Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 62
________________ (५४) २ पंडित उन्हीकोही समझो कि, जो विरोधसे विरामकर शांत, समभावत हुवे हो3; साधु उन्हीकोही जानो कि, जो समय और शास्त्रानुसार चले; शक्तिवंत उन्हीकोही समझो कि, जो प्राणांत तक भी धर्मका त्याग न करे; और मित्र उन्हीकोही जानो कि, जो विपत्तिमें भागीदार हो ३ क्रोधी मनुष्य कभी सुख नहीं पाते है, अभिमानी शोकाधीन होनेसे कभी जय नहीं पाते हैं, कपटी सदा औरका दासपणाही पाते है, और महान् लोभी और मम्मण जैसे मनहूस मख्खीचूस नरकगति ही पाते है. ____क्रोधके जैसा दूसरा कोई भवोभव नाश करनेहारा विष नहीं है; अहिंसा-जीवदयाके जैसा दूसरा जन्मजन्ममें सुख देनेवाला कोई अमृत नहीं है; अभिमानके जैसा कोई दूसरा दुष्ट शत्रु नहीं है; उधमके जैसा कोई दूसरा हितकारी बंधु नहीं है; मायाकपट के समान दूसरा कोई प्राणघातक भय नहीं है; सत्यके जैसा कोई दूसरा सत्य शरण नहीं है; लोभके जैसा कोई दूसरा भारी दुःख नहीं है और संतोषके जैसा कोई दूसरा सर्वोत्तम सुख नहीं है. * ५ सुविनीतको बुद्धि बहुत भजती है, क्रोधी कुशीलको अपयश बहुत भजता है, भन्न चित्तवालेको निर्धनता बहुत भजती है, और सदाचारवंत-सुशीलको लक्ष्मी सदा भजती है. __६ कृतघ्न मनुष्यको भित्र तजते हैं, जितेंद्रिय मुनिको पाप तजते है, शुष्क सरोवरको हंस तजते हैं, और धुररोबाज-कषायवंत मनुष्यको बुद्धि तज देती है. __ ७ शून्य हृदयवालेको बात कहनी सो विलाप समान है, गइ गुजरीको पुनः पुनः कथन करनी सो विला५ समान है, विक्षेप चित्तपालेको कुछभी कहना सो विलाप समान है, और कुशिष्य

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