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__ रुपी श्रेष्ट स्त्रीनी साथे रमण करी केवळ निवीण सुखना अभिलाषी महाशयोज रात्रीने समाधिमा गाळे छे.
(१४ ) शुद्ध ध्यानरुपी महा रसायणमां जनुं मन मग्न थयु छे, तेने कामिनीना कटाक्ष वगेरे विविध हावभावो शु करनार छे ?
(१५) सम्यग् ज्ञानरुपी जेना उंड। मू छे, समकितरुपी जेनी मजबूत शाखा छे, एवा व्रत-वृक्षने जणे श्रद्धाजळथी सिच्यु छेतेने अवश्य मोक्ष आपे छे. स्वर्गादिकना सुख तो पुष्पादिकनी पेरे प्रासंगिक छे, तेतो सहजमां प्राप्त थइ शके छे.
(१६) क्रोधादिक उग्र कषायरुपी चार चरणवाळो. व्यामोहरूपी सुंढवाळो, राग द्वेषरुपी तीक्ष्ण दीर्च दांतवाळो, अने दुरि कामथी मदोन्मत्त थयेलो, महा मिथ्यात्वरुपी दुष्ट गजने सम्यग ज्ञान-अंकूशना प्रभावथी जेणे वश कर्यो छे, ते महानुभावेज त्रणे लोकने स्ववश कर्या छ एम जाणवू.
(१७) यशकीर्तिने माटे पोतानुं सर्वस्व आपी दे एवा, अने पोताना स्वामीने माटे प्राण पण आपी दे एवा, बहु जनो मळी आवशे, पण शत्रु मित्र उपर जेमनु मन समरस ( सरखं ) वर्ते छे एवा तो कोई विरलाज देखाय छे.
(१८) जेर्नु हृदय दया छे, वचन सत्यभूषित छ, अने काया परमार्थ साधनारी छे, एका विवेकवानने कळिकाळ शु करी शकवानो छ ?
(१९) जे कदापि असत्य बोलतोज नथी, जे रणसंग्राममां पाछी पानी करतो नथी, अने याचकोनो अनादर करतो नथी, तेवा रत्नपुरुषथीज आ पृथ्वी रत्नवती कहेवाय छे. केमके कहेवाय छे के–'बहुना वसुंधरा.'
(२०) सर्व आशारुपी वृक्षने कापवा कुवाडा जेवो काळ, जो