Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 136
________________ २७४] देवसेण-चंदकंताणं पवजा देवलोगगमणं च । तओ पियंकरचक्कि-मइसागरमंतित्तेगोववन्नाणं निव्वाणं। ७७ अनया य सुयसागराणगारंतिए निसामिऊणं संसारासारयं, मञ्चु-जरा-रुयाणं च दुनिवारयं, विसयाण विरसावसाणयं, रजस्स य बंधणसमाणयं सासयसुहासाए पियंकरारोवियरजभारो पडिवन्नो समणभावं सिरिवाहणो राया, तेण समं मइसागरनिउत्तमंतिसद्दो बुद्धिसायरमंती वि। ताहे पियंकरनरिंदो समासाइयचक्काइमहारयणो पसाहियसयलभारहो बत्तीसमहासामंतसहस्समत्थयालिमालालिहिज्जमाणपायपंकओ चउसद्विसहस्ससंखंतेउरकमलायरे रायसो इव लीलाए अभिरमंतो 'ठिओ गाइं पुन्बल- 5 क्खाई । अइवल्लहो य तस्स राइणो मइसागरमंती । अवि य नो मायंगा न चंगा तुरयरहवरा नेव सामंतजोहा, भंडागारं न सारं न रयणनिहिणो नेत्र दारा उदारा । नडे गेयं न तारं तह मणहरणं नेय रजं न रहें, दिट्ठो रुटो वि तुढेि जह अह सचिवो राइणो से करेइ ॥२५३॥ मंती वि निवं मन्नइ देवं व गुरुं व निद्धबंधुं व । हिययं च लोयणं पिव सबस्सं जीवियं व सया ॥ २५४ ॥ इय निविडपरोप्परनेहविम्हया अन्नया दुवेण्हं पि । कारणजिन्नासाए जाया चिंता अइमहंता ॥ २५५ ॥ 10 'होयन्वमम्ह नूणं परभवसंबंधिणा सिणेहेण । न हि सामि-सेवगाणं पीई एवंविहा घडइ ॥ २५६॥ ता जइ कहिं पि कत्थइ पेच्छामो दिव्धनाणिणं किं पि । ता तं पुच्छिय करिमो विनिच्छयं एत्थ वत्थुम्मि॥ इय चिंतिराण तेसिं संसयसंतमसनिरसणदिणिंदो । सुरगणमहिओ तहियं समागओ सुप्पहजिगिंदो ॥ २५८ ॥ मुत्तोऊलपलंबियफलिहफुरंतोरुकिरणजालेण । छत्तत्तएण सुइणा रेहंतो नियजसेणेव ॥ २५९ ॥ पेल्लंतो तमनियरं समंतओ निययतणुसमुत्थेण । भामंडलेण महया मुत्तिमया केवलेणं व ॥२६०॥ 15 पुरओ चलंतचामर-सिंहासण-चक्क-चिंधरुनहो । उग्घुट्ठजयपहुत्तो दुंदुहिणा तारसद्देण ॥ २६१ ॥ अणुगम्मतो मुणिमंडलेण पउमावलीठवियपाओ । सुररइयसमोसरणे उवविट्ठो भन्बबोहत्थं ॥ २६२ ॥ वद्धावयपुरिसाओ सोउं तं दो वि पमुइया धणियं । सीयंतछेत्तवासंतकालिया रोरसणिय च ॥ २६३ ॥ गंतुं सब्बिड्डीए नमिऊण य पायपंकयं पहुणो । सिरनिमियकरंजलिणो उवविट्ठा उचियदेसम्मि ॥२६४ ॥ अह सबसभासाणुगवाणीए सनसत्तहियनिरओ। सबन्नू सन्वेसि जियाण उबइसिउमारद्धो ॥ २६५ ॥ 20 अवि यजम्म-जर-मरणनीरे भवण्णवे भीमदुहसयावत्ते । धम्मतरंडारुहणे जुत्तो जत्तो सयन्नाणं ॥ २६६ ।। पडइ अथक्के सव्वत्थ एत्थ सन्वेसि पाणिमीणाणं । विहिधीवरनिम्मवियं सुदारुणं मरणमहजालं ॥२६७ ॥ विसयामिसलुद्वमणा मुद्धा मीण व्य पाणिणो एत्थ । नियकम्मकढिणवडिसम्गपेल्लिया दुइपयं हुंति ॥ २६८ ॥ अड्डवियड्डाहिंडणे-उब्बुड्ड-निबुड्डणाई कुणमाणा । कम्मवसा इह जीवा चिटुंति अणिट्ठियदुहोहा ॥ २६९॥ 25 जायइ जलजंतूणं एत्थ रई विविहदुहनिहाणे वि । चित्तमिणं पुण जं धीवरा वि ईहई चिय रमंति ॥ २७० ॥ अकयसुकया अणेगे मग्गंता संपयं पयत्तेण । भग्गमणोरहपोया निहणं संपाविया एत्थ ॥ २७१ ॥ तरणुज्जया वि अन्ने गाढं गहिऊण दुट्ठगाहेहिं । असमंजसं रसंता खिप्पंति खणेण पायालं ।। २७२ ॥ तीरासग्णं पि गया खुत्ता अइचिकणे विसयपंके । तीरगमणासमत्था निहणं वच्चंति तत्येव ।। २७३ ॥ ता भो ! बुज्झह बुज्झह, मा मुज्झह इंदयालकप्पेहिं । भोगेहिं भुयंगमभंगुरेहि विरसावसाणेहिं ।। २७४ ॥ 30 १वाहणराया जे विना ॥ २ठिओ अणे जे विना ॥ ३ संकेत:-"सीयंतछेत्तवासंतकालिया रोरसणिय व्य ति सीदत्सु क्षेत्रेषु वर्षति मेघे यथा दरिद्रा प्राम्यलोकाः" । "सीदति-जलरहितत्वेन शुष्यमाणक्षेत्रे वर्षती कालिका-मेघपकिर्येषां ते सीदरक्षेत्रवर्षत्कालिकाः, रोरसणिया-रङ्कग्रामीणाः" जेटि• ॥ ४ यं दारुणमरणं महाजालं खं२ भ्रा० ॥ ५ णमुन्बुई जे विना ॥ ६ इयं खं१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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