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(११) दोष है. इसे महान् पुरुषोंका अपमान होता है. ऐसे महत्पुरुषोंकी आशातना-अवमानता करनेसे कर्मबंधन कर आत्मा दुःखी होता है. सज्जन पुरुषोंकी यही रीतिही नहि है. सज्जन पुरुषो तो दूसरेके परमाणु जितनेभी गुणोंको बखानते है, और अपने मेरुके समान बड़े गूणोकाभी गान नहि करते. तो गुणके बिगर घमंड रखकर अपूर्ण घटकी तराह न्यूनता दिखानी सो कितनी बडी भूल और बिचारने जैसी बात है. यह बातका विचार कर पूर्ण बडेकी समान गंभीरताइ धारण करनी शीख लेनी और आप बडाइ करनी छोड़ देनी; क्यों कि आपबडाइ करनेमें कदम दर कदम पर निंदाका दोष लगता है. पर निंदाके पाप अति बूरे होनेसे मिथ्या आपवडाइ करनेवाला प्राणी तैसे पापकर्मोसे अपने आत्माको मलीन कर परमवमें या क्वचित् यही भवमें बहोत दुःखी हालतमें आ जाता है.
२२ दुर्जनकी भी कबी निंदा नहि करनी, ___ परनिंदा करनेसे कुछभी फायदा नहि है, मगर निदा करनेवालेको बडा गेरफायदा होता है. अपना अमूल्य वस्त गुमाकर आपही मलीन होता है. निंदा यह हामनेवालेको सुधारनेका मार्ग नहि है किंतु विगाडनेका रस्ता है, ऐसा कहाजाय तो कुछ जूठा नहि है. सज्जन जन तो तैसे निंदकोसे ज्यादा ज्यादा जाग्रत -सचेत रहकर गुण ग्रहण करते है लेकिन दुर्जन तो उलटे कुपित होकर दुर्जनताकीही वृद्धि करते है. इस लिये दुर्जनको निंदासेमी हानिही हाथ आती है. संत-सज्जनोकी निदासे सज्जन जनकोतो कुछभी औगुन मालुम होता नहि है; तदपि तैसे उत्तमा पुरुषोंकी नाहक निंदा करनेमें आशयकी महा मलीनता होने के लिये निकाचित् कर्मबंधकर निदक नरकादि अधोगतिमेंही जाते है.