Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१८० पुहवीचंदचरिए नवमे कणयज्झय-जयसुंदरभवे
[९. १३१विराहियधम्माण य अणंतो संसारो, ता वरं गिहिभावे चेव सामाइयपोसहाइणा जहासत्ति धम्मासेवणं, न खलु मंचयाओ पडियस्स तहा पीडासंभवो जहा तुंगाओ गिरिसिंगाओ, एत्तो चेवाहं संसारभउबिग्गो वि न पचयामि' त्ति । एयमायनिऊण चिंतियं नरिंदेण 'अहो ! लोय-लोउत्तरविरुद्वमंतिएहिं एसो संजमस्स एगंताणुवाएयत्तं ठावेइ, लोए ताव किसि-चाणिज-रोगचिगिच्छा-रिउविजय-गमणा-ऽऽगमणाइसव्वकिरियासमुच्छेओ पसज्जइ सव्वत्थावाय5 संकासंभवाओ, लोउत्तरे वि अणाइभवन्मत्थपमायाईहिं विग्यसंभवाओ मोक्खाभावप्पसंगो, पसिद्धं च जिणमए
जइधम्माओ नेवाणसाहणं, ता किमेइणा सह विवाएण? जिणप्पियं चेव पुच्छामि परमत्थं । ति संपहारिऊण वाहरिओ जिणप्पिओ, निवेइओ निययाभिप्पाओ मोहणभणियं च । तओ मोहणमुद्दिसिय जंपियं जिणप्पिएण "भद्द ! सचं मोहणो सि, जो रायाणं संजमुज्जोयाभिमुहमेवं मोहेसि। तहाहि मुण
किं कुणइ चलं चित्तं ? किं वा अइदुजओ करणवग्गो ? । किं व पमाओ पभवइ ? साहसरसियाण धीराण ॥१३१ 10 सज्झाय-झाण-तवमुट्ठियाण गुरुवयणविणयनिरयाण । न चलइ पावेसु मणं भवभमभीयाण विरयाणं ॥१३२॥
उप्पाडिऊण गरुयं सोलंगाणं महाभरं सत्ता । मुंचंति न अद्धपहे सच्चपइन्ना महापना ॥ १३३ ॥ न य खलणामेत्तेण वि भन्जइ साहूण हंदि ! सीलंगं । अवि य विमुज्झइ अणुतावसारपच्छित्तचरणाओ ॥१३४ जइ कोइ कम्मदोसा वच्चंतो खलइ मुत्तिमग्गम्मि । जुज्जइ न तदुद्देसा अपवित्ती तत्थ अन्नेसि ॥ १३५॥ . .
जइ कह वि जाणवत्तं भिन्नमउन्नस्स नीरनाहम्मि । ता मा विसउ किमन्नो तत्थ नरो लच्छितल्लिच्छो ? ॥१३६॥ 15 जरिओ तिमो मूढो जइ कोई महु-घयाई भोत्तणं । ता किं कयाइ केणइ महु-घयभोगो न कायन्यो ? ॥१३७॥
गिरिसिहरपडणनाया जं पि निवारेसि संजमारुहणं । समभूमिसमं नृणं ता बहुमन्नेसि मिच्छत्तं ॥ १३८ ॥ गिरिसिहरपडणनायं दिज्जइ चरणाओ परिवडंताणं । उववूह च्चिय उचिया चरणाभिमुहाण पुणरत्तं ॥१३९॥ चरणपडिवत्तिविग्धं कुणंति जे घडियकूडजुत्तीहिं । ते तिक्खदुक्खलक्खाण भौइणो हुति पइजम्मं ॥१४०॥
को तत्तो पावयरो? पडणीओ वा जिणिंदधम्मस्स? । उजुधम्मियाण जो भावपाडणं कुणइ मूढप्पा ॥१४॥ 90 अमंच
भावपडिवनचरणो कंटग-जर-मोहसरिसविग्धेहि । खलिओ वि मुत्तिमग्गे लग्गइ नियमेण भणियं च ॥१४२।। पडिबंधो वि य एत्थं सोहणपंथम्मि संपयट्टस्स । कंटग-जर-मोहसमो विन्नेओ धीरपुरिसेहिं ॥ १४३ ॥ जह पावणिज्जगुणनाणओ इमो अवगमम्मि एएसिं । तत्थेव संपयट्टइ तह एसा सिद्धिकज्जम्मि ॥ १४४ ॥ इय चरणकउच्छाहं जो विनिवारेइ अलियजुत्तीहिं । पाराण वि सो पावो नेओ जिणधम्मपंडिणीओ ॥१४५॥ 'ने य दीसइ कोइ गुरू संपइ संसारतारणसमत्थो' । इयभूयनिन्हवाओ नजइ छन्नं पि मिच्छत्तं ।। १४६ ॥ चत्तघर-घरिणिसंगा वय-समिई-गुत्ति-संतिसंजुत्ता । तव-नाण-झाणफलिया दीसन्ति फुडं महामुणिणो ॥ १४७॥ जयपयर्ड जइवग्गं न नियइ मिच्छत्तछाइओ जीवो । न नियच्छइ जचंधो घड-पड-कडगाइ संतं पि ॥ १४८॥ ता पडिकमाहि सम्मं सुंदर ! दुम्भासियस्स एयस्स। जइ किर नेच्छसि भमिउं भीमे संसाररनम्मि" ॥१४९॥
__एवमाइ जिणप्पिएणाणुसासिओ विरइयविविहवठ्ठत्तरपरंपरो गहिओ मोहणो महापडिनिवेसेण । 'पडिया30 राणरिहो'त्ति उवेक्खिओ जिणप्पिएण, भणिओ य राया 'देव ! धन्नो तुमं जमेवमचंतदुल्लहं मुणिचरियमज्झ
१'तकरणाओ जे०विना ॥ २ जंच नि जे विना ॥ ३ भायणो जे.॥४कडुच्छाई जे विमा ॥ ५ पडणीमो वे विना ॥६म इदी जे. ॥७ जयमगं खं१ ॥
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