Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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२०५
३२९]
कुसुमाउह कुसुमके उमुणीणं देवलोगगमणं । निप्पडिकम्मसरीरो गुरुवयणाओ मुणीहिं निउणेहिं । सम्ममुववृहणाए संवड्ढियमुद्धपरिणामो ॥ ३२५ ॥ पणुवीसवासरेहिं चइऊण कलेवरं पयइपूइं । धन्नो सो उववन्नो अणुत्तरे सुरविमाणम्मि ॥ ३२६ ॥ जं तं संसारसारं अपमयपमयं निहिएसा-विसायं, कामं निकामकामं परममविरमं नहनीसेसकेसं । संसुद्धं सुद्धलेसं गय-भयरहियं रूवमुंदेरसीमा, तं सपत्ता पवित्तं मुचरियचरणा दो वि ते धम्मदेवा ॥३२७॥
असमसमसमग्गा भग्गदोहग्गमग्गा, रइ-अरइविउत्ता सारसंतोसजुत्ता। तिगसमहियतीसं सागराई निरीसं, धरिय मुरवरत्तं पुनपब्भारपत्तं ॥ ३२८ ॥ अणिच्चभावं भवसंभवाणं, भावाण सवाण वि दावयंता । भुत्तावसेसेण सुहेण सद्धिं, चर्विसु तत्तो लहिउं व सिद्धिं ॥ ३२९ ॥ ॥ इय पुहइचंदचरिए कुसुमाउहरायरिसिचरियं दसमं भवग्गहणं सेमत्तं ।।
[ ग्रन्थानम्-५६० ]
१ सम्मत प्रा.
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