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जोरसे-विवेक विकल मनसे विषम वर्तन करते है हर्प खद घरके आप मतसे उलटे चलते है सो तो कोड उपायसे भी आत्मकार्य साध नही सकते है.
४५ सेवकके गुण समक्ष कहना सच्चे सेवककी प्रत्यक्ष प्रशंसा करनेसे कुछ हानि नही किन्तु __ लामही है. उत्साहकी वृद्धिके साथ वो चुस्त स्वामि भक्त हो
जाता है, और तैसे नहि करनेसे कदाचित् तिसकी श्रद्धा मंद होनसे सेवा विमुखभी हो जाता है,
४६ पुत्रको प्रत्यक्ष प्रशंग नही करना, पुत्र या शिष्य चाहे पैसा सद्गुणी हो, तदपि तिसकी समक्ष प्रशंसा नहि करनी सोही उत्तम नीति है. तिनमें विनयादि उत्तम गुण बढानेका वो रस्ता है. बाल्यावस्थामें अच्छे संस्कार प्राप्त हो ऐसी फिकर रखनी वे माता पिता और गुरुकी फर्ज है. मगर गुण प्राप्त हुवे विना मिथ्या प्रशंसासे आमेमानमें आ जानेसे कदाचित् तिनका जन्म विगडता है. ऐसा समझकर तिनकी परिपक्व स्थिति होजाने तक विचार विवेकसे वर्तना, जिस्से तैसा सद् विवेक शीखकर पुत्र, पुत्री, शिष्य वा शिष्या अपना जन्म सुखपूर्वक सुधार सकता है. पुत्रादि समक्ष माता पितादिकोभी अपशव्दादि अविवेक यत्नसे त्याग देना. .४७ स्त्री की तो प्रत्यक्ष वा परोक्ष भी प्रशंसा
करनीही नहि. स्त्रीका स्वभाव तुच्छ होनेसे अपूर्णता बताये बिगर नहि रहेती, वास्ते चाहे वैसी गुणवंती स्त्री हो तोभी मनमही समझ रहना. स्त्रीकोभी पति तर्फ विनीत शिप्यकी माफिक विशेष नम्र होनेकी