________________
(४७) जैन सिद्धांतका पूर्ण अभ्यास करनेसे भव्य जनोको धर्मोपदेश देनेसे, दुर्वादीका गर्व मनसे, निमित्त ज्ञानसे, तपोबलसे, विद्यामंत्रसे, अजन योगसे और काव्य बलसे राजा वगेरहिको प्रतिबोधनेमें, जैनशासनकी विजयपताका फडफडानेमें घटित वीर्य स्फुररायमान करना.
६० जिस प्रकारसे समकित शुद्ध निर्मळ हो तिस प्रकाका त्वरासे उपयोग करना-- शुद्ध दव गुरुको यथाविधि वदन करके, यथाशक्ति व्रत ५च्चलखाण करना. तथा उत्तम तीर्थ सेवा, देवगुरुकी भक्ति प्रमुख सुकृत ऐसी तराहसे करना कि जिरसे अन्य दर्शनी जनोभी वह वह सुकृत करणीकी अवश्य अनुमोदना करके बोध बीज बोकर भवातरमें सुधर्म फल प्राप्त करनेको समर्थ होके यावत् मोक्षाधिकारी होवे.
६१ अपराधी परभी क्षमा करनी-अपराधिकाभी अहित नहि करना, और बनसके वहातक अपराधीकोभी सुधारनेकी-केलवणी देनेकी इच्छा रखनी.
६२ मोक्ष सुखकीही अभिलाषा रखनी जन्म मरणादि समस्त सासरिक उपाधि रहित अक्षय सुख संपादन करनेके लिये अहर्निश यत्न करना. देव मुनुप्यादिकके सुखोंकोभी दुःखरुपही जानना.
६३ संसारके दुःखसे त्रासवंत होना--यह संसारको नरक वा काराग्रह समान जानकर तिनसे मुक्त होनेका यत्न किये करना.
६४ पीडित जनोंको वते वहांतक सहायता देनी द्रव्यसे दुःखी होनेवाले मनुष्योंको, तथा धर्म कार्यमे सीदाते हुवे सज्जनोंको यथायोग्य मदद देकर तिन्होंको घटित तोष देना. तिन्ह की उपेक्षा करके वेदरकार न रहना. एकभी जीवको सत्य सर्वज्ञ धर्म प्राप्त करानेवाला महान् लाम उपार्जन करता है.