां जेम रागद्वपनी हानी थाय तेम सावधानपणे प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग स्वीकारी तेनो यथार्थ निर्वाह करवो, अने अन्य आत्मार्थीजनोने यथाशक्ति यथावकाश सहाय करवी ते उत्तम प्रकारनो पुरुषार्थ छे.
( १३७ ) सद्गुरुनु शरण लही तेमनी पवित्र आज्ञानुसारे वर्तनार महाशयोनो सकळ पुरुषार्थ सफ थाय छे.
(१३८ ) सद्गुरुनी कृपाथी प्राप्त थयेला सद्बोधवडे, संयम मार्गमां आवता अपायो सहेलाइथी दूर करी शकाय छे.
(१३९) मुमुक्षुजनोए चंद्रनी पर शीतळ स्वभावी, सायरनी जेवा गंभीर, भारंड पंखीनी जवा प्रमाद रहीत, अने कमळनी परे निलेप थवं जोइ५. यावत् मेरु पर्वतनी परे निश्चळता धारीने सिंहनी जेम शूरवीर थइने वृषमनी परे निर्मळ धर्मनी धुरा मुनिजनाए
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( १०१) अवश्य धारवी जोइए. (१४०) मुमुक्षुजनोए कंचन अने कामनीने दूरथीज तजवां जोइए.
(१४१ ) मुमुक्षुजनोए राय अने रंकने सरखा लेखवा जोइए, तथा समभावथी तेमने धर्म उपदेश आपको जोइए.
(१४२ ) मुमुक्षुजनोए नारीने नागणी सभान लेखी तेणीनो संग सर्वथा तजयो जोइए. नारीना संगथी निश्चे कलंक चढे छे.
(१४३ ) मुमुक्षुजनाए समरस भावमा झीलता थकां शास्त्र अवगाहन कर्या करणे जोइए.
(१४४ ) मुमुक्षुजनोए अधिकारीनी हितशिक्षा हृदयमा धारीने स्वशक्तिने गोपव्या विना तेनुं यत्नथी पालन करवु जोइ५. कोई रीते अधिकारीनी हितशिक्षानो आनादर नज करवो जोइए.
(१४५ ) मुमुक्षुजनोए क्षुधादिकनो उदय थये छते गुवादिकनी संमती लइने निर्दोष आहार पाणीनी गवेषणा करी, तेवो निदोष आहार प्रमुख मळे तो ते अदीनपणे लइने, गुर्वादिकनी समीपे आवीने तेनी अलोचना करी गुर्वादिकनी रजाथी अन्य मुमुक्षु जननी यथायोग्य भक्ति करीने लोलुपतारहित लावेलो आहार संयमना निर्वाह माटे वापरता मनमां समभाव राखी तेने वखाण्या के खोज्या विना पवित्र मोक्षना मार्गमा पुनः कटिबद्ध थइने विशेषे उद्यम करवो जोइए.
(१४६ ) मुमुक्षुजनोनी शास्त्र आज्ञा मुजब पीने करवामां आवती माधुकरी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो ' सर्व संपत् करी ' कहे छे.
(१४७ ) मुमुक्षुजनानी शास्त्र आज्ञा विरुद्ध वर्तीने करवामां आवती भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'बलहरणी' कहीने बोलावे छे.
(१४८ ) केवळ अनाथ अशरण एषा अधिळा पागळा विगेरे दीनजनोनी भिक्षाने ज्ञानी पुरुषो 'वृत्ति भिक्षा' कहीने बोलावे छे.
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( १०२ ) (१४९ ) मुमुक्षुजनोए शास्त्र विरुद्ध मार्गे वर्ततां थती 'चलहरणी' भिक्षाने सर्वथा तीने शास्त्र विहित मार्गे वतीन 'सर्व संपकरी, भिक्षानोज ख५ करवो युक्त छे.
(१५० ) मुमुक्षुजनोए अकृत, अकारित अन असंकल्पितजे आहार गवेषीने गहण करवो जोइए. पोते नहि करेलो, नहि करावेलो, तेमज पोताने माटे खास सकरपीने गृहस्थाढिके नहि करेलो के करावलोज आहार मुमुक्षुजनाने कल्पे छे. तेवो पण आहार गवेषणा करता मळी शके छे.
(१५१ ) यति धर्म याने सुमुक्षु मार्ग अति दुकर कह्यो छे; केमके तेमां एवा निर्दोष आहारथीज संयम निर्वाह करवानो यो छे.
(१५२ ) ग्रहस्थ जनो पोताना माटे अथवा पोताना कुटुंबने माटे अन्न पानादिक नीपजावता होय तेमा एबो शुभ विचार करे के आपणे मोटे करवामा आवता आ अन्न पाणीमाथी कदाच भाग्य योगे कोई महात्माना पात्रमा थोडे पण अपाश तो मोटो लाभ थशे. आवो शुभ विचार गृहस्थ जनोने हितकारीज छे.
(१५३ ) एवा शुभ चिंतन युक्त गृहस्थोए पोताने माटे के पोताना कुटुंबने माटे निपजावेला अन्न पाणी विगेरे मुमुक्षुमुनीने लेवामां बाधक नथी.
(१५४ ) निर्दोष आहार लावी विधिवत् ते वापरनार मुनि संयमनी शुद्धि करे शके छे. तेथी उलटी रीते वर्तता संयमनी विरा धना थाय छे.
( १५५ ) मुमुक्षुजनोए शब्द, रुप, रस, गंध अने स्पर्श संबंधी सर्व विषयआसक्तिथी सावधपणे दूर रहे युक्त छे.
(१५६) मुमुक्षुजनोए विषय वासनानेज हठावचा यत्न करवो जोइए. (१५७ ) मुमुक्षुजनोए गृहस्थोनो परिचय तीन ब्रह्मचर्यनी खूब
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( १०३)
पुष्टि थाय तेम पवित्र ज्ञान ध्याननो सतत अभ्यास करवो जोइए..
(१५८ ) मुमुक्षुजनोए स्त्री, पशु, पंडग विनानुं संयमने अनुकूळ स्थानज रहेवाने पसंद कर जोइए.
( १५९ ) मुमुक्षुजनोए कामविकार पेदा थाय एवी कोइ पण चेष्टा करवी न जोइए. स्त्री कथा, स्त्री शय्या, स्त्रीनां अगोपागर्नु निरीक्षण, स्त्री समीप स्थिति, पूर्वकरेली कामक्रीडानुं स्मरण, स्निग्ध भोजन तथा प्रमाणातिरिक्त भोजन, तथा शरीर विभूषादिक सर्वे तजवा जोइए.
(१६० ) मुमुक्षुजनोए पूर्व थयेला महा पुरुषोना पवित्र चरि. त्रने जाणीने तेमनुं बनतुं अनुकरण करवाने सदा सावधान रहे जोइए.
(१६१ ) मुमुक्षुजनोए गमे तेवा संयोगोमा संयमथी चलायमान थर्बु न जोइए. देव, मनुष्य के तिथचे करेली सर्व अनुकूल के प्रतिकूळ उपसर्ग परीषहोने अदीनपणे आत्म कल्याणार्थे सहन करवा जाइए.
(१६२ ) ममक्षुजनोए मार्गमा चालता धुसरा प्रमाण भमीने आगळ जोतां कोइ पण न्हाना के मोटा जीवने जोखम न पहोंचे तेम करुणा नजरथी तपासीने चालवू जोइए.
(१६३ ) मुमुक्षुजनाए जरुर पडतु बोलता कोइने अप्रीति न • उपजे ए हित, मित, अने सत्य, धर्मने वाधक न थाय तेवु भाषण करवु जाइए.
(१६४ ) मुमुक्षुजनोए संयमना निर्वाह माटे जरुर पडये छत ४२ दोष रहित आहार पाणी विगेरे गुर्यादिकनी संमतिथी लावीने विधिवत् वापरवा जोइए.
(१६५) मुमुक्षुजनोए कोइपण वस्तु लेतां या मूकता कोइ पण जीवनी विराधना थइ न जाय तेम सभाळीने ते वस्तु लेवी मूकवी जोइए.
(१६६ ) मुमुक्षु जनोए लधुनीति, बडोनीति विगैरे शरीरना
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(१०४)
सर्व मळनो त्याग निर्जीव स्थानमा जइने विधिवत् करवो जोइए.
(१६७) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे मनने गोपीने धर्म ध्यानमा जोडावु जोइए.जेम बने तेम तेने विविध विकल्प जाळी मुक्त राखयु जोइए.
(१६८ ) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे तथाप्रकारना कारणाविना मौनज धारण करी रहेज जोइए. जरूर जाणता सत्य निदोषज भाषण करवु जोइए.
( १६९ ) मुमुक्षुजनोए मुख्यपणे संयमार्थे जवा आववानी जरूर न होय तो कायाने काचबानी परे गोपवी राखवी जोइए, स्थिर आसन करीने पवित्र ज्ञान ध्याननोज अभ्यास करवो जोइए.
(१७० ) मुमुक्षुजनोए चालवानी, बेसवानी, उठवानी, सुवानी खावानी, पीवानी के बोलपानी जे जे क्रिया करवी पडे ते ते कोइ जीवने इजा न थाय तेमज संभाळ्थींज करवी जोइए.
(१७१ ) मुमुक्षुजनोए रसद्ध नहि थतां परिमितमोजी थकुंजोइए,
(१७२ मुमुक्षुजनोए संयम अनुष्ठानने समजपूर्वक प्रमाद रहित सेवाने अन्य मुमुक्षुजनाने यथाशक्ति संयममा सहायभूत थवु जोइए. एक क्षण मात्र पण कल्याणार्थीए प्रमाद करवो न जोइए.
(१७३ ) प्रीय मनोहर अने स्वाधीन भोगने जे जाणी जोइने तजे छे, तेज खरो त्यागी कहेवाय छे.
(१७४ ) वस्त्र, गंध, माल्य, अलंकार तथा स्त्री शय्यादिक नहि मळवा मात्रथी भोगवतो नथी, पण मनथी तो तेवा विषयमा सार मानीने मान रहे छे ते त्यागी कहेवाय नही.
( १७५ ) जो जळमां मच्छनी पद पंक्ति मालम पडे के आकाशमा पखानी पद पंक्ति जणाय, तोज स्त्रीना गहन चरित्रनी समज पडी श; ताप्तर्य के स्त्रीन। चरित्रनो पार पामवो अशक्य छे.
(१७६ ) प्रियालापथी कोइनी साथ बात करती कामनी कटाक्ष
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( १०५) वडे कोइ अन्यने सानमां समजावती होय तेम पळी हृदयथी तो कोइ वीजानु ध्यान [ चितवन ] करती होय, एवी स्त्रीनी चंचळताने धिकार पडो. स्त्रीओ प्रायः कपट नीज पटी होय छे.
