Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 251
________________ १९२ पुहवीचंदचरिए दसमे कुसुमाउह-कुसुमके उभवे [१०.४६'जम्म-जर-मरणवेयण-इविओगाइदुक्खभरियस्स । मायासुविणयजइणो धिरत्थु संसारवासस्स ॥ ४६॥ खणसंजोय-विओए खणपरियट्टन्तमुह-दुहाभोए । खणदि-नट्ठविहवे सारं किं नाम संसारे? ॥४७॥ जेण विणा न हु सक्का धरिलं पाणे निमेसमेत्तं पि । तन्धिरहिएण विहिणो वसेण वासा गमिज्जन्ति ।। ४८॥ पुत्त-कलत्तं सुहि-सयण-बंधवा संपया वि जीवाणं । कुणइ सुहं भवगुम्बे तं पि अणजो हरइ वेहा ॥४९॥ मुद्धा मए विउत्ता न याणिमो कं दसं समणुपत्ता ? । जइ ता धेरही पाणे ता गम्भगुणा धुवं जाणे ॥५०॥ अमयमइओ ब्व होही कयाइ सो वासरो सुक्रयजोगा । जम्मि वयणं पियाए पेच्छिस्समहं पमुइयाए' ॥५१॥ इच्चाइ चिंतयंतो अवइज्झियभोयणाइववहारो। भवविरयनेहनडिओ संकिन्नरसो निवो जाओ ॥५२॥ आसासिओ य बहुसो अमच्च-नेमित्तिएहिं निउणेहिं । दइयासंगमसंस्यणेण तह पुत्तलामेण ॥ ५३॥ 'दइयासमागमाओ परेण गेहासमे न ठाइस्सं' । एक्कयनिच्छओ तो. पकओ देहडिई राया ॥ ५४॥ 10 देवी वि वन्तरीए मुक्का घोरे विसालरनम्मि । विम्हय-भयाभिभूया चिन्तिउमेवं समारद्धा ॥ ५५ ।। 'हा! किमियमिदयालं? किं वेलविय म्हि दड्वसुविणेण?। कत्थ तयं मह गेहं? कत्तो सुन्नं इमं रनं?' ॥५६॥ 'हा अज्जउत्त! तुरियं पडिवयणं जइ न देसि एत्ताहे। जलणपडियं व मयणं ता मज्झ विलिन्जए हिययं ॥५७।। तइ पुहइसामिसाले केणइ खुद्देण निरवराहा वि । नाहाऽणाह ब अहं पेच्छारम्नम्मि छूट म्हि ॥ ५८ ॥ ___ हा! किं नु मए पुव्वं पावाए पाक्कम्ममायरियं ? । जेपातक्कियमेयं समागयं दारुणं वसणं' ॥ ५९ ॥ 15 इय विविहं विलवन्ती बहुसावयसदसवणकयकंपा । उहइ मुदीणवयणा 'नमो जिणाणं' ति जपंती ॥ ६० ॥ विहुरगयाण वि जेसिं जीहग्गे फुरइ जिणनमोकारो। ते धन्नाण वि धन्ना सुजीवियं जीवियं तेसिं ॥ ६१॥ 'कत्तो वयामि संपइ? कत्तो वसिमं च ? निभयं कत्तो?'। इय चिन्तावाउलिया चलिया सादाहिणाहुत्तं ॥१२॥ कत्थइ सीहनिनायं वग्धघुरुकं च कत्थइ सुणती । फेरवरवं च घोरं कंपइ पवणाहयलय च ॥ ६३ ॥ रवितवियमेइणीएऽणुवाहणा डज्झमाणपायतला । गोखुरुकंटयविद्धा सोणियचितलियमहिवीढा ॥ ६४ ॥ अड्डवियड्डा चण्डे सुन्ने रनम्मि तम्मि चंकमिरी । वच्चइ कहंचि मुच्छं, पवणेण य चेयणं लहइ ॥ ६५॥ चिंतइ 'अतक्कियं कह महंतमेयं समागयं वसणं? । रूसामि कस्स संपइ अमुणियतत्ता भयदुहत्ता ? ॥६६॥ अहवा अन्नाणवसा कयं मए कि पि पावमइयोरं । तस्स विवागा दुक्खं विसहामि सुदुस्सहं इन्हि ॥ ६७ ॥ उवभुंजइ पुन्चकयं सबो वि जणो सुहा-ऽसुहं सव्वं । नियकयकम्मुवभोगे कं पइ किर रूसिउं जुत्तं ॥ ६८ ॥ भाविती जिणभणियं पुरओ दगुण वाहसमुवितं । भयवेविरसव्वंगी पुणो वि तुरियं तो नट्ठा ॥ ६९ ॥ कत्थइ करिवरदरिया, कत्थइ वणसेरिहाणमुत्तत्था । तन्हा-छुहाभिभूया राणा दीणा दुहकिलंता ॥ ७० ॥ परिणयपायम्मि दिणे रुयमाणी तावसीहि सा दिहा । आसासिया कमण्डलुजलेण सिसिरेण घिमलेण ।। ७१ ॥ नेऊण आसमपयं गुरुणीए दंसिया दयासारं । तीए वि समणुसट्टा कारविया पाणवित्तिं च ॥ ७२ ॥ भणिया य नेहनिउणं 'एरिसकल्लाणमुत्तिजुत्ता वि । कहमिव भीमे रन्ने पत्ता सि इमं महावसणं ?' ॥ ७३ ।। तीए वि 'अकारणवच्छल 'त्ति कलिऊण विणयपणयाए । सिट्ठो नियवुत्तंतो जइ वि न संभावणाजोगो ॥७४॥ 30 तावसीहिं भणियं 'ही! निग्गुणो संसारो जत्थेवमसंभावणिज्जाणि पाणिणो वसणाणि पाउणंति, ता परिचय विसायं, अत्थि य ते पुनसंचओ जेण तवोवणमागया सि, ता चिट्ठ ताव निव्वुया जाव कुलवई विनविय १ धरिही जे०विना ॥ २ गोखुरक भ्रा० ॥ ३ रूसियं जु जे. ॥ ४ सकेत:-"वाहसं ति अजगरम्" ॥ ५ "भीता" खंटि० ॥६ घणसेरिहीण खं१ खं२ ॥ 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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