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धर्मकथा रुप ए पांच प्रकारका है उनका उपयोग करना सो (४), ध्यान-शुभ ध्यानको चिंतन और अशुभ ध्यानका विस्मरण करना यानि मलीन विचारोंको दूरकर शुभ या शुद्ध-निदोष विचारोंको धारण करना.आत्म-परमात्मकाएकाग्रतासे चिंतन करना, और बैहिवृत्ति
छोड अंतरवृत्ति भजनी सो (५). कासग-देहकी तथा उनकी साथ __ लगे हुवे मन और वचनकी चपलता दूर कर ही तत्पर-लीन होना सो (६), यह छ अभ्यंतर तप है.
अंतर शुद्धि करनेके वास्ते अवंध्य कारणभूत होनेसे वो अभ्यंतर तप कहा जाता है. अभ्यंतर तपकी पुष्टि हो वैसा बाह्य तय करना ऐसा सर्वज्ञ भगवानने भव्य जीवोंके लिये कथन किया है; वास्ते वो अवश्य तप आदरने योग्य है. तपके प्रभावसे अचिंत्य शक्तिये प्रकटती है, देव भी दास होते है, असाध्य भी साध्य होता है, सभी उपद्रव शांत होते है, और सब कमल दहन हो शुद्ध सुन्नकी तरह अपना आत्मा निर्मल किया जाता है; वास्ते आत्मार्थी-मुमुक्षु
वर्गको उनका सदा विवेक पूर्वक सेवन करना योग्य है. तप सच्चा __पही है कि जो कर्ममलको अच्छी तरह तपाक साफ कर देव..
भावनाः धर्म कार्य करने के भीतर अनुकूल चित्त व्यापार रूप है. पैसी अनुकूल चित्तवृत्ति रूपकी प्राप्तिक सिवाय धर्मकरणी चाहिए पैसा फल नहीं दे सक्ती है. यावत चित्तकी प्रसन्नताके बिगर . की गई या करानेमें आती हुई करणी राज्यवेठ समान होती है. वारते सब जगह भाव प्राधान्य रुप है, भाव बिगरका धर्मकार्यभी अलने धान्य गोजन जैसा फीका लगता है, और वो भाव सहित होवे तो सुंदर लगता है. इस लिये हरएक प्रसंगमें शुद्ध भाव अवश्य
आदरने योग्य है. सर्वकथित भावना ए भव संसारका नाश करती है. भैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता रु५ चार भावनायें भवभया