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१८ किसीके अगाडी दीनता दिखलानी नही. __ तुच्छ स्वार्थके खातिर दूसरेके अगाडी दीनता बतानी योग्य __ नहि है. यदि दीनता-नम्रता करनेको चाहो तो सर्व शक्तिमान सर्व
ज्ञकी करो. क्योंकि वो आप पूर्ण समर्थ है और अपने आश्रितकी भीड भांग सकते है, मगर जो आपही अपूर्ण अशक्त है वो शरणागतकी किस प्रकारसे भीड भांग सके ? सर्वज्ञ प्रभुके पास भी विवेकसे योग्य मंगनी करनी योग्य है. वीतराग परमात्माकी किंवा निग्रंथ अणगारकी पास तुच्छ सांसारिक सुखकी प्रार्थना करनी उचित नहि है. तिन्होंके पास तो जन्म मरणके दुःख दूर करनेकाही अगर भवभवके दु.ख जिस्से हट जाय एसी उत्तम सामग्रीकीही प्रार्थना करनी योग्य है. यद्यपि वीतराग प्रभु राग द्वेष रहित है; तथापि प्रभुकी शुद्ध भक्तिका राग चिंतामणीरत्नकी सादृश फलीभूत हूए विगर रहेता नहि. शुद्ध भाक्त यहभी एक अपूर्व पश्यार्थ प्रयोग है. भक्तिसे कठिन कर्मकाभी नाश हो जाता है, और उससे सर्व संपत्ति सहजहीमें आकर प्राप्त होती है. ऐसा अपूर्व लाभ छोडकर बवूलको भाथ भरने जैसी तुच्छ विषय आशंसनासे विकलयनसे तैसीही प्रार्थना प्रभुके अगाडी करनी के अन्यत्र करनी यह कोई प्रकारसे सुज्ञजनोको मुनासिवही नहि है. सर्व शक्तिवत सर्वज्ञ प्रभुके समीप पूर्ण भक्ति रागसे विवेक पूर्वक ऐसी उत्तम प्रार्थना करो यावत् परमात्म प्रभुकी पवित्र आज्ञाको अनुसरनेके लिये ऐसा उत्तम पुरुषार्थ स्फुरायमान करो के जिरसे भवभवकी भावट टलकर परमसंपद् प्राप्तिसे नित्य दिकाली होय, यावत् परमानद प्रकटायमान होय, मतलब कि अनत अबाधित अक्षय सहज सुख होय. सेवा करनी तो ऐसेही स्वामीकी करनी के जिस्से सेवक भी स्वामीके समानही हो जावे.