Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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२३४] पुरिसोत्तम-कविंजल-कणयझय-जयसुंदराणं पव्वज्जागहणं ।
१८७ सम्भावेण वहंति संजमभरं जे भत्तिए सत्तिए, नाणुज्जोयतवोविहाणविहिणा तित्थुन्नईकारिणो । कुव्वन्ता सुमुणीण ताणमणिसं हीलं महावालिसा, अप्पाणं नरयानले मुहु मुहुं पाडिन्ति मूढा मुहा ।।२१० कामा-ऽरम्भ-परिग्गहग्गहपरा भोगोवभोगत्थिणो, जे वम्भव्ययधारिणो मुणिवरे हीलन्ति मोहाउरा । ते काणं-ऽधय-कुंट-मंट-बहिरा दालिदिणो रोगिणो, संसारे सुइरं सरन्ति सययं हीलिज्जमाणा जणे॥२११ अन्नाणंधा एवं नरवर ! जिणसासणं पि लहिऊण । मजन्ति भवसमुद्दे अणोरपारे दुहालिद्धा ॥ २१२ ॥ ता पत्तविवेगाणं अणेगविग्याउलम्मि संसारे । सत्ताण चरणकरणे समुज्जमो सव्वहा जुत्तो" ॥ २१३ ॥ इय सुणिय मुणियतत्तो संवेगमणुत्तरं समणुपत्तो । पुरिसोत्तमनरनाहो जाओ चरणे ददुच्छाहो ।। २१४ ॥
तओ पुरिसचंदं कुमारं नरिंदपए निरूविऊण कविजलपमुहपहाणपरियणेण समं पवनो समणभावं, जाओ जहुत्तकारी उज्जयविहारी महामुणि त्ति।
अह कणयज्झयराया सोउं दठ्ठण ताण चरियाई । विम्हियमणो मुर्णिदं वंदित्तु कयंजली भणइ ॥ २१५॥ 10 'जयसुंदरं कुमारं रज्जे ठविऊण तुम्ह पयमूले । एस पवज्जामि अहं पि उत्तमासेवियं चरियं ॥ २१६ ॥ तं पडिभणइ मुर्णिदो भवियंभोरुहविबोहदिवसिंदो। 'जिणमयकयभसलाणं जुत्तमिणं चेव कुसलाणं ॥ २१७ ॥ . चोज्जमिणं जं रज्जे रज्जति भवारिसा मुणियतत्ता । बालोचियधूलिघरुल्लएहिं छेया न हि रमन्ति ।। २१८ ।। पुबज्जियसुकयाणं रज्जे को नाम तुम्ह पडिबंधो ? । न कुणंति कोडिधणिणो कुवलय-चणएहि वाणिज्ज ॥२१९॥ . उत्तमतवारिहाणं छज्जइ रज्जट्ठिई न तुम्हाणं । रेहंति कयाइ न जच्चहीरया रीरियाहरणे ॥ २२० ॥ 15 छज्जइ जणो पबुद्धो पसाहिओ संजमेण परमेण । सोहइ सरएण अखंडमण्डलो पुनिमायंदो ॥ २२१ ।। ता सव्वहा न जुत्तो मुहुत्तमेत्तं पि संपइ पमाओ । लोए वि पयडमेयं-तुरिओ धम्मस्स गइमग्गों ॥ २२२ ॥ इय मुणिवइणाऽऽणत्ते राया वड्ढन्ततिव्वसंवेगो। 'भयवं ! तह' त्ति भणिऊण पमुइओ पडिगो कडयं ॥२२३॥ सामन्त-मन्तिमण्डलपुरओ जयसुंदरो वरकुमारो । तो तेण इमं वुत्तो 'वच्छय ! पडिवज रज्जधुरं ॥ २२४ ॥ अइयं पुण उत्तमपुरिससेवियं मुत्तिपुरवरीपयविं । गिन्हामि गुरुसमी- दुरियंतकरि महादिक्खं ॥ २२५॥ 20 पडिभणइ तं कुमारो 'किं जुत्तं उत्तमाण पियबंधुं । छोढूण गुत्तिबंधे पलायणं अप्पणा तुरियं ? ॥२२६॥ जइ सावज्जमणज्जं रजं वजेह सामि ! किर तुन्भे । अम्हे वि कह रमामो इमम्मि काराहरागारे? ॥ २२७ ॥ गुरुवयणमुणियनिग्गुणभवस्सहावाण देव ! अम्हं पि । न रमइ मणयं पि मणो खणं पि विसयामिसे पावे ॥ ता किं बहुणा ? पहुणा सहिया सहियाय उज्जमिस्सामो । अम्हे वि, न कज्जमवजहेउणा पावरजेण' ॥२२९।। नाऊण निच्छयं से राया कणयज्झओ कणयकेउं । नियतणयं अहिसिंचइ रज्जे तुरिओ चरणकज्जे ॥ २३०॥ 25 काऊण जहाजुत्तं माणं सामन्त-मन्ति-पत्तीणं । विच्छड्डेण सुवड्डेण बंधवा दो वि पन्चइया ॥ २३१ ॥ राया वि कणयके ऊ वयगहणमहामहं विहेऊण । तेसि कयवंदणो विरहविहुरिओ नियपुरि पत्तो ॥ २३२ ॥
ते दो वि महासत्ता वियसियवत्ता समुल्लसियगत्ता । गुरुजणविणयपवत्ता महामुणितं लहुं पत्ता ॥ २३३ ॥ अवि यसिद्धं सिद्धंततत्तामयममयमणा अप्पमत्ता पियंता, चित्तं चित्तं पवित्ता सम-पसमपरा सत्तवं संतवंता। 30 सत्ता सत्ताण ताणे हियविहियविऊ वीयरागेक्कराया, संताऽसंता सुकिच्चेऽकलिलकलिलया सच्चरित्तं चरन्ति॥२३४॥ हेमंते निति रत्तिं वसणविरहिया काणणे कंदरे वा, आयावंते सुतत्ते पुहइ-सिलतले गिम्हमज्झन्हकाले। १ 'बदर" खं१टि• खंरटि० ॥ २ वीतरागैकरागौ सन्तौ सुकृतेऽश्रान्तौ दुर्भद्यकलिलवरहितावित्यर्थः ॥
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