(१७७ ) जो मन वैराग्यना रंगी रंगायलं न होय तो दान, शील, अने तप केवळ कटरुपज थाय छे. वैराग्य युक्त करेली सर्व 'धर्म करणी कल्याणकारी थाय छे. माटे जेम बने तेम पैराग्य भावनी वृद्धि करवी युक्त छे. ते विना अलुणा घान्यनी परे धर्मकरणीमां हेजत आवती नथी, वैराग्य योगे तेमा भारे मीठाश आवे छे.
(१७८ ) अभिनव अध्यात्मिक शास्त्रो वांचवाथी सहज वैराग्यंनी वृद्धि थाय छे.
(१७९ ) मैत्री, मुदिता, करुणा अने मध्यस्थ एवी चार भावनाओगें संयमना कामीए अवश्य सेवन कर जोइए.
( १८० ) जगतना सर्व जंतुओ आपणा मित्र छ, कोई पण आपणा शत्रु नथी, ते सर्व सुखी थाओ, कोइ दुःखी न थाओ, सर्वे सुखना मार्गे चालो एपी मतिने मैत्रीभावना कहे छे.
(१८१ ) सदगुणीना सद्गुणो जोइन चित्तमा राजी थव. जेम चद्रने देखीने चकोर राजी थाय छे, अथवा मेधनो गरिव सांभळीने मोर राजी थाय छे, तेम गुणीने देखी प्रमुदित थq, अंत:करणमां आनंदनी उर्मीओ ०४ तेनुं नाम मुदिता भावना कहेवाय छे.
(१८२ ) कोइ पण दुःखीने देखी दया दिलथी शक्ति अनुसारे तेने सहाय करवी तेमज धर्म कार्यमा सीदाता साधी भाइने योग्य आलंबन आप तेनु नाम करुणा भावना कहेवाय छे.
( १८३ ) जेने कोइ पण प्रकारे हितोपदेश असर करी शके नहि एवा अत्यंत कठोर मनवाळा जीव उपर पण द्वेष नहि करतां तवाथी दूरज रहेवू तेनुं नाम मध्यस्थ भावना कहेपाय छे.
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(१०६)
( १८४ ) बीजी पण अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक स्वभाव, बोधि दुर्लभ अने स्वतत्वनु चिंतनरुप द्वादश अनुप्रेक्षा,-भावना कही छे. , (१८५ ) भावना भवनाशिनी अर्थात् आवी उत्तम भावनाथी भव संततिनो क्षय थइ जाय छे, अने शांतरसनी वृद्धिथी चित्तनी शांति-प्रसन्नता थाय छे. माटे मोक्षार्थी जनोए अवश्य उक्त भावनाओनो अभ्यास कर्या करवो युक्त छे.
(१८६)गमे तेटली कळा प्राप्त थाय, गमे तेवो आकरो तप तपाय, अथवा निर्मळ कीर्ति प्रसरे परंतु अंतरमा विवेक कळा जो न प्रगटी तो ते सर्व निष्फज छे. विवेक कळाथी ते सर्वनी सफळता छे.
(१८७) विवेक ए, एक अभिनव सूर्य या अभिनव नेत्र छे. जेथी अंतरमा वस्तु तत्त्वनु यथार्थ दर्शन थाय ५७ अजवाळु थाय छे; माटे बीजी बधी जजाळ तजीने केवळ विवेककळा माटे उद्यम . करवो युक्त छे.
(१८८ ) सत् समागम योगे हितोपदेश सांभळवाथी या तो जाप्त प्रणीत शास्त्रना चिर परिचयथी विवेक प्रगटे छे.
(१८९ ) विवेकवडे सत्यासत्यनो निर्णय करी शकाय छे. ते विना हिताहित, कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, उचितानुचित के गुणदोषनी खानी थइ शकती नथी. विवेक बडेज असत् पस्तुनो त्याग करीने सद वस्तुनो स्वीकार करी शकाय छे.
(१९०) जेम निर्मळ अरिसामा सामी वस्तुन बराबर प्रतिबिंब ५डी रहे छे. तेम निर्मळ विवेकयुक्त हृदयमा वस्तुनुं यथार्थ भान थाय छे. जेम सूक्ष्म दर्शक यंत्रथी सुक्ष्म वस्तु सहेलाइथी देखी शकाय छे, तेम विवेकना अधिकाधिक अभ्यासथी सुक्ष्ममा सुक्ष्म ने दुरमा दुर रहेला पदार्थहैं यथार्थ भान थइ शके छे; माटेज ज्ञानी
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( १०७ ) पुरुषो विक रहीतने पशु माने छे.
(१९१ ) विवेकी पुरुप आ मनुष्य भवना क्षणने पण लाखेणो ( लक्ष मुल्य अथवा अमुल्य ) लेखे छे.
(१९२ ) जेम राजहंस पक्षी क्षीर नीरने जुदा करीने क्षीर मात्र ग्रहे छे, तेम विवेकी पुरुष दोष मात्रने तजी गुण मात्रने ग्रहण करछे.
(२९३ ) मननी क्षुद्रता (पारका छिद्र जोवानी बुद्धि )मटवा-- थीज गुण ग्राहकता आवे छे. गुण गुणिनो योग्य आदरसत्कार करवारुप विनयगुणथी गुण ग्राहकता वधती जाय छे.
(१९४ ) विनय सर्व गुणोतुं वशीकरण छे.भक्ति या वाह्यसेवा, हृदय प्रेम या बहुमान, सद्गुणनी स्तुति, अवगुणने ढांकवा अने. अवज्ञा, आशातना, हेलना. निंदा, के खिसाथी दूर रहेवू एवा विनयना मुख्य पाच प्रकार छे.
( १९५ ) जेम अणधोयेला मेला वस्त्र उपर मल चडी शकतो नथी, अथवा विषम भुमिमां चित्र उठी शकतुं नथी, तम विनयादि गुण हीनने सत्य धर्मनी प्राप्ती थई शकती नथी. ___(१९६) विनयादि सद्गुण सपन्नने सहेजे धर्मनी प्राप्ती थइ शके छे..
(१९७) विनयादि शून्यने विद्यादिक उलटी अनर्थकारी थाय छे. माटे प्रथम विनयादिकनोज अभ्याप्त करवो योग्य छे.
( १९८ ) धर्मनी योग्यता-पात्रता प्राप्त करवी ए प्रथम अवश्यनुं छे. तृण थकी गायने दुध थाय छे अने दुध थकी सपने झेर थाय छे, ए उपरथीज पात्रापात्रानो विवेक धारयो प्रगट समजाय छे.
(१९९ ) धर्मनी योग्यता मेळववा माटे नीचेना २१ गुणोनो खूब अभ्यास करयो खास जरूरनो छे.
१ अक्षुद्रता-गंभीरता-गुणग्राहकता, २ साम्यता- प्रसन्नता. ३ निरोगता-अंग सौष्टव-सुंदराकृति. ४ जनप्रियता-लोकप्रियता.५ अ
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( १०८ ) क्रुरता-मननी कोमळता-नरमाश. ६ भीरुता-पापथी या अपवादथी भावापY.७ अशठता-निष्कपटीपणु-सरलता. ८ दाक्षिण्यता मोटानी अनुज्ञा पाळवी ते. ९ लजाळुता-मर्याद। शीलपणुं-माजा. १० दयालुता-करुणा. ११ समदृष्टि-मध्यस्थता-निष्पक्षपातपणु. १२ गुण रागीपणुं १३ सत्यवादीप'-सत्यप्रियता. १४ सुपक्षता-धर्मीकुटुंब होवापणु. १५ दीर्घ दर्शिता-लांबी नजर पहोंचाडवापY. १६ विशेषज्ञता-लाबी समज, १७ वृद्धानुसारीपणु शिष्टानुसारिता. १८ विनीतता नम्रता. १९ कृतज्ञता-कयाँ गुणतुं जाणपणुं. २० परोपकारता-परहितैषिता. २१ लब्धलक्षता- कार्यदक्षता- सुनिपुणता, कळाकौशल्य. आ २१ गुणानुं विस्तार वर्णन धर्म रत्नप्रकरणादि अनेक ग्रथोमां करेलु छे. त्याथी समजीने वर्तनमां मुकQ.
(२०० ) पुर्वोक्त गुणना अभ्यास रहित योग्यता विनाज धर्मनी प्राप्ती थवी वंध्यापुत्र अथवा शशशृंगनी पेरे अशक्य छे.
(२०१ ) योग्य जीवने पण सत्य धर्मनी प्राप्ति बहुधा श्रमण निग्रंथद्वारा हितोपदेश सामळवाथीज थाय छे. माटे योग्य जीवोने पण सत् समागमनी खास अपेक्षा रहेछेज.
(२०२ ) हजारो ग्रंथ वाचवाथी सार न मळे एवो सरस सार क्षण मात्रमा सत्समागमथी भाग्य योगे मळी शके छे.
(२०३ ) दुर्जनो छते योगे तेवा लाभथी कमनशीबज रहे छे.
(२०४ ) सज्जनोने तो दुर्जनोनी हैयातीथी अभिनव जागृति म्हे छे.
(२०५ ) दुर्जनो सज्जनोना निकारण शत्रु छे. पण सज्जनो तो समस्त जगतना निष्कारण मित्र छे.
(२०६ ) दुर्जनाने द्विजीह सर्प जेवा कह्या छे ते यथार्थज छे. केमके ते एकांत हितकारी सज्जनने पण काटे छे.
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( १०९) ( २०७ ) सज्जनो तो एवा खारीला-झेरीला दुर्जनोने पण दुहवा इच्छता नथी एज तमनु उदार आशयपणुं सूचवे छे.
(२०८ ) कागडाने के कोयलाने गमे तेटलो धोयो होय तोपण . ते तेनी काळाश तजेज नहि तेम दुर्जनने पण गमे तेटलं ज्ञान आपो पण ते कदापि कुटिलता तजवानो नहि.
(२०९) सज्जनने तो गमे ते तेटलं संतापशो तोपण ते तेमनी सज्जनता कदापि तजशेज नहि.
(२१० ) सज्जनज सत्य धर्मने लायक छे. माटे बीजी धमाल तजी दइने केवल सज्जनताज आदरवा प्रयत्न करो.
(२११ ) वीतराग समान कोइ मोक्षदाता देव नथी. ( २१२ ) निग्रंथ साधु समान कोइ सन्मार्ग दर्शक साथी नथी.. (२१३ ) शुद्ध अहिसा समान कोइ भवदुःखवारक औषध नथी,
(२१४ ) आत्माना सहज गुणोनो लोप करे एवा रागद्वेष अने मोहादिक दोषोने सेवा समान कोइ प्रबळ हिंसा नथी.
