Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 83
________________ २४ पुहवीचंदचरिए पढमे संख-कलावईभवे । १. ३८२नियकुलम्मि मसिकुच्चओ, मरियव्वं च सव्वहा मए तयदंसणे, तहा वि तुरियतुरयवाहणेणऽन्नेसिऊण जीवमाणिमाणेहि तं, मरणनिच्छयं वा लहाहि' त्ति । दत्तो वि 'जहाऽऽणवेइ देवो' ति भणंतो र्दुत्ति निग्गओ। तो ससंभमं भमंतो निसामियपएसाणुसारेण देव्बनिओगेण तावसमेगमालोइऊण कयप्पणामो पुच्छिउं पवत्तो 'रिसिकुमार ! दिहा तुमए तुह संबंधितावसेण वा केणइ इहाऽरन्ने पसविउकामा अहिणवपस्या वा सुरवहुसमाणरूवा तरुण5 रमणी? । तावसेण भणियं 'रायपुत्त ! कत्तो तुब्भे?' । दत्तेण भणियं 'संखपुराओ । इयरेण भणियं 'ता किं तीए वराईए उवरिं राया वेरं न मुंचइ जमज्ज वि अनिसावेइ ?' । तओ 'जाणइ एसो' ति हरिसिएण जंपियं दत्तेण 'मुणिकुमार ! महई एस कहा, अइउत्ताला य अम्हे न कहिउं पारेमो, एस पुण परमत्थो-जइ अज तं जियंतिं राया न पेच्छइ ता अवस्सं जलन्तजलणजालावलीमु पयंगचरियमणुकरेइ, ता जइ जाणासि कहेहि तीए पउत्ति, देहि देवस्स चउरासमगुरुणो जीवियं ति । एवं सोऊण करुणावन्नेण नीओ तावसेण कुलवइसमीवं दत्तो।। 10 नमिऊण चलणकमलं कुलबहणो तेण साहियं तत्तं । तेणावि तावसीणं मज्झाओ झत्ति वाहरिया ॥ ३८२ ॥ दखूण दत्तमह सा निरुद्धकंठं परोविया धणियं । कोडिगुणं पिच जायइ दुक्खं खलु परिचियजणग्गे ॥३८३॥ धीरत्तणेण धरियं पि हिययरुद्धं दुहं अइमहंतं । रोयंतीए तीए झड त्ति दत्तग्गओ वमियं ॥ ३८४ ॥ आसासिया य सहसा दत्तेण वि मंथरं रुयंतेण । 'मा कुण सामिणि ! खेयं एसो खलु कम्मपरिणामो ॥३८५॥ पाविति सुहं दुक्खं पि दारुणं चित्तगोयराईयं । चित्तसुहा-ऽमुहकम्मेहिं पाणिणो एत्थ संसारे ॥ ३८६ ॥ ___15 एयम्मि अणणुकूले माया भाया पिया पई सयणा । वट्टन्ति वेरिया इच, रिउणो वि इमे न अणुकूले ॥३८७॥ भवियधयानिओया तुम्हं अच्चभुयं इमं वत्तं । तहनेहनिब्भरेण वि रम्ना जं कारियं एयं ।। ३८८ ॥ अणुभूयं सुयणु ! तए सच्चं अच्चंतदारुणं दुक्खं । एत्तो वि अणंतगुणं रना वि अओ निमित्ताओ ॥ ३८९ ॥ संपइ पच्छायावी इच्छइ सो साहिउं खलु हुयासं | अज्जेव जइ न पेच्छइ तुह वयणं जीवमाणीए ॥ ३९० ।। ता मुयसु मन्नुमहुणा कालक्खेयो वि खमइ नो एत्थ । आरुह रहवरमेयं एयं चिय संपयं सेयं ।। ३९१॥ कयनिच्छयं नरिंदं नाउं गमणमुया इमा जाया । पडिकूलस्स वि पइणो हियमेव मणं कुलबहूणं ॥ ३९२ ॥ नमिऊण पुच्छिऊण य कुलबइमह रहवरं समारूढा । पत्ता य पोसे नयरबाहिरे पत्थिवावासे ॥ ३९३ ॥ संपुग्नतेणुं दइयं दळूण महुद्धवं वहतो वि । लज्जोणामियवयणो न तरइ तं पुलइउं राया ॥ ३९४ ॥ एत्थन्तरम्मि रम्मं वद्धावणयं पवज्जियं तूरं । आरतियाइकज्जे समागयं पायमूलं पि ॥ ३९५ ॥ पिसुणियपरमाणंदे मणहरगंधव्यतूररवमुहले । निव्वत्तियम्मि सयले संज्झाकिच्चे पुहइनाहो ॥ ३९६ ।। 25 आणंदामयसंसित्तगत्तसामन्तमंतिचक्केण । सलहिज्जंतो उचियं कालं दाऊण अत्थाणं ।। ३९७॥ लद्धावसरो परिओसनिन्भरो उट्ठिओ सउकंठो । पत्तो पियासमी रोहिणिमूलं मयंको व्च ॥ ३९८॥ दिट्ठा य मन्नुभरमंथरमुही देवी । अइऊसुयचित्तयाए य दोहिं वि करेहिं उन्नामिऊण से उत्तमंग 'अहो ! एयं तं महानिहाणं व 'दिप्पंतरयणं, माणससरनीरं व विसालच्छं, वीयरागवयणं व अंतरंगरिउनासं सुस्सवणाहिडियं च, जलहिजलं पिव विमच्छायाहरं मम संजीवणोसहं मुहं' ति जंपमाणो बाहोल्ललोयणाए घग्घरकंठं १यसाहणेण जे०विना ॥ २.संकेत:-"दुत्ति त्ति शीघ्रम्" ॥ ३ °वि तओ तावसिमझाओ जे विना ॥ ४ यं पाय जे० ॥ ५ तणू भ्रा० ॥ ६ संकेतः-" दिप्तरयणमित्यादौ [निधानपक्षे] रत्नानि, [उत्तमानपक्षे] रदनाच। [मानससरोनीरपक्षे] विशालं च तद् अच्छं च, [ उत्तमा० ] विशालाक्षं च । [वीतरागवचनपक्षे] अन्तरङ्गान् रिपून् नाशयतीति, [ उत्तमा०] अन्तः-मुखस्य समं मध्यभागं अतीत्यन्तरङ्गा रीजी(ऋज्वी) च नासा यस्मिन् ; [वीतराग० सवणा] श्रमणा:-व्रतिनः, [उत्त०] कणां च श्रवणौ । जलधिजलपक्षे] विद्रुमच्छायं धरति, [ उत्त०] विद्रुमच्छायोऽधरश्च यत्र" ॥ 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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