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________________ (२) तिन्हा भोग हो पडता है और उप्रांत - अंतमें नरकादि घोर दुःखके भागीदार होना पडता है. २ निरंतर इंद्रिय वर्गका दमन करना. दरेक इंद्रियका पतंगजतु, भौरा, मत्स्य, हाथी और हिरनकी तरह दुरुपयोग करना छोड़कर संत जनोंकी तराह इंद्रियों का सदुपयोग करके दरेकका सार्थक्य करनेके लीए खंत रखनी चाहिये. एक एक छुट्टी की हुई इंद्रिय तोफानी घोडेकी तरह मालिकको विषम मार्गमें ले जाकर ख्वार करती है, तो पांचोको छुट्टी रखनेवाले दीन अनाथ जनका क्या हाल होवे ? इसी लिए इंद्रियों के ताबेदार न बनकर उन्होको वश्यकर स्वकार्य साधनमें उचित रीति जव प्रवर्त्तावनी चाहिये. किपाक तुल्य विषयरस समझकर तिसकी लालच छोडकर संत दर्शन, संत सेवा, संत स्तुति, सत वचन श्रवणादिसे वो इंद्रियों का सार्थक्य करनेके लिए उद्युक्त रहकर प्रतिदिन स्वहित साधनेको तत्पर रहना उचित है. ३ राय वपन ही बोलना. धर्म का रहस्यभूत ऐसा, अन्यको हितकारी तथा परिमित, जरूर जितनाही भाषण औसर उचित करना, सोही स्वपरको हित कल्याण कारी है. क्रोधादि कषायके परवश होकर वा भयसे या हांसीके खातिर अज्ञजन असत्य बोलकर आप अपराधी होते है, सो खास ख्याल रखकर तैसे वरुतमें हिम्मत धारण कर यह महान् दोष सेवन नहि करना. सत्यसे युधिष्टिर, धर्मराजाकी गिनती गिनाये गये, ऐसा जानकर असत्य बोलनेकी या प्रयोजन बिगर बहोत बोलने की आदत छोडकर हितमितभाषी बन जाना, किसीको अप्रीति खेद पैदा होय तैसी बोलनेकी आदत यत्नसे छोड देनी.
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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