(२१५ ) आत्माना ज्ञान दर्शन अने चारित्रादिक सद्गुणोने •साचवी राखवा अथवा ते सहज गुणोनुं संरक्षण कर तेना समान कोइ शुद्ध अहिंसा नथी.
(२१६ ) आत्महिंसा तज्या विना कदापि आत्मदया पाळी शकवाना नथी. रागद्वेष अने मोह-ममतादिक दुष्ट दोषोने तजीने. सहज-आत्म गुणमा मन रहे एज खरी आत्म दया छे. बीजी
औपचारिक जीवदया पाळवानो पण परमार्थ रागादि दुष्ट दोषाने બાવતાં વારવાનો અને જ્ઞાન વન અને વારિત્રાતિ સળીને, पोषवानोज छे.
(२२७ ) सत्यादिक महाव्रतो पाळवानो पण एज महान् उदेश छे. यावत् सकळ क्रियानुष्ठाननो उँडो हेतु शुद्ध अहिंसा व्रतनी,
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( ११० ) दृढता करवानोज छे.
(२२८) एवी शुद्ध समज दीलमा धारी संयमक्रियामा सावधान रहेनारा योगीश्वरो अवश्य आत्महित साधी शके छे.
(२२९ ) एवी शुद्ध समज दीलमां धार्या विना केवळ अंधश्रद्धाथी क्रियाकाडने करनारा साधुओ शीघ्र स्वहित साधी शकता नथी.
(२३०) शुद्ध समजवाळा ज्ञानी पुरुषानो पूर्ण श्रद्धाथी आश्रय लही संयम पाळनारा प्रमाद रहित साधुओ पण अवश्य आत्महित साधी शके छे. केमके तेमना नियामक ( नियता-नायक) श्रेष्ठ छ,
(२३१ ) सुविहित साधुजनो मोक्षमार्गना खरा सारथी छे एवी शुद्ध श्रद्धाथी मोक्षार्थी भव्य जनोए, तेमनु दृढ आलंबन करवू अने तेभनी लगारे पण अवज्ञा करवी नहि.
(२३३ ) ग्रहण करेलां व्रत या महाव्रतने अखंड पाळनार समान कोइ भाग्यशाळी नथी, तेनुज जीवित सफ छे.
(२३३ ) ग्रहण करेला व्रत के महाव्रतने खंडीने जे जीवछे तनी समान कोई मंदभाग्य नथी. केमके तेवा जीवित करता तो ग्रहण करेला व्रत के महाव्रतने अखंड राखीने मरकुंज सारं छे. .
(२३४ ) जन हितकारी वचनो कहेवामां आवतां छता बिलकुल कोने धारतो नथी अने नहि सांभळ्या जेवं करे छे तेने छते काने ब्रोज लेखयो युक्त छ. केमके ते श्रोत्राने स० करी शकतो नथी.
(२३५) जे जाणी जोईने खरो रस्तो तजीने खोटे भार्गे चाले छ; ते छती आखे आंवळो छ एम समजवु.
( २३६) जे अवसर उचित प्रिय वचन बोली सामान समाधान करतो नथी ते छते मुख मूंगो छ, एम शाणा माणसे समजवू.
( २३७) मोक्षार्थी जनोए प्रथमपदे आदरवा योग्य सद्गुरुन वचनज छे.
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( १११)
. (२३८ ) जन्म मरणना दुःखनो अंत थाय एवो उपाय विचक्षण पुरुष शीघ्र करवो युक्त छे केमके ते विना कदापि तत्त्वथी
शाति थती नथी. ___ ( २३९ ) तत्त्वज्ञान पूर्वक संयमानुष्ठान सेववाथीज भवनो अंत थाय छे.
(२४० ) परभव जता संबल मात्र धर्मनुज छे माटे तेनो विशेष ' खप करवो ते विनाज जीव दुःखनी परंपराने पामे छे. .
(२४१ ) जेनुं मन शुद्ध-निर्मळ छे तेज खरो पवित्र छ एम ज्ञानीयो माने छे.
(२४२ )जेना अंतर-घटमा विवेक प्रगटयो छे, तेज खरो पंडित छ एम मानवु.
(२४३) सदगुरुनी सुखकारी सेवाने बदले अवज्ञा करवी एज खरु विष छे.
(२४४ ) सदा स्वपरहित साधवा उजमाल रहेवु एज मनुष्य जन्मनु खरं फल छे.
(२४५ ) जीवने बेभान करी देणार स्नेह रागज खरी मदिरा छ एम समजवु.
(२४६ ) धोळे दहाडे धाड पाडीने धर्मधनने लूटनारा विषयोज खरा चोर छे.
(२४७ ) जन्म मरणना अत्यंत कटुक फळने देनारी तृष्णाज खरी भववेली छे. ,
(२४८)अनेक प्रकारनी आपत्तिने आपनार प्रमाद समान कोइ शत्रु नथी.
(२४९) मरण समान कोई भय नथी अने तेथी मुक्त करनार वैराग्य समान कोइ मीत्र नथी, विषयवासना जेथी नावुद् थाय तेज खरो वैराग्य जाणवो., ।
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( ११२ ) ( २५० ) विषयलंपट-कामांधसमान कोइ अंध नयी केमके ते विवेक शून्य होय छे.
( २५१ ) स्त्रीना नेत्र कटाक्षथी जे न डगे तेज खरोशूरवीर छे.
(२५२ ) संत पुरुषांना सदुपदेश समान बीजं अमृत नथी. केमके तेथी भव ताप उपशांत थवाथी जन्म मरणना अनंत दुःखोनो अंत आवे छे.
( २५३ ) दीनतानो त्याग करवा समान बीजो गुरुतानो सीधो रस्तो नथी.
( २५४ ) स्त्रीनां गहन चरित्रथी न छेतराय तेना वो कोई चतुर नथी.
( २५५ ) असंतोषी समान कोइ दुःखी नथी केमके ते मंमण शेठनी जेवो दुःखी रहे छे.
(२५६ ) पारकी याचना करवा उपरांत कोइ मोटुं लधुतार्नु कारण नथी.
(२५७)निदोष-निष्पाप वृत्तिसमान बीजुं सारं जीवितर्नु फळ नथी.
(२५८ ) बुद्धिबळ छता विद्याभ्यास नहि करवा समान बीजी कोई जडता नथी.
(२५९) विवेकसमान जागृति अने मूढता समान निद्रा नथी.
(२६०) चंद्रनी पेरे भव्य लोकने खरी शीतळता करनार आ कलिकाळमा फक्त सज्जनोज छे.
(२६१ ) परवशता नर्कनी परे प्राणीओने पीडाकारी छे. ( २६२ ) संयम या निवृति समान कोई सुख नथी.
(२६३ ) जेथी आत्माने हित थाय तेवुज वचन पदवू ते सत्य छे पण जेथी उलटुं अहित थाय एवं वचन विचार्या विना वदवू ते सत्य होय तो पण असत्यज समजवू. आधीज अंधने पण अंध कहवानो शास्त्रमा निषेध करेलो छे. (इति शम्)
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冷冷冷冷冷冷层类 । धर्मनी दश शिक्षा
१ क्षमा-अपराधी जीवोनुं अंत:करणथी पण अहित नहि इच्छता जेम स्वपरहित थई शके तेम सहनशीलता पूर्वक उचित प्रवृत्ति या निवृत्ति करवी अने जिनेश्वर प्रभुना पवित्र वचननो तेवो मर्म समजीने अथवा आत्मानो एवोज धर्म समजीने सहज सहनशीलता धारवी ते.
२ मृदुता - जातिमद, कुळभद, कळमद, प्रज्ञामद, तपमद, रु५मद, लाभमद अने ऐश्वर्यमद्नु स्वरूप सारी रीते समजी तेथी थती हानिने विचारी ते संबंधी मिथ्याभिमान तजीने नम्रता याने लघुता धारण करवी. गुणगुणीनो द्रव्य भावथी विनय साचववो, तेमनी उचित सेवा चाकरी करवी तमनु अपमान करवाथी सदंतर दूर रहेवू विगरे नम्रताना नियमो ध्यानमा राखीने स्वपरनी परमार्थथी उन्नति थाय एवो सतत ख्याल राखी रहे, ते.
३ सरलता सर्व प्रकारनी भाया तजी निष्कपट थई रहेणी कहेणी एक सरखी पवित्र राखवी. जेम मन, वचन अने कायानी पवित्रता संचवाय, अन्य जनोने सत्यनी प्रतीति थाय तेम प्रयत्नथी स्व उपयोग साध्य राखीने व्यवहार करवो ते.
४ संतोष विषय तृष्णानो त्याग करी, ते माटे थता संकल्प विकल्पो शमावी दइ, तुष्ट वृत्तिने धारण करी, स्थिर चित्तथी सम्यग दर्शन ज्ञान अने चारित्ररूप रत्नत्रयीनुं सेवन कर, तेमज सर्व पाप उपाधिथी निवर्त ते. __ ५ तप मन अने इंद्रियाना विकार दूर करवा तेमज पूर्व कमनो क्षय करवा समता पूर्वक वाह्य अने अभ्यंतर तपनु सेवन कर. उपवास आदिक बाह्य तप समजीने समता पूर्वक करवाथी ज्ञान ध्यान
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( ११४ ) प्रमुख अभ्यंतर तपनी पुष्टिने माटेज थाय छे. तथी ते अवश्य करवा योग्यज छे. तपथी आत्मा कंचनना जेयो निर्मळ थाय छे.
६. संयम-विषय कषायादिक प्रमादमा प्रवर्तता आत्माने नियममा राखवा यम नियमनु पालन करवू, इंद्रियोनुं दमन कर, कषायनो त्याग करयो अने मन वचन कायाने वनता कावुमा राखवा ते. ___ ७ सत्य--सहुने प्रिय अने हितकर थाय एवज वचन विचारीने अवसर उचित बोलवु, जेथी धर्मने कोइ रीते वाधक न आवे ते.
८ शौच--मन वचन अने कायानी पवित्रता जाळयाने वनतो प्रयत्न सेव्या करवो. प्रमाणिकपणेज वर्तवं, सर्व जीवने आत्म समान लेखवा. कोइनी साथे अशमा पण वैर विरोध राखयो नहि. सहुने मित्रवत् लेखवा, तेमने बनती सहाय आपदी अने गुणवंतने देखी मनमा प्रमुदित थवू, पापी उपर पण द्वेष न करवो ते. । ___निष्परिग्रहता--जेथी मूर्छा उत्पन्न थाय एवी कोइपण वस्तुनो संग्रह नहि करवो. परिग्रहने अनर्थकारी जाणी तेनाथी दूर रहे, कमलनी परे निलेपपणु धार. परस्पृहाने तजी निस्पृहपणुं आदरणे.
