Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 25
________________ (१७) २६ कृतघ्नता किये हुवे गुणका लोप कबीभी नहि करना. उत्तम मनुष्य औगुनके उपर गुन करते है. मध्यम मनुष्य दूसरेने गुन कीया हो तो आप अपनी पस्त हो उस वख्त बने जितनाका बदला देना धारते है; परंतु अधम मनुष्य तो कीये हुये गुनका भी लोप करते है. ऐसी अधम वृत्तिवाले अज्ञानी अविवेकी जनसे तो कुत्तभी अच्छे गिनेजात है, कि जो थोडाभी रोटीका टुकडा या खोराक खाया हो, तो खिलानेवालेको देखकर अपनी पूंछ हिलाकर खुश हो अपना कृतज्ञपना जाहेर करते हुवे उनके घरकी रात दिन चोकी करते है ऐसा समझकर कृतज्ञता आदर कर धर्मकी स्यायकात प्राप्त कर कुछभी धर्म आराधना करके स्व-मानवपना सार्थक करना, अन्यथा मातुश्रीकी कुक्षीको धिःकार पात्र बनाकर भूमिको केवल भारभूत होने जैसा है समझ . रखना कि, कृतज्ञ विवेकी रत्नाकीहो माता रत्नकुक्षी कहलाती है. ऐसा न्यायका रहस्य समझकर स्वपर हितकारी विवेक धारण करने का यत्न करना. ___ २७ सद्गुणीको देखकर प्रसन्न होना. वो प्रमोद या मुदिता भाव कहा जाता है. चंद्रको देखकर चकोर जैसे खुशी होता है, और मेवगर्जना सुनकर मयुर जैसे नाचता है तैसें सद्गुणीके दर्शन मात्रसे भव्य चकोरको हर्ष-प्रकर्ष होना चाहिये. दुसरेके सद्गुणोकी प्रतीति हुवे पीछेभी तिनके उपर द्वेष धरना ए दुर्गतिकाही द्वार है, पास्ते केवल दुःखदाइ द्वेषવૃદ્ધિ ત્યાર સવૈવ સુવાક્ મુળવુદ્ધિ ધારણ કર વિવો ઇંતવત્ होने के लिये सद्गुणीको देखकर परम प्रमोद धारण करना.

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