Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 46
________________ (३८) मानहीन हो जाकर नीचा दरज्जा पाते है, और जो नम्र रहते है सो उंचे दरज्जेके अधिकारी होते है. कहा है कि जहां लघुता वहां प्रभुता विद्यमान रहती है. कुल, जाति, बल, तप, विद्या लाभ और ठकुराइ आदिका गर्व कभीभी नहि करना. ८ माया कुटिलता करनी नहि-- छल, प्रपंच, दगा, दंभ, पक्रता, कपट करके अपनी मगरतासे उलटे रास्तेपर चलनेवाला कभी सुख पाताही नहि कहानीभी है कि 'दगा किसीका सगा नहि.' कपटि जनकी धक्रिया निष्फल होती है. कपटी मनुष्य मुंहका भीठा मगर दिलका झूठा होता है. ___९ लोभको त्याग देना लोभी मनुष्य कृत्याकृत्य, हिताहित भक्ष्याभक्ष्य करनेमें विवेकहीन होकर अग्निके समान सर्वभक्षक बनता है. - १० रा दूध नहि करना राग द्वेष दोषस आत्मा मलीन होता है. रागद्वेष दोनु माथही रहेते है तिन्होको जीतनेके लिये वीतराग प्रभुजीकी सहायता मदद मांगनेकी आवश्यकता है, क्यों कि वह प्रभु सर्वथा रागद्वेषरहित अनंत शक्तिवंत और अनंत गुणवंत है. ११ क्लेश करना नहि कलह-क्लेश दुःखकाही मूल है. जह। हरहमेशा क्लश हुआ करता है वहां लक्ष्मी पलायन कर (भाग) जाती है. इस लिये क्लेश दूर रहेना. १२ झूठा कलंक नहि देना-- किसीको झूठा कलंक लगा देना उस्के समान दूसरा ज्यादा पाप नहि है. झूठे कलंकसे जीवको मरण साहश दुःख होता है जैसा दुःख दूसरे जीवको देने में तत्पर' होता है तैसा बल्कि तिरसभी सोगुना, लाख क्रोड गुना कटुक दुःख देनेवालेको पर भवम भुक्तना पडता है.

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