१० ब्रह्मचर्य---निर्मळ मन वचन अने कायाथी किंपाकनी जेवा परिणामे दुःखदायक विषयरसनो त्याग करी निर्विपयषणु याने निविकारपणुं आदर. विवेक रहित पशुना जेवी कामक्रीडा तजी सुशीलपणु सेव. लज्जाहीन एवी मैथुन क्रीडानो त्याग करी आत्मरति धारवी ते. ___ आ दशविध धर्मशिक्षार्नु शुद्ध श्रद्धापूर्वक सेवन करवाथी कोइ पण जीवनु सहजमां कल्याण थइ शके छे. माटे तेनं यथाविध सेवन करवानी अति आवश्यकता छे. सम्यगदर्शन ज्ञान अने चारित्र एज मोक्षनो खरो मार्ग छे.
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बोधकारक] दृष्टांत (कथा) संग्रह
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* कंबल अने संबल वृषभनी कथा. 93• •X
मथुरा नगरीमा जिनदास नामे शेठ रहता हता. ते समीधारी श्रावक हता अने व्रत पच्चखाणादि करवामा हमेशां तत्पर रहेता . धर्म नियम चुके नहीं एवा ते जिनदास शेठने ते गाममा रहेनार आहीर साथे नातो हतो; तेथी एक दीवस आहीर लोकोए पोताना वीवाह कार्यना सुभ प्रसंगने लीधे ते शेठने त्यां कंबल अने संबल नामना वृषभ भेट तरीके आप्या; शेठने व्रत होवाथी ते चोपगां जानवरनो उपयोग नहोतो तेथी तेमणे ते लेवाने ना पाडी. परंतु आहीर लोको शेठना उपकार अने अनुरागने ठीधे शेठे ना पाड्या छता पण घणो आग्रह करी शेठने त्या ए बे वळदने बांधी गया. शेठे आ सुकोमळ चळदने जोइ विचारयुं के एमने कोई खेतीवाडी अगर बीजी मेहेनतमा नाखशे तेथी ते दुःखी थशे माटे अही वाघ्या बेसी रही खाशे पीशे, आवी अपेक्षाए शेठे ते बळद राख्या तेमने दररोज प्रासुक आहार तथा जळ मुकता, शेठनी वृत्ती अने धर्म रीती नीती जोइ बळदोने जातीस्मरणज्ञान थयुं तेथी तेमणे पोतानो पुर्व भव दीठो अने श्रावक धर्मी थया श्रावकनी पेठे अष्टम्यादिक पुण्यतीथीओने दीवसे तेओ पण उपवास करवा लाग्या. केटलाक दीवस आ प्रमाण गया पछी एक वखत ते जिनदासशेठनो कोइक मित्र मंडिरमित्र नामना यक्षनी यात्रा करवा जवानो हशे, तेणे आवीने शेठनी पासे गाडे जोडवाने माटे वळद माग्या. आ वखते शेठ पोसामा हता तेथी कांइ पण बोल्या नही. तेथी ते यात्राये जनार शेठना मीत्रे बाहार बांधला चळद छोडी ठीघा अने तेने घेर लावीने गाडे जोतर्या बळद सुको
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( ११६ ) ___मळ अने कोइ दीवस गाडामा जोडाएला नहीं तेथी ते यक्षना देवल
सुधी महा संकटे पोहोच्या अने पाछा आव्या त्यारे तो ते लोही लहाण थइ गया हता. केमके तेमनी चालवानी-दोडवानी शक्ती नही रही तो पण ते शेठना मित्रे वगर समजे बळदने खर होक्या हता.आथी ते बंने बळदोना गात्र नरम थई गया हतां तेवी अवस्थामा पाछा ज्यां हतां त्यांज लावीने ते बळदने बाधीने चालतो थयो हतो. घणोज श्रम लागवाथी अने कदीपण दोड नहीं करली तेथी तेनी नसों त्रुटी जवाथी बने बळद शुक्ल ध्याने मरी नागकुमारे देव थया. त्यांथी मनुप्यगती पामी मोक्ष पामशे. आ बंने बळद मरीने नागकुमारे देव पणे उपज्या ते पखते श्री महावीरस्वामीने नावमां बेसी गंगा उतरतां मिथ्यादृष्टी देवे उपसर्ग कर्यों हतोते तेमणे निवार्थो हतो.
सार- - सारा अने धर्मी पुरुषना संगथी सारी मती अने गती थाय छे. कंबल अने संबल बळद हता पण जिनदास शेठ श्रावक धर्मीने त्या रखा तो धर्म अनुष्ठान करता जोयुं अने तेथी जातीस्मरणज्ञान थतां पाछलो भव दीठो ने श्रावक धर्मी थइ उपवास करवा लाग्या अने अंते शुक्ल ध्यान ध्याइ देवगती पाभ्या अने मोक्ष जशे. माटे सर्व मनुष्योए सारा-धर्मी पुरुषनीज सोबत करवी. (इति.)
भाग्यहीन स्त्री पुरुषनी कथा." एक वनमां काट लेवाने माटे एक दंपती स्त्री-पुरुष जता हती. तेओ निर्धन होई भाग्यहीन हता. आ वखत आकाश मार्गे शिव पार्वतीनुं विमान जतुं हतुं.. आ निर्धन स्त्री-पुरुषने काट लेई जतां पार्वतीए दीठां अने तेथी तेमना उपर तेने दया आवी तेथी ते शिव प्रत्ये कहेवा लागी के, हे स्वामीनाथ ! आ बेउ निर्धन स्त्री-पुरुषने तमो सुखीआं करो. त्यारे शिवजीए कयु के, हे स्त्री ! ए बनेना कमां सुख छज नहीं तो आपणे तेमने शी रीते सुखाआं
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( ११७ )
करी शकीए. भाग्य विना कदापी षण कोई वस्तु मळती नथी. आवां शीवजीनां वचन सांभळीने पार्वती बोल्यां के, ज्यारे तमाराथी आवा फक्त बे मनुप्यने सुखी करी शकाशे नहीं त्यारे तो तभारी उपासना कोण करशे. मने तो लागे छे के तमो एने सुखी करी शकशोज. पार्वतीना आवा बोल उपरथी जो के शिवजी जाणे अने समजे छ के भाग्य विना कांई पण मळतुं नथी तो पण स्त्रीने रीझववाने तथा तेनो बोल राखवान शिवजीए ते बने स्त्री-पुरुषनी आगळ रस्तामांकाननुं कुंडल नव्यु. कुंडल रस्तामा आवी पडवानी जरा वार आगमच आ बने स्त्री-पुरुष भाग्यहीन होवाथी तात्काळीक तमना मनमा एवो विचार उत्तन्न थयो के, आंधळा माणसो रस्तामां केवी रीते चालता हशे! जोईए तो खरां आम विचारी ते बने भाग्यहीन स्त्री-पुरुष आंधळा माणसोनी चालवानी गतीनो अनुभव करवा माटे आंखो मीची चालवा लाग्या. तेथी करीने शिवजीए नाखेलं कुंडल तेओ जोई शक्या नहीं. अने कुंडल ज्यानुं त्यांज पडघु रद्यु. थोडेक दुर गयां त्यारे तेओए आखो उघाडी पण त्यां तो कोई हतुंज नहीं, के मळे. शिवजी अने पार्वती आ बनाव जोई भाग्यविना काईपण कदी मळी शकतुं नथी एम निश्चय करी चालता थयां.
सार आ कथा उपरथी सार ए लेवानो छे के कोई पण सारो मनुष्य अगर देव आपवा धारे तोपण ते भाग्यविना मळतुंज नथी. माटे जे काई जे समये बनवान छे ते कोई मिथ्या करनार नथी. कर्म अजमावा उद्यम करवो. दोहरो- भाग्यहिनकुं नवि मिले, भली वस्तुको भोग;
द्राख ५क जब होत है, काग मुखक रोग.
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(११८) स्तुति अने निंदा सरखी गणवी श्रेष्ट ए विषे कथा. ____पाटलीपुत्र नगरने विशे धर्मवादी राजा राज्य करतो हतो. तेवामां त्यां त्रण मंत्रवादी आल्या. ते मंत्रवादीओए राजा आगळ आवीने जणाव्यु के अमे मंत्रवादी छीए; आथी राजाए तेमांना एकने का के शुं तमे जाणो छ ते मने कहो, त्यारे ते बोल्यो के मंत्र बळे हुं भूतने बोलावं छु. त्यारे राजा बोल्यो के तमारुं भूत के छ ? आथी मंत्रवादी बोल्यो के मारो भूत अति रुपवंत सिद्ध छे, पण ते भूतने, उपी दृष्टी करीने सामुं जुए ते मरे, अने तेने जोईने जे नीचुं जुए तेना सर्व रोग जाय अने निरामय थाय; ए. वचन सांभळीने राजाए तेने दूर जवाने कयुं अने कयु के मारे तेनो कशो खप नथी. पछी बीजा मंत्रवादीने बोलाव्यो, त्यारे ते कहेवा लाग्यो के मारो भूत अतीशे कुरुप छ पण जे कोई तेने देखी हसे नहीं स्तुति करे ते नीरोगी थाय अने जे निधा करे ते मरे. राजाए तेने पण कडं के मारे तेनो खप नथी. पछी त्रीजा मंत्रवादीने बोलाव्यो, ते कहेवा लाग्यो के मारो भूत कुरुप छे पण सारी नजरे के नटारी नजरे तेना सामु जुए तो तथा स्तुति करे के निदा करे तो पण तत्काळ रोगथी मुक्त थाय. ए वचन सामळीने राजा संतुष्ट थयो अने ते पंडीतने मान्यो अने पोतानी पासे राज्यसभामा राख्यो. बीजाओने यथायोग्य दान आपी राज रीत प्रमाणे वीदाय कीधा. । सार--- आ वात उपरथी सार ए लेवानो छ जे, जेनामां समविषमपणुं होय छे तओ स्वार्थवाळाने त्याज पुजाय छे एटले भान पामे छे परंतु जेओनामा समविषमपणुं एटले कोई ओछु अधीक होतुं नथी, सर्व समान होय. छे तेओ सर्वत्र पुजाय छे. हरेक मनुष्यमां आ गुणनी जरुर छे तो साधु पुरुषोमा तो अवश्य आ गुण होवोज जोईए. जे साधु त्रीजा भूतनी पेठे पोतानी स्तुति अगर निदा सामकीने रागद्वेष न करे तेज साधु खरा अने पूज्य जाणवा.
