Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ 'आप्तेन भवितव्यं' 'नियोगेन' निश्चयेन नियमेन वा। किं विशिष्टेन ? 'उत्सन्नदोषेण' नष्टदोषेण । तथा 'सर्वज्ञेन' सर्वत्र विषयेऽशेषविशेषतः परिस्फट परिज्ञानवता नियोगेन भवितव्यं । तथा 'आगमेशिना' भध्यजनानां हेयोपादेय तत्त्व प्रतिपत्तिहेतुभूतागम प्रतिपादकेन नियमेन भवितव्यं । कुत एतदित्याह-'नान्यथा ह्याप्तता भवेत्' 'हि' यस्मात् अन्यथा उक्तविपरीतप्रकारेण, आप्तता न भवेत् ।।५।।
आगे सम्यग्दर्शन के विषयरूप से कहे हुए आप्त का लक्षण कहते हैं
प्राप्तेनेति-(नियोगेन) नियम से (आप्तेन) आप्त को ( उच्छिन्नदोषेण ) दोष रहित (सर्वज्ञेन) सर्वज्ञ और (आगमेशिना) आगम का स्वामी (भवितव्यं) होना चाहिए । (हि) क्योंकि (अन्यथा) अन्य प्रकार से (आप्तता) आप्तपना (न भवेत् ) नहीं हो सकता।
टोकार्थ-जिनके क्षुधा-तृषादि शारीरिक तथा रागद्वेषादिक दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो समस्त पदार्थों को उनकी विशेषताओं सहित स्पष्ट जानते हैं तथा जो आगम के ईश हैं। अर्थात् जिनकी दिव्यध्वनि सुनकर गणधर द्वादशांगरूप शास्त्र की रचना करते हैं, इस प्रकार जो भव्य जीवों को हेय-उपादेय तत्वों का ज्ञान कराने वाले आगम के मूलकर्ता हैं ये हो आप्त-सच्चे देव हो सकते हैं, यह निश्चित है, क्योंकि जिनमें ये विशेषताएँ नहीं हैं, वे आप्त-सच्चे देव नहीं हो सकते ।
विशेषार्थ-संसार में आप्त के स्वरूप के विषय में अनेक मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित हैं। किन्तु प्रकृत में आप्त से आशय श्रेयोमार्गरूप धर्म के वक्ता से है। और उस वक्ता में तीनों विशेषणों का रहना भी अत्यावश्यक है। इसलिए ग्रन्थकर्ता ने जोर देकर कहा है कि 'नान्यथाह्याप्तता भवेत्' अर्थात् अन्यथा आप्तपना हो ही नहीं सकता। जो स्वयं दोषी है वह अन्य जीवों को निराकुल-सुखी और निर्दोष कैसे बना सकता है। जो अनेक बाधाओं दोषों से युक्त होने के कारण महादुःखावस्था सहित है वे ईश्वर कैसे हो सकते हैं ?
___ सभी द्रव्यों और उनकी समस्त गुण-पर्यायों को जानने वाले अतीन्द्रिय ज्ञानी के सर्वज्ञपना पाया जाता है। किन्तु राग-द्वेष से मलीमस के नहीं । 'क्योंकि वक्ता की