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अनंत दुःख-उपाधिमुक्त सर्वज्ञ परमात्मा होवे है. तिनका तन्मय ध्यान योगसे कीट भ्रमर न्यायसे अंतरात्मा परमात्मपद पाता है. अनंत ज्ञानादि अखंड सहज समाधि पाकर परमानंद सुखमन्न हो रहता है. तैसे परमात्माको अक्षय सुखार्थी आत्मार्थी जनोको हमेशा शरण हो! तैसे परमात्माकी भाक्तिरूप कल्पवल्ली भव्य प्राणियों के भव दुःख दूर कर मनेच्छा पूर्ण करो! यावत् भव्य चकोर शुक्ल ध्यान पाकर भवभवकी भ्रमणा मांगकर संपूर्ण निरूपाधी मोक्षसुख स्वाधीन कर अक्षय समाधि लीन हो !! ६६ दुसरेको अपने आत्माके समान जानना.
समस्त जीवो जीवत्व समान है, ऐसा समझकर सबको अपने जैसा गिनना. द्वैतभाव छोडकर समता सेवन कर किसी जीवको दुःख न हो वैसे यतनासे वर्तन चलाना. चीटीसे हाथी-सब जीवित सुख चाहता है. राजा, रंक, सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पंडित मूर्ख सब निर्विशेष-समान रीतसे सुखके अर्थी है. प्रमाद प्रवर्तन या स्वच्छंद वर्तनसे कोई जीवको सुखमें अंतराय करनेसे वो प्रमादी या स्वच्छदी प्राणी बाधक कर्म वांधता है. जिस्का कटुक फल तिनको अशुभ कर्मक उदय समय अवश्य सहन करना पड़ता है, वास्ते शास्त्रकार कहते है कः
" बंध समय चित्त चेतिये शो उदये संताप" ___ इत्यादि बोध वचनोंको लक्षमें रखकर सुखार्थी जनोने सर्वत्र समता रखकर रहेना योग्य है. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थभावकी प्राप्तिमी ऐसेही हो सकती है. जहांतक ए मैत्री वगैर। भावना चतुष्टयका प्रादुर्भाव-उदय हुपा नहि वहांतक शिवसंपदा पहोतही दूर समझनी,