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(११९) * संकट परिसह उपर कथा. हस्तीनापुर नगरने विशे माणेकचंद शेठ रहेतो हतो. तेमने नेमचंद नामे पुत्र हतो. ते नेमचंदे गुरु पासे धर्म पामीने दिक्षा लीधी. एक दिवसे ते साधु वनमा काउस्सग रहेला हता ते वनमा तेमनी आगळ थई एक चोर कोइनी एक गाय चोरीने चाल्यो जतो हतो, तेना गया पछी पाल्थी ते गायनो धणी आवीने साधुने कहेवा लाग्यो के अहींथी कोई पुरुष गाय लईने जतो जोयो ? साधुए काई जवाब दीधो नहीं अने मौनपणे रहा. आथी ते गायना मालीकने बहुज. , रीस चडी. तेथी तेणे साधुना माथा उपर मोटीनी पाळ करीन तमां धगधगता अंगारा भयो. आथी साधुने धणी वेदना थई तो पण लेशमात्र पोताना परीणाम बगाडया नहीं अने ते गायनो घणी के जेणे अंगारा, पाळ करी माथा उपर मुक्या हता तेना उपर जराए द्वेषभाव लावी तपी गया नहीं अने एकज परणामनी धाराए परीसह सहन करी पोतानुं साधुव्रत खरखरु साचव्यु. अंगाराना योग्ये देहनो नाश थाय ए संभवीतज छे. आथी साधुए चार आहारना पचखाण करी अनीत्य भावना भावी शेष रहेलु आयुष्य पुरु करी त्याज तत्काल अंतगढ केवळी थई मोक्षपद पाया.
' सार--- आ उपरथी कोई पण माणसे आपणने दु.ख दीg होय अगर आपणी चोरी करी होय के बीजी कोई रीते मन दुखाव्यु होय तो नेमचद सुनीनी पेठे धीरजथी ते खमी रहे, कारण के तेथीज मोक्ष सुखनी प्राप्ती थाय छे ए नकी समजवु. तत्काळ बुध्दि उपर रीछ अने मनुष्यनी कथा,
कोई एक वटेमा ने वनमा जता एक रीछ मज्यो. रोंछे आवीने पटे माणुने पकडी पाडयो, त्यारे तेणे रोंछना बे कान पकड्या. तेथी
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(१२०)
रांछनु काई पण जोर चाल्यु नहीं, रीछे घणाए तलपा मार्या पण पला पुरुष कान मुक्या नही अने बंने माहोमांहे अफलावा ल ग्या, एक बीजा बच्चे खेचताण थतां वटमार्गु पुरुषतुं वस्त्र फाटी गयु. जथी तेनी केडमां बांधेली सोना मोहारोनी चांसली घटी जतां तमाथी संधळी मोहोरो जमीनपर वेराई गई. ते वखते एक जड पुरुष त्यां थई जतो हतो ते आव्यो अने पुछवा लाग्यो के, आ शु पड्यु छ ? आ खते पेला वटेभागुए तत्काल बुद्धि वापरी जवाब आथ्यो के में आरछना कान झालीने अफलाव्या तेथी एना मुखमाथी आ नीचे पडया छे ते सोनईआ–सोना मोहोरो नीकळी पडी छे. एकाएकज आवो जवाब सांभळी ते उपर ख्याल कर्या शिवाय ते जड-मुर्ख पुरुषे ते वात साची मानीने कयु के, हे दीर्घदरशी-रुडी बुद्धिवाळा तु आ रीछना कान थोडीवार मन पण अफलावा दे, के जेथी हुं पण सोना मोहोरो प्राप्त करु, आथी तेणे भोय पंडली सोना मोहरो ते जड पुरुष पासथी पोतानी कडे बंधावीने पछी ते जड पुरुषने रीछना कान पकडवा आप्या अने पोते त्यांथी निकळी गयो,
सार रीछ जे फाडी खानार प्राणी उपर धसी आव्युं परंतु ते खते तात्कालिक बुद्धिए जो वटेमाणुए तेना कान पकड्या न होत तो ते पोतानो जीव खुअत. तेमज बीजा पुरुषना पुछता सोना मोहोरो माटे जवाब देता विलंब कर्यों होत तो ते चेती जात अने त्यांथी ते जात. माटे हरेक मनुष्ये तत्काल बुद्धि पोचाडी जे समये जे जवाब उचीत जणाय ते वगर वीलंबे देवो. जेथी कार्यनी सिद्धि थतां विधन नडतुं नथी. स्वामीन चित्तच्छित काम करनार मंत्रीनी कथा.
कोई एक राजा पोताना प्रधान सहीत सेना लई सेहेल करवा जतो हतो. जता जता रस्तामां थोडाक गाउनी अटवी (वन )
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(१२१)
आवी. ते अश्वी ओळंगता रस्तामा एक जगो उपर तेनो घोडो मुतयों. आ मुतरथी खाबोचीयुं भराणुं ते जमीने सोशी लीधुं नहीं अने थंबाई रह्य आ भराई रहेलुं खाबोचीयुं राजाए जायुं अने त्याथी आगळ चाल्या. साजरे फरीन तज रस्त आव्या तो पलु मुतनु भरेलु खाबोचायुं जेमन तेमज दीटुं. राजाए आथी विचार्यु के जो आ जगो उपर सरोवर होय तो तेनुं पाणी कदीसुकाय नहीं. राजाना मननो आ विचार तेनो मंत्री जे साथे हतो ते समजी गयो. अने पछी त्याथी घेर आव्या. राजा आ वात विसरी गया परंतु स्वामीन चित्तेच्छित काम करनार मंत्री ते मुली गयो नहीं. एणे धेर आवी थोडा दाहाडे एज जगा उपर सरोवर बधाव्यु. केटलाक दिवस वीती गया पछी पाछा तेज रस्ते राजानी स्वारी अगाउनी माफक नोकळी अने ज्यां घोडो मुतयों हतो त्या आवी जुवे छे तो जळथी भरपुर लेहेरा लेतुं सरोवर दाटुं. राजा मंत्रीने पुछवा लाग्यो के आ सरोवर कोणे खोदाव्युं ? त्यारे मत्रीए जवाब आयो के हे राजन ! ए सरोवर आपनी इच्छानुसार में खोदाव्यु छे. आयी राजा घणो, खुशी थयो अने मंत्रीने कवा लाग्यो के, हे मंत्री! तें मारां मनन इच्छित जाण्यु तेथी तुं महा वुद्धिवान छे तेमज ते मारी धारणा मुजब वगर कहे कहावे काम कराव्यु तेथी तुं स्वामीनी इच्छा पार पडेली जोवाने घणो आतुर छ एम सिद्ध थाय छे; माटे तुने धन्य छे.
सार आ कथाथी सार ए ग्रहण करवानो छे के, सेवकोए स्वामी-शेठनं मन वरती लेई तमनी इच्छानुसार काम बीना पालवे करवू. जेथी तमनी महरवाना थता पातानु कल्याण थाय छ.
मुग्ध शेठकी कथा, (हिन्दी भाषा) जिनदत्त शेठका मुग्ध बुद्धिवाला मुग्ध नामका पुत्र था. वह पिताके प्रसादसे सदा मौज मजाम ही रहता था. बडा हुवा तत्र
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(१२२)
दसनर-सगे संवाधियो वाले शुद्ध कुलकी नंदीवर्धन शेठकी कन्यासे उसका बडे महोत्सबके साथ विवाह किया गया. अब उसे बहुत दफा व्यवहार संबंधी ज्ञान सिखलाते हये भी वह ध्यान नहीं देता, इससे उसके पिताने अपनी अंतिम अवस्थामें मृत्यु समय गुप्त अर्थ वाली नीचे मुजब उसे शिक्षायें दी.
(१) सब तरफ दाता द्वारा वाड करना. (२) खानेके लिये दूसरोंको धन देकर वापिस न मागना, (३) अपनी स्त्रीको बांधकर मारना, ( ४ ) मीठा ही भोजन करना. (५) सुख करके ही सोना, (६) हरएक गांवमें घर करना. (७) दुःख पड़ने पर गंगा किनारा खोदना. ये सात शिक्षायें देकर कहा कि, यदि इसमें तुझे शंका पडे तो पाटलीपुर नगरमें रहनेवाले मेरे मित्र सोमदत्त शेठको पूछना. इत्यादि शिक्षा देकर शेठ स्वर्ग सिधारे. परंतु वह मुग्ध उन सातो हितशिक्षाओं का सत्य अर्थ कुछ भी न समझ सका, जिससे उसने शिक्षओंके शद्धार्थके अनुसार किया, इससे अंतमें उसके पास जितना धन था सो सब खो बैठा. अब वह दुःखित हो खेद करने लगा. मुर्खाईपुर्ण आचरणसे स्त्रीको भी अप्रिय लगने लगा. तथा हरएक प्रकारसे हरकत भोगने लगा, इस कारण वह महा मुर्ख लोगोमें भी महा हास्यास्पद हो गया. अब वह अंतमें सर्व प्रकारका दुःख भोगता हुवा पाटलीपुर नगरमें सोमदत्त शेठके पास जाकर पिताकी बतलायी हुई उपरोक्त सात शिक्षाओंका अर्थ पूछने लगा. उसकी सब हकीकत सुनकर सोमदत्त बोला- मूर्ख ! तेरे बापने तुझे बड़ी कीमती शिक्षायें दी थी, परंतु तु कुछ भी उनका अभिप्राय न समझ सका, इसीसे ऐसा दुःखी हुवा है ! सावधान होकर सुन ! तेरे पिताके बतलाय हुए सात पदोंका अर्थ इस प्रकार है:--
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(१२३)
तेरे पिताने कहा था कि ( १ ) दांतो द्वारा वाड करना; सो दातों पर सुवर्णकी रेखा वांधने के लिये नही, परंतु इससे उन्होने तुझे यह सूचित किया था कि सब लोगोंके साथ प्रिय, हितकर योग्य वचनसे बोलना, जिससे सब लोक तेरे हितकारी हो. (२) लाभके लिये दूसरोंको धन देकर वापिस न मांगना, सो कुछ भिखारी याचक सगे संबधियोको दे डालनेके लिये नही बतलाया. परंत इसका आशय यह है कि अधिक कीमती गहने व्याज पे रख कर इतना धन देना कि वह स्वयं ही घर बैठे विना मागे पीछे दे जाय. (३) स्त्रीको वांध कर मारना सो स्त्रीको मारनेके लिये नहीं कहो था परतु जब उसे लडका लडकी हो तब फिर कारण पडे तो पीटना परंतु इससे पहेले न मारना. क्यो कि ऐसा करनेसे पीहरमें चली जाय या अपघात करले या लोगोमें हास्य होने लायक बनाव बन जाय. ( ४ ) मीठा भोजन करना, सो कुछ प्रतिदिन मिष्ट भोजन बनाकर खाने के लिये नही कहा था, क्योंकि वैसा करनेसे तो थोडें ही समयमें धन भी समाप्त हो जाय और बीमार होनेका भी प्रसंग आवे. परंतु इसका भावार्थ यह था कि जहा आपना आदर बहुमान हो वहां भोजन करना क्योकि भोजनमे आदर ही मिठास है अथवा संपूर्ण भूख लगे तब ही भोजन करना. विना इच्छा भोजन करनेसे अजीर्ण रोगकी वृद्धि होती है. (५) सुख करके सोना सो प्रतिदिन सो जानेके लिये नही कहा था परतु निर्भय स्थानमें ही आकर सोना. जहां तहा जिस तिसके घर न सोना. जागृत रहनेसे बहुत लाभ होते है. संपूर्ण निद्रा आवे तव ही शथ्यापर सोने के लिये जाना क्योकि, आंखोंमें निद्रा आये बिना सोनेसे कदाचित् मन चिंतामें लग जाय तो फिर निद्रा आना मुस्किल होता है, और चिंता करनेसे शरीर व्यथित हो दुर्बल होता है, इस
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(१२४) लिये पैसा न करना. या जहां सुखसे निद्रा आवे वहां पर सोना यह आशय था. (६) हरएक गांवमें घर करना जो कहा है उसमें यह न समझना चाहिये कि गांव गावमें जगह लेकर नये घर बनपाना. परंतु इसका आशय यह है कि, हरएक गांवमें किसी एक -मनुष्यके साथ मित्राचारी रखना. क्योकि किसी समय काम पड़ने पर वहां जाना हो तो भोजन शयन वगैरेह अपने घरके समान सुख पूर्वक मिल सके. (७) दुःख आनेपर गंगा किनारे खोदना जो बतलाया है सो दुःख पडनेपर गंगा नदी पर जाने की जरूरत नही परंतु इसका अर्थ यह हैं जब तेरे पास कुछ भी न रहे तब तुम्हारे घरमें रही हुई गंगा नामकी गायको बांधनेका स्थान खोदना. उस स्थानमें दबे हुये धनको निकाल कर निर्वाह करना.
