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(४६) .५४ धर्म ( शास्त्र ) श्रवण करनेमें तीव्र रुची करनी जैसे कोइ सुखी और चालाक युवान बहोत उत्साहसे देवी गायन नादको अमृत समान जानकर श्रवण करे तैसे बल्कि तिरसेमी अधिक उत्कंठासे शास्त्र श्रवण करना योग्य है. शास्त्रपाणी श्रवण करनेमें बडी सकर-द्राक्षसेभी ज्यादा मिटता पैदा होती है. _५५ धर्मसाधन करनेपर बहोत रुची रखनी जैसे कोई ब्राह्मण जंगल उल्लंघन करके थकित बनकर बेहोश हो गया हो और उस्को बहोतही भूक लगी हो, उस परत कोइ सख्स उसे धेबरका भोजन दे दे तो बहोतही रुचिदायक हो. तैसे मोक्षार्थीको धर्मसाधन करना रुचिकर होना चाहिये.
५६ देवगुरुका वैयावच करने में कपाश नहि रखनी चाहिये- जैसे विद्यासाधक प्रमाद रहित विद्या साधनमें तत्पर रहेते है, तैसे शुद्ध देव गुरुका आराधन करनेमें कुशलता रखनी आत्मा
ओंको योन्य है.
५७ विनयका स्वरुप समझकर अरिहंतादिकका निम्। लिखे मुजब आदर रखना १ भक्ति (बाह्य उपचार), २ हृदयप्रेमबहु मान, ३ सद्गुणोंकी स्तुति. ४ अवगुन-दोषदृष्टिका त्याग करना और ५ बनते तक आशातनाओसे दूर रहना. . ५८ शुध्द समकित पालना (मन, वचन और कायासे ) श्री जिन और जैनमार्ग बिगर समस्त असार है, ऐसा निश्चय करनेसे मनसे, श्री जिनभाक्तसे जो बन सके सो करनेवाला दुनिया में दसरा कौन समर्थ है, ऐसा कहनेसे पचनसे, और अडगपनसे श्री जिनके सिवा अन्य कुदेवको कबिभी प्रणाम नहि करनेसे कायासे, ऐसे त्रिकरण शुद्धिसे सम्यकत्व पालना.. ____ ५९ जैनशासनको प्रभावना करनमें तत्पर रहना पवित्र