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(३) ४ शील कबीभी छोडना नहि. ब्रह्मचर्य व्रत या सदाचारके नियमे चाहे पैसे संकट में भी लोप देनेकी इच्छा नहि करनी. सत्यवंत अपने व्रतोको प्राणोंकी समान गिनते है, और प्राणात तलक तिन्हकी खंडना नहि करते है याने अखंडव्रती रहते है, सोही सच्चे शूरवीर कहे जाते है. ५कबीभी कुशील जनके संग निवास करना नहि.
तैसे हलके आचारवाले के साथ रहनेसे 'सोवते असर ' यह कहेवत मुजब अपने अच्छे आचारोंको अवश्य धोखा धका पहुंचता है और लोकापवादभी आता है इसी लिये लोकापवाद भीरुजनोंको तैसे भ्रष्टाचारीयोंकी सोबत सर्वथा त्याग देनीही योग्य है. सोबत करनेकी चाहना हो तो कल्पवृक्षके समान शीतल छाउंके देनेवाले संत पुरुषकोही सोबत करो, जिस्से सब संसारका ताप टालकर तुम परम शांत रस चाखनेको भाग्यशाली बन सको.
____६ गुरुवचन कदापि लोपना नहि.
एकांत हितकारी-सत्य-निर्दोष मागकोही सदा सेवन करनेवाले और सत्य मार्गको दिखानेवाले सद्गुरुका हित वचन कदापि लोपन करना नहि. किन्तु प्राणात तक तद्वत् वर्तन करनेको प्रयत्न करना यही शास्त्रका साराश है. तैसे सद्गुरुकी आज्ञा पूर्वकही सव धर्म-कर्म-कृत्य सफल है. अन्यथा निष्फल कहा जाता है. इस लिये सदा सद्गुरुका आशय समझकर तद्वत् वर्तनमें उद्युक्त रहना यही सुविनीत शिप्यका शुद्ध लक्षण है.
७ (अ) चपलता अजयणारो चलना नहि. __ अजयणासे चलने के सबबसे अनेकशः स्खलना होनेके उपरात अनेक जीवोंका उपघात, और किचित् अपनाभी धात- होनेका