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सेवन करना उनके समान एक भी उत्तम धन नहीं हैं. शील परम मंगलरूपी होनेसे दुर्भाग्यको दलन करनेवाला और उत्तम सुख देनेवाला है. शील तमाम पापका खंडन करनेवाला और पुण्य संचय करनेका उत्कृष्ट साधन है, शील ये नकली नही मगर असली आभरण है, और स्वर्ग तथा मोक्ष महेलपर चढनेकी श्रेष्ठ सीढी है. इस लिये हरएक मनुष्यको सुखके वास्ते शील अवश्य सेवन करने लायक है. शीलवतको पूर्ण प्रकारसे सेवन करनेसे अनेक सत्वाका कल्याण हुवा है, होता है, और भविष्यमें होयगा. ___ तपः-कर्मको तपावे सोही त५. सर्वज्ञने उनके बारह भेद कहे है यानि छः बाह्य और छः अभ्यंतर एसे दो भेद सामिल होकर बारह होते है, उसकी नाम संख्या भेद नीचे मुजब है.
अनशन-उपवास करना सो (१), उनोदरी-दो चार कपल कम खाना सो।२), वृत्तिसंक्षेप-विवेक-नियम मुजव मित अन्नजल आदि लेना सो (३), रसत्याग-मद्य, मांस, शहद, मलखन, ये चार अभक्ष्य पदार्थोंका बिलकुल त्याग के साथ दुध, दही, घी, तेल, गुड और पकान्न वगैर.का विवेकसे बन सके उतना त्याग करना सो (४), कायाक्लेश आतापना लैनी, शीत सहन करनी सो (५), और संलीनता अगोपाग संकुचित कर-एकत्र कर स्थिर आसनसे बैठना सो (६) ये छः बाह्य तप कहे जाते है. अब छः अभ्यंतर तप पतलाते है.
प्रायश्चितः-कोई भी जातका पाप सेवन किये वाद पश्चाताप पूर्वक गुरु समक्ष उनकी शुद्धि करने के वास्ते योग्य दंड लेना सो (१) विनय-चाहे वो सद्गुणीकी साथ नम्रता सह वर्जन, सद्गुण समझकर उनका योग्य सत्कार करना सो (२), वैयावच्च-अरिहत, सिद्ध, आचार्य वगैरः पूज्य वर्गकी बहुतमान पुरःसर भक्ति करनी सो (३), स्वाध्याय-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और