Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 270
________________ ८४] केसवबडुयदिटुंतपुररसरो पुहइचंदकओ भजापडिबोहोवएसो । २११ इयरेहिं वुत्तं 'तव्वेलमेव कीस न गहियं ?। सो पडिभणइ 'गहिउमणो जग्गाविओ म्हि रारडंतेण दुट्टगद्दभेण तेण न गहिउं पारिय'ति । ताव य 'अहो! महामूढो सुविणाणुमग्गेण धावई' त्ति कोलाहलमुहलियनहयलेहि दिन्नतालमुवहसिओ समाणमाणवेहि, खित्ताओ छार-कयारमुट्ठीओ सिरम्मि, खिसिओ गेहिणीए, तहा वि अञ्चंतमूढयाए न उवरओ खणणाओ ताव जाव कुड्डपडणेण मोडियकडियडो पत्तो एगंतसोयणिज्जमइदारुणमवत्थंतरं ति । [ केसवबडुयदिलुतो समत्तो. १२ ] एवं सुणमाणीओ लज्जोणयवलियकंधरं ताओ । सव्याओ गलियलज कहकहसदं पहसियाओ ॥ ७३ ॥ अह भणइ पुहइचंदो 'भो विट्ठ ! कहे हि सच्चयं मज्झ । हासयरं होइ न वा केसवबडुयस्स परियमिणं? ॥७४॥ आह पहट्ठो विठू "हासयरं कुमर! मुट्ठ एयं ति । किंतु 'कह तेण तुल्लो पाणिगणो एस सबो वि?' ॥७५॥ एयं तुम्ह पसाया इच्छामो जाणिउं सभावत्थं" । इय पुट्ठो परितुटो वजरइ कुमारवरसीहो ॥ ७६ ॥ 10 "भट्ट ! सन्यो वि जीवो मुक्खबंभणसमो, जओ न याणाइ हिया-ऽहियं, न बुज्झइ कन्जा-ऽकजं वसीको पयइफरसाए पडिकूलसहावाए पावाए कम्मपरिणईबंभणीए भूरिभवगहणभवणभमणवित्तीए कालमइक्कमेइ । तन्निओगओ चेव कयाइ सुवनभूमिं व पुनसुवन्नुप्पत्तिरमणिज्जमुवेइ मणुयजोणि । भवियव्ययावसेण य दाणा-ऽणुकंपा-ऽकामनिजराईहिं समज्जियसुकयकणओ वि मोहिज्जइ मयणमाइंदजालिएण । तओ परमत्थओ अविजमाणाए वि सजइ विसयसेवामायाकन्नयाए । तस्संपत्तिनिमित्तं च पवत्तमाणो नाणारम्भेसु घाएइ पाणिणो, वंचेइ अलियप्प- 15 लावेहि परं, हरेइ परधणाई, मग्गेइ परदाराई, पिण्डेइ परिग्गरं, करेइ कलहडमराई, दूमेइ परपरिवाय-पेसुन्नय-5 भक्खाणदाणेहि पाणिगणं । एवं च हारियपुव्वज्जियसुकयकंचणो अणासाइयसमीहिओ भमइ नरय-तिरियगइरूवेमु विचित्तदेसेसु । पुणो वि कत्थइ भवसन्निवेसे जायाणुकंपेण केणइ धम्मायरियगाहावइणा तवचरणदहिकूरदाणेण समासत्थीकओ पाविऊण नग्गोहगंधेल्लिं व वीसामथामभूयं राय-तलवर-महेसराइ-कुलुप्पत्तिं सुबइ मोहनिदाए । तओ मोहिज्जइ सुविणोवलंभविम्भमेण खणदिट्ठनटेण भोगसुह-संपया-सयणपरियणसंपओगेण । तो अन्नाणदोसओ पुणो 20 पुल्वपरिचियं कम्मपरिणइबंभणीमणुसरइ । परिकप्पइ अविज्जमाणं पि आयमंदिरे सुहसमिद्धिं । कहं ? - हय-गय-कोस-वसुंधर-भिच्चऽज्जण-पालणप्पयासं पि । मन्नइ अणन्नसामन्नसुहमहो ! मोहमाहप्पं ॥ ७७ ॥ रमइ निकामं कामाउरेण हियएण बाहिरम्मेसु । मल-मंस-वच्चपरिपूरिएसु जुवईणमंगेसु ॥ ७८ ।। दीसंतासुइजल-जैलुस्स-दूसियादूसणं पि रमणीणं । मन्नई लोयणजुयलं सरिसं सरसारविंदेण ॥ ७९ ॥ निच्चपरिकम्मरम्मं चम्म-ऽटि-सिरावियाणसन्नद्धं । सुइणा सारयससिणा वयणं तोलेइ कीलाणं ।। ८०॥ 25 तुंदासुइरसपञ्चालियं पि दंतुल्लिदुरहिगंधं पि । मन्नइ अहरो अहरोहमिट्ठममयं व पमयाणं ।। ८१ ॥ दिहिसरूवाओ चिंतइ कंताण दन्तपंतीओ। मूढो मणहरपरिमलकलियाओ कुंदकलियाओ ॥ ८२ ॥ तयमेत्तगुत्तदोसे उरोरुहे मंसबुब्बुए थीणं । कप्पेइ मोहधुत्तीरयाउरो कणयमयकुंभे ।। ८३॥ मंस-ऽटिनिम्मियाओ मोहमहातिमिरभरियदिछिल्लो । महिलाहिलाओ मन्नइ कोमलकंकेल्लिकर्णईओ ॥ ८४ ॥ । १ "गृह" खरटि० ॥ २ मंस-मजपरि जे०विना ॥३'जलूस-एं भ्रा० ॥ ४ इ सुगंधिसुइणा सरिसं जे०॥ ५ संकेत:-"कोलाणं ति श्रीणाम्" । "नववधूनाम्" खंरटि० ॥ ६ “जठर" खरटि. ॥ ७ संकेत:-"पञ्चालियं ति प्लावितमाच्छादित वा” ॥ ८ सङ्केत:-"हिलाओ ति भुजाः" ॥ ९ संकेत:-"कणईओ त्ति शाखाः" ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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