Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 247
________________ 5 हवीचंदचरिए नवमे कणयञ्झय-जयसुंदरभवे दोण्हं देवलोगगमणं । [ ९.२३५-३९] वासारते सुगुत्ता गिरिगुहकुहरे ठन्ति संलीणकाया, झायंता वीयरायं सिवपयमुहयं सिद्धिबद्धाणुराया ॥ २३५॥ कमलविमलचित्ता कोईचंद सोमा, तरुणतरणितेया निब्भया केसरि व्व । सलिलनिहिगभीरा खंतिजुत्ता महीना, समणगुणमणीणं पाविया से निहित्तं ॥ २३६ ॥ तवखवियसरीरा सेलरायग्गधीरा, गरहियअइयारा पत्तसामन्नपारा । अणसणथिरचित्ता देहगेहं रहित्ता, विजयवरविमाणं ते गया पुनठाणं ॥ २३७ ॥ सद्दे य रूवे रस-गंध-फासे, अणुत्तरेऽणुत्तरपुन्नजोगा । संवेयमाणा गयकामकामा, कालं वयंतं पि न ते मुणंति ॥ २३८॥ ईसा विसाएहिं मणे अपुट्ठा, संपन्नसव्विंदियकामियत्था । बत्तीसईसागरनामधेयप्पमाणमाउं विगमिंसु तत्थं ॥ २३९॥ ॥ इय पुहइचंदचरिए कणयज्झयरायरिसिचरियं नवमं भवग्गहणं समन्तं ॥ [ ग्रन्थाग्रम्-६०१ ] १८८ १ गणंति जे० १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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