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(५९) • हरने वाली हैं. जगत्के जीव मात्रको मित्र गिननेरु५ मैत्री भाव है. चंद्रको देख जैसे चकोर प्रमुदित होता है वैसे सद्गुणीको देखकर भव्य चकोर चित्तमें प्रसन्न होवै वो प्रमुदित या मुदिता भाव कहा जाता है। दु.खी जीवको देखकर आपका हृदय पिघल जाय और यथाशक्ति उसका दुःख दूर करनेके लिये प्रयत्न हो सकै सो करें। उसको करुणा भाव कहा जाता है, और महापापरत प्राणीपर भी क्रोध-द्वेष न लाते मनमें कोमलता रख उदासीनता धरनेमें आवे उसको मध्यस्थ भाव कहा जाता है. ऐसी उत्तम भावना भावित अंत:करणवाले प्राणी पवित्र धर्मके पूर्ण अधिकारी गिने जाते है. उनके दर्शनसे भी पाप नष्ट हो जाता है. वैसे शुद्ध भाव पूर्वक शुद्ध क्रिया करनेवाले महात्माओं के प्रभावसे पापी प्राणी भी अपना जाती वैर छोडकर--अपना कर स्वभाव दूर कर शांत स्वभाव धारना करते है. ऐसे अपूर्व योग-प्रभाव पूर्वोक्त सदभावनाके जोरसे प्रकटत है; वास्ते मोक्षार्थिजनाको उपर कही गई भावनाये धारनके लिये अवश्य प्रयत्न करना योग्य है. सर्वज्ञ कथित तत्व रसिकको ए शुभ भावनाए सहजही प्रकट होती है.
सामान्य हितशिक्षा, (१) जयणा-यतना, उस उस धर्म संबंधी या व्यवहार संबंधी,. परलोक वास्ते या इस लोक वास्त, परमार्थसे या स्वार्थसे जो जो व्यापार करने में आवें उनमें बराबर उपयोग रखना वो उसका सामान्य अर्थ है. विशेषार्थ विचारनेसे तो, आत्माका शुद्ध निर्दभ मोक्षार्य शातिपूर्वक करनमें आये हुवे मन-वचन-तन-द्वारा व्यापार विशेष मालुम होता है, इसी लिये ही ज्ञानीशेखर पुरुषांने जय-- णाको धर्मकी माता कह बतलाई है यानि आत्मधर्म-गुणोंको उत्पन्न