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गाजर, पिंड, पिंडालु, सूरन, वगैरां नमिकंद, तथा बहोतही कोमल फूल वा पत्र पत्ति, थेग, नीमगिलोय, मोथ प्रमुख, किंवा नये उगते हुवे अंकुर कुंपल वगैरा में अनंत जीवोंकी उत्पत्ति जानकर तिन्होंकी हिंसासे डरकर तिन्होका त्याग करना.
९१ तीन गुणत्रत धारण करना उपर कहे हुवे अणुत्रतकी पुष्टिके लीये दिग् विरमणव्रत १, भोगोपभोग विरमण २, अनर्थ - दंड विरमणत्रत रुप तीन गुणव्रत धारण करना. पहीले गुणत्रत में मर्यादा की हुइ भूमिके बहार जाना नहि. दूसरेमें महापाप वाले १५ कर्मादानका व्यापार बंध कर देना, तथा चौदह नियम धारण करना. और तीसरेमें दुसरेको पापोपदेश नहि देना. पापकारी उपकरण कोइमी मंगे तो नहि देना. नाटक प्रेक्षणा नहीं करना.
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९२ चार शिक्षात्रत सेवन करना सामायिक ( संकल्प पूर्वक अमुक वख्त समताभाव सेवन करणरूप ) १, देशावगासीक (दीविरमण व्रतका संक्षेप करण रुप ) २, पौषध ( आहार, शरीरसत्कार मैथुनक्रीडा तथा अन्य पाप व्यापारका सर्वथा वा अंशसे त्यागरूप ) ३, अतिथि संविभाग ( साधु, साध्वीको दान देकर भोजन करणरुप ) ४, यह चारों शिक्षाव्रत सुश्रावक श्राविकाओने मूल गुणों की पुष्टि खातर अभ्यासरूपसे अवश्य सेवन करने लायक है.
९३ ग्रहण किये हुवे व्रतोंको यथार्थ पालन करे लक्ष्मी, यौवन और जीवितको अस्थिर जानकर तिन्होंको उत्तम व्रतसे सफल करनेके लिये सज्जन जन दृढ निश्चय करे, और प्राणांत समयभी ग्रहण करे हुवे व्रत खंडित न करे.
९४ पहिले व्रतका स्वरूप जानकर अंगिकार करे. व्रतका स्वरुप समझकर तिरसे यथाविधि पालन करनेसे यथार्थ फल प्राप्त कर सके. ९५ व्रतकी तुलना कर लेनी- अंगीकार करने योग्य व्रतका