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बृहत्तपागच्छीय मा० श्री देवेन्द्ररि मा० श्री जगच्चन्द्रसूरि मा० श्री क्षेमकीर्तिसूरि जैसे सुप्रसिद्ध भाचार्य हो गये हैं।
यद्यपि रावगपट्टावली में सम्मतिप्रकरणटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर शिष्य श्री धनेश्वरसरि को चैत्रगच्छीय भी बताया है किन्तु प्रभाचन्द्ररिकृत 'प्रभावकचरित्र' की प्रशस्ति में एवं श्री माणिक्यचन्द्रसूरिकृत पार्श्वनाथचरित्र को प्रशस्ति में इस बात का समर्थन नहीं मिलता। राजगच्छपावली का रचनासमय विक्रम की १५ वी सदी के पूर्वका नहीं है अतः उपरोक्त बात की प्रामाणिकता के लिए अन्य भाषारभूत प्रमाणों की अपेक्षा रखना चाहिए या नहीं यह एक विचारणीय प्रश्न है। वि. सं. १५२२ के एक घातुप्रतिमाळेस में तो श्री धनेश्वरसूरि (अभयदेवसरिशिष्य) को चैत्रगाछीय मानने के साथ साथ उन्हें 'शत्रुञ्जयमाहाल्य' का कर्ता भी बताया है। किन्तु यह बात सन्देहास्पद लगती है । यहाँ यह कथन भी उपयोगी होगा कि 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' में कुमारपाल मादि का वृत्तान्त तो आता ही है। तदुपरान्त उसमें उसके कर्ताने अपना गच्छ राजगन्छ बताया हुमा होने से, एवं प्रस्तुत धनेश्वरसूरि (श्री अभयदेवसूरिशिष्य) की नज़दीक की पूर्वापर श्रमणपरम्परा में कहीं भी राजगच्छ का उल्लेख नहीं मिलने से शत्रंञ्जयमाहात्म्य के कर्ता विक्रम की तेरहवीं सदी के अन्त में या उससे भी बाद के समय में हुए हों ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
श्री धनेश्वरसूरि (अभयदेवसूरिशिष्य) के बाद उनकी परम्परा में हुए प्रन्थकारों ने अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनामों के उल्लेख में धनेश्वरसूरि को कही भी शत्रुञ्जयमाहात्म्य का कर्ता नहीं बताया है। अतः उपरोक्त धातुप्रतिमा के लेस को श्रद्धास्पद नहीं कहा जा सकता। सम्मतिप्रकरण के टीकाकार अभयदेवसूरि और उनके पूर्वपट्टधर आचार्यों को भी रानगच्छपट्टावली में और माणिक्यचन्द्रसूरिंकृत पार्श्वनाथचरित्र ( रचना सं० १२७६ ) में चन्द्रगच्छीय के साथ साथ रानगछीय भी बताया है । जबकि वि. सं. १२४८ में रची गई सिद्धसेनरिकृत प्रवचनसारोद्धारको टीका में टोकाकार ने प्रस्तुत अभयदेवरि से भनुक्रम से अपनी पूर्वपट्टपरम्परा दी है किन्तु उसमें चन्द्रगच्छ के सिवाय अन्य किसी गच्छ का उल्लेख नहीं हुआ है। इस सम्बन्ध में प्रभावकचरित्रकार प्रभाचन्द्रसूरि ने धनेश्वरसूरि (अभयदेवसूरिशिष्य) पूर्वावस्था ।
१. तत्पट्टार्णवकौस्तुभः समुदितः प्रद्युम्ननामा हि यः.........। तच्छिध्योऽभयदेवरिरसमो मिथ्यात्ववादिब्रजमादोन्माषकरः प्रसिद्धमहिमः स्याद्वादमुद्राद्वितः ॥६८॥ श्रीचैत्रगच्छे प्रकटप्रभावी धनेश्वरः] शरिरभूच्च तस्मात् । आखीद्विनेयोऽजितसिंहमूरिः सिहोपमो वादिमताजेषु ॥६५॥ (श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित 'विविधगच्छपट्टावलीसंप्रह' गत राजगच्छपदावली पृ. १८)।
२. प्रस्तुत पाश्वनाथचरित्र को खंभातभंडारस्प ताडपत्रीय प्रति में अन्यकार को प्रशस्ति में सम्मतिटीकाकार अभयदेवत्रि के पट्टधर. शिष्य धनेश्वरसूरि के बदले लिनेश्वरमरि बताया है देखिये पू० पा० आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी और डॉ. श्री भोगीलाळ ज. सांडेसरा द्वारा संपादित Catalogue of Palm-leaf manuscripts in the Santinatha Jain Bhandar, Cambay (Part two) Page 344 । तथा पूज्यपाद प्रज्ञाचक्षु ज्ञानज्योति पं. श्री सुखलालजी एवं श्री बेचरदासजी दोशी ने भी प्रस्तुत पार्श्वनाथचरित्र को प्रशस्ति के उल्लेख में जिनेश्वरसूरि को ही बताया है, देखिये पुजाभाई जैन ग्रन्थमाला का छट्ठा ग्रन्थाङ्क रूप से प्रकाशित सम्मतिप्रकरण (गुजराती भाषा का) पृ. ८५ । मेरा नम्र मत यह है कि इस पार्श्वनाथचरित्र को प्रशस्ति में लिपिकार की असावधानी के कारण धनेश्वर के स्थान पर जिनेश्वर लिखा गया होगा। मेरा यह अनुमान प्रस्तुत प्रशस्ति के पाठ से ही अध्येता को सुसंगत लगेगा इसलिए यह पाठ देता हूँ-“ विद्वन्मण्डलमौलिमण्डनमणिः प्रेत्तपोsहर्मणिनिन्थोऽपि जिनेश्वरः समजनि श्रीमस्तितः सद्गुरुः । यः स्फूर्जद्गुणपुजमुजजगतीनिष्णोः पुरः प्राज्ञलान् वादे वादिवरान् विचित्य विजयश्रीसंप्रहं संव्यधात् ॥” यहाँ 'निप्रन्थोऽपि जिनेश्वरः,' इस वाक्य में 'निग्रन्थ' शब्द के साथ 'जिनेश्वरः' शन्द असंगत बगता है। यदि जिनेश्वरः के स्थान पर 'धनेश्वरः' शब्द लगाया जाय तो 'निर्ग्रन्थोऽपि धनेश्वरः' यह सुसंगत लगेगा । कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि 'जो आचार्य अकिञ्चन होने पर भी धनेश्वर है' इस विरोधाभासालंकार में 'अकिञ्चन होने पर भी जिनेश्वर है' यह किसी भी रीति से मेल नहीं खाता है । अतः इसमें लिपिकार की हि क्षति मालूम होती है।
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