शेठके उपरोक्त वचन सुन कर वह मुग्ध आश्चर्यमें पडा और कहने लगा कि, यदि मैने प्रथमसे ही आपको पूछ कर काम किया होता तो मुझे इतनी विडंबनायें न भोगनी पडती. परंतु अब तो सिर्फ अंतिम हा उपाय रहा है. शेठ बोला-खेर जो हुवा सो हुवा परंतु अवस जैसे मैंने बतलाया है वैसा बर्ताव करके सुखी रहना. मुग्ध वहाले चलकर अपने घर आया और अपने पुराने घरमें जहा गगा गायके वाधनका स्थान था वहा खोदनेसे बहुतसा धन निकला जिससे वह फिरभी धनाढ्य बन गया. अब वह पिताकी दी हुई शिक्षाओंके
आभिप्राय पूर्वक वर्तने लगा. इससे वह अपने माता पिताके समान 'सुखी हुवा.*
SANE* यह कथा हिन्दी कथाओके साथ ही छपवाने वास्त कंपोझ काइथी परंतु भुलसे रह गई और पृष्ट ७५ से प्रश्नोत्तर छप जानेसे और यह कयासीही रह जानेसे गुजराती भाषाके कथाओके साथमे ही यहांपर छपवाई है.
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-3- 3 3 -3-3- 3-4 अनेक विषयोना प्रश्नोत्तरी
प्रश्न १ महा श्रावक कोने कहेवाय ? तना केवां लक्षण कयां छे ?'
उत्तर--" श्रावक योग्य द्वादश व्रतोनुं विधिवत् पालन करे, प्रसिद्ध सात क्षेत्रोमां स्वधन वावे अन दीन दुःखी जनो उपर खास करीने अनुकंपा राखे, तेमा पण सीदाता साधर्मी जनोने हरेक रीते उद्धार करे ते " महा श्रावक ” कहेवाय छे " ए रीते श्री हेमचंद्र सुरिजीए ' योगशास्त्र' मा प्रकाशेलं छे.
प्रश्न २ श्रावकोनो मुख्य शृंगार कयो कह्यो छे ?
उत्तर--- श्री जिनपूजा, विवेक, सत्य, शौच अने सुपात्रदान एज श्रावकपणानो खरो प्रभाविक शंगार जाणवो.
प्रश्न ३ श्री जिनेश्वर प्रभुनी पूजा-सेवा करवाथी शो लाभ थाय छे ? ___ उत्तर--श्री जिनेश्वर प्रभुनी पूजा-सेवा करवाथी चिन्तामणि रत्ननीपेरे सर्व वाछित पूर्ण थाय छे. जगत्मा परम पूज्यभावने पामे छे, धन धान्यादिक ऋद्धि अने कुटुंब परिवार, मान, महत्व, प्रतिष्ठादिकनी वृद्धि पामे छे, तेमज पळी तेथी जय, अभ्युदय, रोगोपशान्ति, सन्तान, प्रमुख मनोभीष्ट अर्थनी सिद्धि थइ शके छे, माटे भाग्यवत भाइ.व्हेनोए प्रमाद दोष दूर करीने त्रिकाळ प्रभुपूजा-भक्ति यथाविध करवा तत्पर रहे युक्त छे.
प्रश्न ४ " प्रभावना " कोने कहीए ? अने प्रभावनाथी केवा लाभ थइ शके ?
उत्तर अठ्ठाइ महोत्सव, स्नात्र उत्सव, श्री पर्युषणा करपचरित्र पुस्तकनुं वाचवू, तथा सीदाता साधर्मी जनोने पुष्ट आलंबन आपी तेमनो उद्धार करवो ए विगैरे जेथी श्री जिनशासननी उन्नति
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( १२६ ) -थाय ते सर्व " प्रभावनाज जाणवी. भावना करतां प्रभावना अधिक छे केमके भावना तो केवळ पोतानेज लाभकारी थाय छे. त्यारे प्रभावना ते स्वपर उभयने लाभकारी थाय छे.
प्रश्न ५ द्रव्य अने भाव स्तवरुप धर्म आराधना करवानी शी मर्यादा कही छे ?
उत्तर—— शास्त्रमां अधिकारी परत्वे (योग्यता प्रमाणे ) धर्म साध-. वानी मर्यादा बतावी छे. एटले के गृहस्थोने द्रव्य स्तवना अधिकारी कला छे, त्यारे मुनि जनोने भाव स्तवना अधिकारी जणान्या छे.
प्रश्न ६ धर्मनु संक्षिप्त लक्षण शुं छे ? अने तेनो केबो प्रभाव छे ?
उत्तर -- अहिंसा, सयम अने तप लक्षणवाळो धर्म दुनियामा उत्कृष्ट मंगळरूप छे. तेमां जेनुं चित्त सदाय रम्या करे छे तेने देवताओ पण नमस्कार करे छे तो पछी बीजाओनुं तो कहेवुज शुं धर्मना प्रभावथी धम्मलादिकनी पेरे इच्छित सुखसंपदा सेहेजे सप्राप्त थाय छे.
प्रश्न ७ धर्म शास्त्रनुं श्रवण करवाथी शु फळे थाय ? अने कोनी पेरे ?
उत्तर शास्त्र श्रवणी धर्म कार्य करवांमा उद्यम करी शकाय, सारी बुद्धि आवे, खरा खोटानो निर्णय थाय. त्याज्या त्याज्य, भक्ष्याभक्ष्यादिकनो विवेक जागे, सवेग - शाश्वत सुख मेळवावा अभिलाषा जागे, अने उपशम - कषायनी शांति थाय. आ प्रमाणे शास्त्रश्रवण करता अनेक लाभ थाय छे, जेम रोहिणीया चोरे श्री वीर प्रभुना मुखथी एक गाथा साभळी स्वकल्याण साध्यं हतुं तेम अथवा " यवराजर्षिने आनायासे सांभळेळी त्रण गाथा गुणकारी थइ हती "ते भवसमुद्रमां वुडतां माणसाने ज्ञान जहाझ तुल्य छे तेमज मोह अंधकारने टाळवा माटे ज्ञानसूर्यमंडळ समान उपकारी थाय छे.
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( १२७ )
प्रश्न ८ श्री जिन भवन कराववा अधिकारी (लायक) कोनेजाणवो?
उत्तर--न्याय नीतिवडे उपार्जित द्रव्यवाळो, मतिमान्, उदार दीलबाळो, सदाचारवंत अने गुरुने तेमज राजादिकने मान्य होय तेने जिनभवन करावा लायक जाणवो.
प्रश्न ९ धर्मशाळा के पौषधशाळाथी शो लाभ था शके ?
उत्तर-- मुनिजनोना निवासपूर्वक त्या धर्म श्रवण, प्रतिक्रमणादिक उत्तम करणी थइ शके. कइ आत्मार्थी जनो गुरु समीपे आवी साध श्रावक योग्य व्रतोने ग्रहण करी महा पुन्य उपार्जी शके, वळी जेम कुरुक्षेत्रमा स्नेहीजनोने पण क्लेशबुद्धि प्रगटे छे तेम धर्मशाळामा के पौपधशाळामा अधमजनोने पण धर्मबुद्धि जागे छ. आम अनेक रीते ते शाळा अनेक भव्यात्माओने वोधिबीज प्राप्ति माटे हेतुरुप थाय छे. तेथी तेनुं निर्माण करावनारा भव्यजनो संसार सागरने तरी परमपद रूप मोक्ष तेने पामे छे.
प्रश्न १० गुरु समीपे कोइ पण प्रकारना व्रतनियम ग्रहण करवाथी कोनी पेरे लाभ थाय ?
उत्तर-- पूर्वे वकचुल नामना राजपुत्र अजाण्यां फळ, राजानी पटराणी, कागडानु मांस अने १० डगला पाछा ओसरी पछी घा करवा संबंधी करेला नियमो तेना जीवित विगैरेनी रक्षा माटे थया हता तेमज कुमारनी टाल जोया पछी भोजन करवाना नियमथी श्रेष्ठीपुत्र कमळने केटलीक काळे सोनाना चरुनो लाम थता ते पछी परम श्रावक थयो हतो, ए रीते नियमथी घणाज लाभ छे.
प्रश्न ११ विषय इंद्रियने परवश पडेल प्राणीओना केवा हाल थाय छे ?
उत्तर-- ज्यारे एक एक इंद्रियना विषयमा लुब्ध बनेला बापडा पतंगयिा, भमरा, माछलां हाथीओ अने हरणीया प्राणांत कष्ट पामे
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छे त्यारे जे मूढ जनो मोहथी अंध बनी एकी साथे ए पाचे इंद्रियोना विषयोमां लीन बन्या रहे छे तेमनुं तो कहेवुं ज शु . आ भवमां परतंत्रादिक प्रगट दु.खने बामे छे अने परलोकमा नीची गति पामे छे.
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प्रश्न १२ नवकार ( नमस्कार ) महामंत्रनुं (गरण क्यारे क्यारे ने केवी रीते कर उचित छे ? अने तेनाथी शाशा लाभ संभवे छे ?
