Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 255
________________ १९६ पुहवीचंदचरिए दसमे कुसुमाउह-कुसुमकेउभवे [१०.११९तो ते तओ वि भूवा भत्तिभरनिन्भरा सपरिवारा । तं वंदिऊण विहिणा उवविट्ठा धम्मसवणाय ॥ ११९ ॥ मुणिणा वि महुरझुणिणा करुणासहिएण तिहुयणहिएण । पारद्धा सुविसुद्धा गंभीरा देसणा तेसिं ॥ १२० ॥ 'भो भो भवभीयमणा! भव्यजणा! पाविऊण मणुयत्तं । जलबिंदुचले जीए अप्पहियं सबहा कुणह ॥१२१॥ तं इणह जेण निहया, तं विजिणह जेण निज्जिया तुन्भे । तं धरह बसे निचं वसीकया जेण सव्वे वि ।।१२२।। तं कीरउ परमरणं परमरणं जत्थ नत्थि नियमेण । तम्मि रई कायन्या जम्मि रई सन्चहा नत्थि' ।। १२३ ॥ __ अह भणइ माणतुंगो राया 'भयवं! न याणिमो सम्मं । तुब्भेहिं जमाइर्ट इमेहिं गंभीरवयणेहि ॥ १२४ ॥ जओनिहया वयं न केणइ, न निज्जिया, न य वसीकया जाउ । सच्छंदनरिंदाणं ता भणह किमेवमाइलु ? ।।१२५॥ किह वा तं परमरणं परमरणं जत्थ सव्वहा नत्थि?। कह कीरउ तम्मि रई जम्मि रई नियमओ नत्थि?॥१२६।। 10 अवितहवाई भयवं, तहा वि अम्हे अईवदुम्मेहा । सम्मं अबुज्झमाणा पुच्छेमो एत्य परमत्यं ॥ १२७ ॥ तो भणइ मुणिवरिंदो 'मोहनरिंदेण कारिया तुब्भे । अन्नाणमज्जपाणं तेण न लक्खेह परमत्थं' ।। १२८ ॥ तो पहसियमुहेण भणियं रायसेहरेण 'भयवं ! को एस मोहराओ ? कत्थ वसइ ? केरिसी वा तस्स रजटिइ ? त्ति नाउमिच्छामो भगवओ पसाएण' । भगवया भणियं “अंतरंगो सो, जिणधम्मनरवइओ सुबोहनामो सुदंसण चुनं जया तुम्ह दाही तया जहटियं तं तुम्भे मुणिस्सह, आगंतुकामो य सो तुम्ह समीवं, जावऽज्जवि न पहुप्पइ 15 तावाहं पि तुम्हमइकोउगं ति साहेमि तस्सरूवं केत्तियं पि [११. कम्मपरिणामस्वयं] अत्यि अणेगअच्छेरयपउरे जयउरे नयरे मुरा-ऽसुर-नरिंदाखंडियसासणो सिहजणजणियपसाओ दुट्ठलोयदावियाणिनिट्ठो कम्मपरिणामो नाम राया। तस्स य एगन्ताणुरत्ता. छंदाणुवित्तिनिउणा कालपरिणई नाम सहयरी । तेसिमदिट्ठविप्पओगदुहाणं सयलनायरजणाखंडियसासणाणं अणाइरज्जाणुपालणरयाणं कयाइ जाया चिन्ता 'केत्तिो 20 अम्ह अंतरंगपरिवारो ? को वा केत्तियाहिगारकारी ? केवइयपसायारिहो व 'त्ति । तओ दिट्ठो मोहकुमारो अइबलवं राग-दोसमुहडेहिं । नीसेसरज्जकजाणुचिंतणे वावडो निच्च ॥ १२९ ॥ अन्ने वि सत्त कुमरा नाणावरणाइणो जणगभत्ता । जयउरलोयं सयलं अणन्नचित्तं थिराविता ॥ १३०॥ तो भणइ महाराओ देविं ‘एवंविहेस कुमरेसु । निहिऊण रज्जभारं चिट्ठामो निव्वुया इन्हेिं' ॥ १३१ ॥ सा भणइ 'जुत्तमेयं पिययम ! पुरिसस्स बुद्धिमंतस्स । कुमराण वि पुत्तत्तं सलाहणिजं हवइ एवं ॥ १३२ ॥ 25 भणियं च जाएमु जेसु जणओ पुब्बिं पिव वहइ दुव्यहं भारं । वालेयाण व तेसिं सुयाण जम्मं मुहा मन्ने ॥ १३३ ॥ तुटेण तओ तुरियं मोहकुमारो पइडिओ रज्जे । सेसाणं च पसाया कया महन्ता जहाजोगं ॥ १३४ ॥ भणिओ मोहो 'पुत्तय ! सवहिगारी पुरा वि तं आसि । इन्हिं तु विसेसेणं पालेजसु पुरजणं एयं ॥ १३५ ॥ अइयं तु निव्वुयमणो निच्चं पेच्छणयपेच्छणक्खणिओ। वियरिस्सामि जहिच्छं संपइ एत्थेव नयरम्मि' ॥१३६॥ मोहो वि समुन्नद्धो जयउरलोयस्स बहुमओ अहियं । अविभावियपडिवक्खो संपत्तो रायरायत्तं ॥ १३७॥ अन्नदिणे सहस चिय धाहासदो पुरे समुच्छलिओ। 'किर निजति पयाओ चारित्तनिवेण सिवनयर' ।। १३८ ॥ . तो कोवारुणनयणो कयभीसणभिउडिभंगदुप्पेच्छो । वड्ढियगाढामरिसो मोहनिवो भणिउमारतो ॥ १३९ ॥ १ जण पायं खा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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