Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 262
________________ २९४ ] कुसुमाउह-कुसुमकेऊणं पञ्चजागहणं । अविय जा छक्खंडमहीपसिद्धिसमए चक्कीहिं नाऽऽसाइया, जा दप्पुद्धरकंधरारिमहणे पत्ता न सारंगिणा। जा पत्ते पियसंगमे विरहिणा केणावि नो' पाविया, साउव्वा वयपत्तिओ समुइया तेसिं मणोनिव्वुई ॥ २६८ ॥ तो ते सुंदरसूरिणो पयकए फुल्लंधुयत्तं गया, सुत्त-ऽत्थोरुपरागपीणियमणा तत्थेव बद्धग्गहा । निच्चं तिब्बतबोवहाणविहिणा कम्मक्खयाऽऽकंखिणो, जाया उज्जयसंजएमु निययं दिटुंतभूया लहुं ॥ २६९ ॥ 5 जं कुणइ तवं जणओ तणओ वि तमेव कुणइ नियमेण । विहरंति ठंति एगत्थ दो वि नेहाणुबंधेण ॥२७॥ __ अह भणिया ते गुरुणा 'छिंदह भो ! नेहबंधणं एयं । नीहरह जेण भवचारयाओ केणावि अक्खलिया ।।२७१ जिणवयणभावियाणं समतण-मणि-सत्त-मित्तचित्ताणं । न हि जुत्तं संजमिउं अप्पाणं नेहनियलेहि ॥ २७२ ।। नेहेण तिला वि सहति पीलणं, तह महिन्जए दहियं । मइलिज्जइ अंगं अम्बरं पि नेहाणुसंगेण ॥ २७३ ॥ चिट्ठउ ता सेसजणो भारियकम्मो अनायसद्धम्मो । भवसिद्धिया विन लहंति केवलं नेहसंजमिय अनंच को कस्स सया जणओ ? को वा तणओ सुही व बंधू वा । माया भइणी भजा धूया सुन्हा व संसारे १ ॥२७५॥ सव्यो जणओ सव्वो वि नंदणो बंधवो रिॐ मित्तो । जाओ अणंतखुत्तो संसारे एकमेक्कस्स ॥ २७६ ॥ भुत्तो छुहाइरेगा, निहओ वेरि त्ति मच्छरवसेण । परिवालिओ य नेहा सन्चो सव्वेण सयखुत्तो ।। २७७ ॥ नमिओ गुरुवुद्धीए, भिच्चो दासो त्ति धणियमाणत्तो । बूढो य, वाहिओ वि य सयसो सव्वेण सन्यो वि ॥२७८॥ 15 इय परियत्तसहावे संसारे मुणियधम्मतचाणं । रागो रोसो वि न होइ संगओ संगरहियाणं' ॥ २७९ ॥ तो भणइ कुसुमकेऊ 'भयवं ! भवभावणापरस्सावि । पसमइ न मज्झ नेहो, न याणिमो कारणं किं पि ॥२८॥ कुसुमाउहो विपभणइ ‘एवमिणं सामि ! जं मुओ वयइ । जइ नवरं गुरुणो च्चिय एत्थ वियाणंति परमत्थं' ।।२८१॥ आह गुरू 'चिरजाओ पइजम्मं पोसिओ य तुम्भेहिं । दुपरिचओ य तेणेस संपयं तवरयाणं पि ॥ २८२ ॥ एयाणुभावओ च्चिय जहुत्तजिणधम्मकारयाणं पि । न हि संवुत्ता मुत्ती अविओगासंसओ तुम्ह' ॥ २८३ ॥ 20. कहिऊण पुवचरियं नीसेसं ओहिणा परिभायं । संजायजाइसरणा पुणो वि गुरुणा समणुसहा ॥ २८४ ।। ताहे संविम्गमणा गुरुवयणाओ पिहंपिहभूया । भवभावभावणपरा मुणिचरियं चरिउमारद्धा ॥ २८५ ॥ __ अह अन्नया कयाई साहू कुसुमाउहो महासत्तो । पडिवन्नो गुरुवयणा एकल्लविहारियापडिमं ॥ २८६ ॥ एगत्तभावणाभावणुजओ निम्मओ निरासंसो। निम्भयनिप्पडिकम्मो अनिययचारी जियपमाओ ॥ २८७ ॥ वसइ गिरिनिगुंजे भीसणे वा सुसाणे, वणविडवितले वा सुन्नगारे व घोरे । 25 हरि-करिपभिईणं भेरवाणं अभीओ, सुरगिरिथिरचित्तो झाणसंताणलीणो ॥ २८८ ॥ जत्थेव मरो समुवेइ अत्थं, तत्थेव झाणं धरई पसत्थं । वोसट्टकाओ भय-संकमुक्को, रउद्दखुद्देहिं अखोहणिज्जो ॥२८९ एसइ उज्झियधम्मं अंतं पंतं च सीयलं लुक्खं । अकोसिओ हओ वा अदीणविदाणमुहकमलो ॥ २९० ॥ इय झोसंतो देहं कम्मसमूहं च धिइवलसहाओ । पत्तो कयाइ धीरो गामम्मि सुभोमनामम्मि ।। २९१ ॥ तत्थ य मुन्नागारे धम्मज्झाणे सुनिच्चलमणस्स । परिसुद्धमुत्तरुत्तरसंजमठाणं चडंतस्स ॥ २९२ ॥ 30 जायं कह व पमाया पलीवणं मज्झरत्तकालम्मि । पलयसमए ब जलणो पज्जलिओ मारुयवसेण ॥ २९३ ॥ 'उट्ठह धावह लग्गं कुक्कु' त्ति भणंतसंभमुभंतो । करगहियकडिल्लो चिय अड्डवियड्डो जणो भमिओ ॥ २९४ ॥ १नो वेइया जे०विना ॥ २ "भ्रमरत्वम्" खं१टि. खंरटि० ॥ ३ रिव जे निना ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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