उत्तर भोजन समये, शयन करतां, जागतां प्रवेश करतां, भय अने कष्ट समये यावत् सर्वकाळे सदाय नवकार महामंत्रनुं निश्च स्मरण कर्याज करपुं. मरण वखते जे कोइ ए महामत्रने धारी राखे छे तेनी सद्गति थाय छे. ए महामंत्रनु स्मरण करी करीने अनेक जनो संसार समुद्रनो पार पाम्या, पाने छे अने पामशे. " उत्साह सहित " प्रमाद रहित गणवामां आवता नवकारना प्रभावथी सर्व उपद्रवी तत्काळ शमी जाय छे, सर्व पाप विलय पामे छे अने सर्व प्रकारना भय नष्ट थइ जाय छे.
श्री जिनेश्वरमा पोतानु लक्ष स्थापी प्रसन्न चित्ते, सुस्पष्ट रीते, श्रद्धायुक्त अने विशेषे करीने जितेन्द्रिय सतो जे कोइ श्रावक " एक लाख नवकार मंत्र " जपे छे अने एक लाख श्वत अने सुगंधी पुष्पोवडे यथाविधि जिनेश्वर भगवानने पूजे छे ते जगत् पूज्य श्री तीर्थंकरनी पट्टी प्राप्त करे छे.
वीए महामंत्र दुःखने दूर करे छे, सुखोने पेदा करे छे, यश कीर्ति प्रसरावे छे, भवनो पार करे छे. ए रीतें आ लोकमा अने परलेाकमां सर्व सुखना मूळरूप ए महामंत्र छे. वधारे शुं ? पण तिर्यचपशु पंखी पण अन्त वखते ए महामंत्रना स्मरणथी सद्गति पामे छे.
प्रश्न १३ न्याय मार्गे चालवाथी आ लोकमां तेमज परलोकमा शाशा फायदा थाय छे ?
उत्तर-- न्याय-नीतिना मार्गे एक निष्ठाथी चालतां आलोकमा
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यश, कीर्ति, महत्त्व परभवमा सद्गति, शाश्वत सुख मळे छ तिर्यंचो पण सहायभू नारने तेनो सगो भाई प्रवृत्त थयेला रावणने तंजातनो बंधु बिभीषण चाल्यो गयो हतो अने तेणे न्याय मार्गमा प्रवृत्त एवा रामचंद्रजीनो पक्ष ( आश्रय) लीधो हतो. कोइ पण राजा न्यावंत, धर्मात्मा होय छे त्यारे तेनु " रामराज्य" कवाय छे.
प्रश्न १४ सात विकथाओ सांभळवामां आवे छे ते का?
उत्तर-- १ स्त्रीकथा, २ भक्तकथा, ३ देशकथा, ४ राजकथा, ५ मृदुकारुणिका कथा, ६ दर्शन भेदिनी कथा. अने ७ चारित्र मेदिनी कथा आ सात विकथाओ जाणवी. __ प्रश्न १५ पाक्षिक, चउमासी, अने संवच्छरी प्रतिक्रमणमा क्याथी आरंभीने क्या सुधी छींकने वर्जवी ?
उत्तर चैत्यवंदनथी आरंभी शाति सुधी छीक वर्जवी. एम परंपरा छे, (सेन प्रश्न २१)
प्रश्न १६ संध्यार्नु प्रतिक्रमण कर्या पछी श्रावक देरासर दर्शन , करपा जइ सके ?
उत्तर--- जइ सके. उपाश्रयमा गुरुमहाराज समक्ष प्रतिक्रमण कार्य होय तो प्रतिक्रमण करी गुरु महाराजनी वैयावच्च करी गामना देरासरमा दर्शन करी पोताना घरे जाय: ( आचारोपदेश ग्रंथ पांचमां वर्गमां श्लोक ९ तथा १०)
प्रश्न १७ ज्ञाननी वृद्धि करनारा नक्षत्रो क्या ? उत्तर-- १ मृगशिर, २ पुप्य, ३ आर्द्रा, ४ पूर्वा फाल्गुनी,
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( १३० ) '' ५ पूर्वाषाढा, ६ पूर्वा भाद्रपद, ७ मूल, ८ अश्लेषा, ९ हस्त, अने . १० चित्रा, आ दश नक्षत्रोने ज्ञाननी वृद्धि करनारा कह्या छे.
प्रश्न १.८ चउविहार प्रत्याख्यानमां अणाहार वस्तु कल्पे ?
उत्तर चउविहार प्रत्याख्यानमां लींबडो, गळो, एळीओ, त्रीफळा, कडु करियातुं आदि वस्तु कारणे कल्पे. अणाहार वस्तु पण कारणविना नित्य स्वादने अर्थे अथवा उदर पूर्तिने अर्थे लेवा न कल्पे.
प्रश्न १९ सुकायेलु आदु ( सुंठ ) जो खावाना उपयोगमा लई शकाय तो ते प्रमाणे बीजा बटाटा विगेरे कंदमूळ वस्तु पण सुकवीने वापरवामां शी अडचण ? ' . ___ उत्तर-- सुंठ ए एक हलका औषध तरीके उपयोग करवामा आवे छे, अने ते स्वाभावीक बनावेली तयार मळे छे. ते शाकनी माफक वधारे प्रमाणमां लइ शकाती नथी. बटाटा प्रमुख बीजा कंदमूळो आसक्तिथी खावामा आवे छे अने ते खास पोताना माटेज सुकावी राखपा पडे छे. अने वधारे प्रमाणथी लेवाय छे अने वधारे प्रमाणमा वापरवाथी घणाजजीवानी हिंसानो प्रसंग आव. तथी तवी वस्तुओ बनावीने तेनो खावामां उपयोग करवो नही.
प्रश्न २० साध्वीजी महाराज श्रावक समुदाय सन्मुख व्याख्यान करी शके के नहि ? ___ उत्तर-- मुनिमहाराज न होय तो साध्वीजीओ -बाइयोनी सामे व्याख्यान करे, पुरुषो तो पड सीने सामळे ते जुदी बात छे.
प्रश्न २१ साध्वीजी महाराज पुरुषोना मस्तक पर वासक्षेप करी शके ?
उत्तर धर्ममां पुरुषोत्तमता होवाथी सावीजी पुरुषना मस्तक पर वासक्षेप करे ते उचित नथी.
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( १३१) JANKA R* **** र सदबोध पद्यावली संग्रह. ॐ
वैराग्य पद पहलू (वंदना वंदना वंदनारे, गिरिराजकुं सदा भेरी चंदना-ए चाल)
॥ तानमा तानमा तानमा रे, मत राचो संसारना तानमा । एक दिन बाजी सर्व छोडीने, सुq पडशे शमशानमा रे || मत राचोक ॥ १ ॥ धन यौवनना मदमा मातो, अधिक रहे मन मानमां रे ॥ ॥ मत० ॥ तप जप व्रत पच्चखाण न करतो, अभक्ष भक्षे खानपानमा रे ॥ मत० ॥ २ ॥ आरंभी करी बहु प्राणी पीडे, समझे नहि तुं सानमा रे॥ मत० ॥ कूड कपट छल भेद करीन, तिर्यच थशो मरी 'सनमारें। मत० ॥ ३ ॥ जीभ तणो यश लेवा काजे, विकथा कर दोय ध्यानमां रे ॥ भत ० ॥ देवगुरु जैनधर्भ निंदीने, पडश नरक दुःखाणमा रे ।। मत० ॥ ४ ॥ धरमीजन देखीने हसतो, गर्व अधिक गुमानमारे ॥ मत० ॥ अशुभ कर्म हसतां जेह वाधे, रोता न छुटशे रानमा रे ॥ मत० ॥५॥ चरी चोमासुं साढ जेम मातो, तेम कुदे अभिमानमारे मत० ॥ झगडा करतो जात लज्जावे, मोह मिथ्यात्व मेदानमा रे ॥ मत० ॥ ६ ॥ लाडी वाडी ने गाडी घोडा थी, शुं मोद्यो सदा तेनावानमा र॥ मत०॥ मेडी मोलातो बागने बंगला, छोडी जवु आवशानमा रे ॥ मत० ॥ ७ ॥ पाप तणा बहु पोटला बांध्या, पर दुःख दई अभिमानमारे ॥ मत० ॥ आल्यो तु एकने एकलो जाइश, पुन्य पाप दो जणा जानमा रे ॥ मत० ॥ ८॥ पडी जाशे पलमा तुज काया, अंते ताहरी ते "जाणमा रे ।। मत ॥ क्षण क्षण करी घटतुं तुज आयु, माची रह्यो \ मानमां रें
१ जंगल. २ आर्त ने रोद्र. ३ जंगल. ४ रूपमां ५ मरणवेळा. ६ पर • लोकनी जानमां. ७ नहि जाण.
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( १३२ )
॥ मत० ॥ ९ ॥ सद्गति दाता सद्गुरु वयणा, सांभळे नहि तुं कानमां रे || मत० || मारुं मारुं करतो मन माचे, ताहरु नथी तिल मानमा रे || मत० ॥ १० ॥ परोपकार कर्यो नहि पापी, शुं सम जावुं सानमा रे || मत० ॥ नाथ निरंजन नाम जप्युं नही, निशदिन रहे. दुर्ध्यानमा रे ॥ मत० ॥ ११ ॥ कांईक सुकृत काम करी ले, चित्त राखी प्रभु ध्यानमा रे || मत० ॥ साचो संबल साये लेजो, रवि मन राखी ज्ञानमा रे || मत राचो० ॥ १२ ॥ ( इति ) ॥ पद बीजुं (वैदर्भी वनमां वलवले - ए राग, ) ॥ चेती ले तुं प्राणिया, आव्यो अवसर जाय ॥ स्वारथिया संसारमा, हे ते शुं हरखाय ॥ चेती० ॥ १ ॥ जन्म जरा मरणादिके, साचो नहि स्थिर वास || आधि व्याधि उपाधिथी, भवमां नहि सुख वास. ॥ चेती० ॥ २ ॥ रामा रुपमा राचीने, जोयुं नहि निज रूप || फोगट दुनीया फेदमा, सहेतो विषमी धूप. ॥ चेती० || ३ || मात पिता भाइ दीकरा, दारादिक परिवार || भरतां साथ न आवशे, मिथ्या सहु संसार. ||चेती० ॥ ४ ॥ चिंतामणि सम दोहीलो, पाम्यो मनु अवतार ॥ अवसर आवो नहि मळे, तार आतम तार ॥ चेती० ॥ ५ ॥ जेवी संध्या वादळी, क्षणमा विणशी जाय || काचकुंभ काया कारमी, देखी शुं हरखाय ॥ चेती० ॥ ६ ॥ माया ममता परिहरी, भजो श्री भगवान् ॥ कर होय ते कीजीए, तप जप पूजा दान ॥ चेती० ॥ ७ ॥ केइक घाल्या घोरमा, बाल्या के मशाण || आंख मचाए शून्यता, पडता रहेशे प्राण. ॥ चेती० ॥ ८ ॥ वैराग्ये मन वाळीने चालो शिवपुर वाट ॥ बुद्धिसागर माडजो, धर्म रत्ननुं हाट ॥ चेती० ॥ ९ ॥ इति
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|| पद तीजुं ( कानुडो न जाणे मोरी प्रीत-ए रांग ) .
