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(१८) २८ जैसे तैरोका संग स्नेह करना नहि. ___ मूरख साथ सनेहता, पग पग होवे कलेश.' ए उक्ति अनुसार मूर्ख कुपात्रके साथ प्रीति बाधनी नहि क्योंकि मूर्खकी प्रीतिसे अपनीभी पत जाती है. यदि स्नेह करना चाहते हो तो विवेकी हंस सश, संत-सुसाधु जनके साथही करो कि जिस तुम अनादिका अविवेक त्याग कर सुविवेक धरनेमें समर्थ हो सको. खास याद रखना चाहिये कि, संत सुसाधुके समागम समान दुसरा उत्तम
आनंद नहि है. ऐसा कौन मूर्सशिरोमणि हो कि अमृतकों छोडकर हालाहल विष साहश अविवेकीकी-कुशीलकी संगति चाहे ? श्याना मनुष्य तो कबीभी न चाहेगा ! जो भूडिये जैसी वृत्तिवाला होगा वो तो जहां तहां अशुचि स्थानमेंही भटकता फिरेंगा उस्में क्या
आश्चर्य है ? क्योंकि जिस्का जैसा जाति स्वभाव होवे वैसाही कृत्य __ कीया करे. ऐसे नीच जनोकी सोबतसे अच्छे सुशील मनुष्योको भी कचित् छिटे लगते है.
२९ पात्रपरीक्षा करनी चाहिये, जैसे सुवर्णकी कस, छेदन, तापादिसे परीक्षा की जाती है, जैसे मोतिकी उज्वलता आदिसे परीक्षा की जाती है, तैसे उत्तम पात्रकी भी सुवृत्तिसे सदगुणोकी परीक्षा करनी चाहिये. सुपात्रकी अंदर उत्तम वस्तु शोभायमान या कायम होती है. सुपात्र में विवेक पूर्वक चोथा हुवा उत्तम बीज शुद्ध भूमिकी तरह उत्तम फल देता है. छीपमें पडा हुवा स्वाति जलबिन्दुका सच्चा मोति पकता है, और सांपके मुखमें पडा हुवा पोहि (स्वाति ) जलबिदु झहेररूप होता है. वार पात्र परीक्षा कर दान, मान, विद्या, विनय और अधिकार वगैरा व्यवहार करना योग्य है. सुपात्रमें सब सफल होता है, और कुपात्र में नफेके बदले टोटा-अनर्थ पैदा होता है. इस लिये पात्रा पात्रका