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तिन्हकों सर्वथा दोष रहित होनेसे झूट बोलनेका कुछ प्रयोजन, नहि है, इसे निःशंकपणे श्री जैनशासनकी शुद्ध दिलसे सेवा करनी. प्राणात होनेसेभी पाखंडी लोगोंने फेलाई हुई जाळमेंफसाना नहि. -
४७ धर्म संबंधी फलका संदेह करना नहि जो साक्षात' धर्म कल्पवृक्षका सेवन करके तीर्थकर गणधर प्रमुख असंख्य मनुप्याने साक्षात सुखका अनुभव कीया है उस पवित्र धर्मके अमोध फलका संदेह निर्बल मनवाले मनुष्य सिवाय दुसरा कौन करेगा? अपितु अन्य कोइभी नहि करेगा.
४८ मिथ्यात्वका परिचय त्याग देना-- 'सोबत असर ' यह दृष्टांतसे स्वगुण की हानी और कदाग्रही विपरीत दृष्टी जनके ज्यादा संगसे आत्माका सहज शत्रुभूत दुर्गुणकी वृद्धि होती है.
४९ मिथ्यात्वीकी स्तुति भी नहि करनी--इस्की स्तुति करनेसेभी मिथ्यात्वकाही वृद्धि होती है. . ५० तत्वाही होना ---- मध्यस्थ वृत्तिसे सत्य गवेषक होकर सुवर्णकी राह परीक्षा पूर्वक शुद्ध तत्व अंगीकार करना..
५१ जोहेरीकी मुवाफिक सुपरीक्षक होना शुद्ध तत्व स्त्रीकारते पहेले जोहेरीकी तरह अपनी चातुर्यताका जहां तक बने वहां तक पूर्ण उपयोग करना.
५२ तत्वपर पूर्ण श्रध्दा रखनी श्री सर्वज्ञ प्रभुके फरमाए हुए तत्व वचनोपर पूर्ण प्रतीति रखनी, किचितभी चलित नहि होना.
५३ नीच आचारपालेकी सोबत सर्वथा त्याग देनी नीच संगतिसे हीनपदही प्राप्त होता है. प्रत्यक्ष देखो कि गंगानदीका पवित्र जलभी क्षार समुद्र में मिल जानेसे क्षाररूप हो जाता है. ऐसा समझकर सत्संग सेवन करनाही मुनासिब है.