॥ चेतन स्थारयीयो संसार, संगपण सर्वे खोटां रे ॥ चेतन० ॥ जुठी छे काया वाडी, न्यारी छे गाडी लाडी || फोगट शाने मन फुलाय, अंते
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(१३३)
सर्वे जाशे रे. ॥ चेतन० ॥१॥ हाके धरणी ध्रुजावे, भय तो दीलमा नही लावे ॥ चाल्या रावण सरखा राय, पाडव कौरव योद्धारे. ॥ चेतन० ॥२॥ स्वारथथी जुठां वाले, स्वास्थथी जुठां तोले ॥ स्वारथ माटे युद्धो थाय, लडतां रंकने राणा रे. ॥चेतन०॥३॥ स्वास्थथी नीति त्याग, स्वारथथी पाये लागे। स्वारथ कपट कळानु मूळ, पाप अनेक करावे रे. ॥ चेतन० ॥ ४॥ स्वारथमा सर्व डुल्या, भणतर भणीन मुल्या।।स्वारथ आगळ सत्य हणाय, अंधा नरने नारी रे.॥ चेतन०॥ ॥ ५॥ स्वास्थथी मस्तक कापे, स्वास्थथी पदवी आपे ॥ स्वारथ आग शानो न्याय, बहेरा आगळ गाणु रे. ॥ चेतन०॥६॥ स्वारथथी वीरला टया, स्वारथमा सर्व खुच्या । जगमा स्वार्थतणो परपंच, न्याय चुकादाभळी रे. ॥ चेतन०॥७॥ धर्मी स्वारथने त्यागे, दोलमा आतमना रागे ॥ तम रविकिरणे स्वारथ नाश, होवे आतम ज्ञाने रे ॥ चेतन० ।। ८ ॥ परमारथ प्रीति घारी, सेवो गुरु उपकारी ।। बुद्धिसागर घरजो धर्म, दुनीया सर्व विसारी रे. ॥ चेतन० ॥ ९॥ (इति.)
कलदार स्वरूप पद, (मान मायाना करनारा रे-ए देशी) . ॥ सुखकारा जगत सुखकारारे, एक देखा अजब कलदारा ॥ मन मोहे टनन टनकारारे ॥ एक देखा० (अचली) पास होवे कलदार जिन्होंके, वे ही जगत सरदारा ॥ गुणी नहीं पिण गुणी कहावे, जन्म सफल संसारा रे ।। एक०॥१॥ बंक बिल्डीगे हाट हवली, कलदारका चमकारा ॥ राजे महाराजे खालम खाली, कलदार विन 'भंडारा रे ॥ एक० २ ॥ कलदारसे कुलवान कहावे, कलदारसे मिले दारा ॥ कर्लदार रोटी कलदार कार्ड, कलदार स्त्रो शृंगारारे ॥ एक० ३ ॥ कलदार मोटर कलदार बग्बी, कलदार गज हुशियार) ॥ कलदार घोडा कलदार पाला, कलदार सब व्यवहारारे । एक० ४ ॥ कलदार जे. पी. कलदार नाइट, कलदार मामलतदारा ॥ कलदार प्लाडर कलदार
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एटलो, कलदार कुल मुखतारारे ॥ एक० ५ ॥ कलदार गाडी कलदार पाडी, कलंदार होटल सारा | कलदार खुरसी कलदार गादी,
कलदार बैठनहारारे ॥ एक० ६॥ कटदार विद्या कलदार हुन्नर, __ कलदार खिजमतगारा ॥ कलदार सूरत कलदार बुद्धि, कलदार बोल
नवारारे ॥ एक० ७ ॥ कलदार बेटा कलदार बायु, कलदार भाई प्यारा ॥ फलदार मामा कलदार'काका, कलदार साला सारारे।। एक० ८ ॥ कलदार बाबू कलदार राजा, कलदार सेठ साहुकारा ॥ कलदार बत्ती कलदार दीवा, कलदार विन अंधारारे ॥ एक० ९ ॥ कलदार दौलत कलदार औरत, कलदार वस जग सारा || कलदार कलदार कलदार कलदार, कलदार जग जयकारारे ॥ एक० १०॥ वसमें नहिं कलदारके साधु, आतम लक्ष्मी आधारा ॥ कलदार विन मुनि वल्लभ जगको, हर्ष अनुपम धारारे ॥ एक० ॥ ११ ॥ (इति)
। परनारीका त्याग करनेपर पद. दोहा- पाप मत करो प्राणीया, पाप तणा फल एह ॥ पापके कारण जाणजो, अग्नि में भूजे देह ॥ १॥ परनारी पयनी बुरी, तान ठाडस खाय ।। धन व जोबन घटे, पत पंचोमें जाय ॥२॥परनारीके कारणे, राजा रावण जाण ॥ तीन खंडको साहीबो, नर्क योनीमें जाय ॥ ३ ॥ इस कारण तुं देखले, नर्क दुःख अण पार ॥ वाक हमारा है नहीं, अब क्यौं रोवे गिवार ॥ ४ ॥ परनारीको देखकर, मनमें __ अति हरखाय ।। इसी पापक कारणे, नवंस उसको जाय ॥ ५ ॥
चाथा नरक जो मोगवे, राजा रावण जाण ॥ परनारके कारणे, तज्यो आफ्नो प्राण ॥ ६ ॥ (इति),
(मेरे भोला बुलालो मदीने मुझे-एं चाल) ॥ पर नारीसे प्रति लगावो मती. धन योवन विरथा गमावो मती॥ पर० (अंचली) परनारीके प्रसंगसे. रावनकी क्या हालत भइ॥ .
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लंका गई इजत गई, और जान भी जाती रही । ऐसे जानके प्रीत लगावो मती ॥ पर० ॥ १ ॥ परनारीके प्रसंगसे, मणीरथसे फणीघर लेडा ॥ नारी मीली ना धन मीला, और नर्क भी जाना पड़ा। ऐसे जातीको नीचे दिखावो मती ।। पर० ॥ २ ॥ परनारी के प्रसंगसे, पद्मोतरकी बिगडी गती || अपयश हुवा जीता मुघा, श्री कृष्णको सौपी सती ।। ऐसे लज्या हीन कहाओ मती ।। पर० ॥३॥ परनारी है छानी छुरी, देखो कही लग जायगी ॥ बचा रहो इनसे सदा तो, जिंदगी बच जायगी ॥ प्यारे विषयनमें ललचाओ मती॥ पर० ॥ ४ ॥ हसका कहना यही, परनारकी सोबत तजो।। ज्ञान सीखो त५ करो, भगवानको शुद्ध मन भजो ॥ बुरी वाता पे ध्यान लगावो मती ॥ पर० ॥ ५ ॥ (इति)
रोहाका त्याग करनेपर पद पर (अलख देखमें वास हमारा, मायासे हम है न्यारा-ए चाल)
॥ कहे सेठाणी सुणो सेठजी, सट्टो थे तो करो मती || सट्टाको सजगार बुरो हे, केई बिगड गये क्रोडपति ॥ ( अंचली) पेला में तो नही समजती, सट्टाको रुजगार किसो ॥ जब सट्टामें लगी समझने, सट्टे कर दियो असो मसौ। केई जणा तो बिगड़ गया है, केई लगा गया संमत मिति ॥ सट्टाको० ॥ १ ॥ चंद्रहार बोझामें दीनो, ठुस्सी दीनी बोरीमें ।। गेंद दिया गलियां के भाहि, विलकुल हो गई कोरी में || आगे थाने घणा वरजिया, थे नहीं मान्या मेरा पति || सट्टाको० ॥ २॥थे मागी सधली दे दीनी, एसी हो गई भोली में ।। सट्टो कदी करो मत सेठा, आगो बालो होली में । हाट हवेली सबली वेची, सोनों रुपो रती रती ॥ सट्टाको० ॥ ३ ॥ ऊचा नीचा भाव जो आवे, जदी सट्टावाला घबराये ॥ बारे बजा लग निंद न आवे, आर्तध्यानमें लग जावे ।। अये थे काइ भने वेच
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(१३६ ). सो, विगड गइ हे बुद्ध मती ॥ सट्टाको०॥४॥ खोयो घणो कमायो थोडो, फस गया खोटा धंधा में | वरण नही चुकावोगा तो, लोग मारसी दोठा में ॥ लोग दिवाल्या थांने केसी, सुण्या नही जावे मेरा पति ॥ सट्टाको० ॥ ५ ॥ दो हजार जावदमें गुमाया, दस हजार मंमाईमें || आडतीया की चिठी आइ, थांने बांच सुणाई में।, कहे सेठाणी सुणो सेठजी, सोचतो दिलमें करो मति ॥ सट्टाको० ॥६॥ संवत् उगणीसो साल पिच्चोतर, फागण मासमें ख्याल रची। रतनलाल यु कहे सभा में, सट्टे कर दियो असो मसो॥ बडे बडे साहु कार जिनकी, बिगड़ गई बुद्धि मति ॥ सट्टाको० ॥ ७ ॥ (इति)
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वाचकोंको खास जरूरी सुचना. सब कोई भव्यात्माओंको पवित्र ज्ञानामृतका अपूर्व लाभ अनुकुलतासे भाले इस शुभ इरादेसे भेट तरीके या अल्प मूल्य में देनमें आनेवाली कोई पुस्तकपर ममत्व बुद्धि रखकर पुस्तकका दुरुपयोग करना नही. परंतु प्रमाद रहित पुरी जिज्ञासा र रउस पुस्तकका आप पांचके लाभ लेकर दूसरे जिज्ञासु भार बहेनोंको पुस्तकका वांचनका लाभ सबकुं छूट से लेने देना. आरे इसी तरहसे दुगुणा लाभ मिलाकर पुस्तकका पवित्र उद्देश सफल करना. इस तरहकी हर भाई वहनोको नम्रतासे सूचना करने में आती है. जिस उच्च उद्देशसे पुस्तको देनेमें आती है उसको सफल बनाना और ग्रन्थकी किसी प्रकारसे आशातना नही करनी यही वाचकोको विनति है. संवत १९९३ ज्ञान पंचमी. .. आपका शुभेच्छ. शाह. शिवनाथ ढुंबाजी-पोरवाल,
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