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हो तो विचार कर हित मितही भाषण करना. अगर रसलंपट होकर जीव्हाको वश्य पड रोगादि उपाधि खडी होती है. तथा मर्यादा बहार जाना नहि. जीभके वश्य पढे हुवेकी दूसरी इंद्रियें कुपित होकर तिन्होंको गुलाम बनाके बहोत दुःख देती है. इस हेतुसे सुखार्थी जन जीभके ताबे न होकर जीभकोही तावे कर लेवे बोही सबसे बहत्तर है.
१० बिना बिचारे कुछभी नहि करना.
सहसा---अविवेक आचरण से बडी आपदा - विपत्ति आ पडती है. और विचारकर विवेकसे वर्तने वालेको तो स्वयमेव संपदा आ कर अंगीकार कर लेती है. वास्ते एकाएक साहस काम कीये बिगर लंबी नजरसे बिचारके, उचित नीति आदर के वर्तना के जिस्से कबीभी खेद पश्चाताप करनेका प्रसंगही आता नहीं. सहसा काम करने वालेको बहोत करके तैसा प्रसंग आये बिना रहेताही नहीं है. ११ उत्तम कुलाचारको कबीभी लोपन करना नहि.
उत्तम कुलाचार शिष्ट मान्य होनेसे धर्म के श्रेष्ट नियमोकी तरह आदरने योग्य है. मद्यमासादि अभक्ष्य वर्जित करना, परनिंदा छोड देनी, हसवृत्तिसे गुणमात्र ग्रहण करना, विषयलपटता-असंतोष तजकर सतोष वृत्ति धारण करनी, स्वार्थवृत्ति तजके निःस्वा थेपनसे परोपकार करना, यावत् मद मत्सरादिका त्याग कर मृदुतादि विवेक धारणरुप उत्तम कुलाचार कौन कुशल कुलीनको मान्य न होय ? ऐसी उत्तम मर्यादा सेवन करनेवालेको कुपित हुवा कलिकालभी क्या कर सकता है ?
१२ किसीको मर्मवचन कहेना नहिं .
मर्म वचन सहन न होनेसे कितनेक मुग्ध लोग मानके लिये मरणके शरण होते है, इस लिये तैसा परको परितापकारी वचन