Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 49
________________ (४१) सुबुद्धि धारण कर कर अंतःकरण निर्मळ करना. गंभीर दिल रखना, तुच्छता करनी नहि, दुसरेके छिद्र तर्फ दुर्लक्ष देकर अपना और दुसरेका हित किस प्रकारसे होय सोही दान दिलसे विचारना. २५ मात्र न्यायसेही धन उपार्जन करके आजीविका चला लेनी योग्य है. संसार व्यवहार वा धर्मव्यवहार अच्छी तरांहसे चलाने के लिये न्याय नीतिकोही अगामी रखके योग्य व्यापारद्वारा द्रव्य उपार्जन करना मुनासिब है. न्यायव्यसे मति निर्मळ रहती है. कहाहै कि.-' जैसा आहार वैसाही उदगार.' अन्यायका परिणाम विपरीत आता है. २६ स्वभाव शीतळ रखना कडक प्रकृति बहोत दफै नुकसान करती है, ठंडी प्रकृतिवाला सुखसे स्वकार्य सिद्ध कर सकता है, और अपने शीतल स्वभाव वळसे समस्त जन समुदायको अवश्य प्रिय वल्लभ लगता है. २७ लोक विरुद्ध कार्य कभी करनाही नहि मास भक्षण, मदिरापान, शीकार, जुगार, चोरी, और व्यभिचार यह सब महा निधकर्म उभय लोक याने यह जन्म और परजन्म विरुद्ध है, तिस्से करके उक्त कार्य अवश्य त्यागदने लायकही है. ' २८ क्रूरता नहि करनी- कठोर दिलसे कोइमी पापकर्म करना नहि. नहितो उसे उभयलोक बिगडते है और निंदापात्र होता है. २९ परसवका डर रखना बुरे कार्य करनेसे प्राणीको परभवके अंदर नरक तीर्यचके अनंत दुःख मुक्तने पड़ते है. ऐसा समझकर तैसे नीच अवतार धारण करने न पडे ऐसी पेहलसेही खबरदारी रखनी और अपना वर्तन सुधारकर चलना. ३० ठगबाजी करनी नहि ठग लोगोको दुसरे मनुष्योकी खुसामत करते हुएभी हरहमेशां अपना कपट छुपानेके लिये

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