Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१६० ] सूरसेण-मुत्तावलीणं चंदसेणहिहाणपुत्तप्पत्ती, सरयवण्णणं, ईसरमणिकहियऽत्तकहा य ।
१३३ भोत्तणं सुइसुंदरे सुरवहूसंदोहदेहाइए, भोए सागर-पल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरा। रज्जति स्थिकलेवरेसु असुईपुग्नेसु रिट्ठोवमा, मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिरं भुत्ता वि भोगा तओ' ॥१४२॥
एमाइदेसणायन्नणतणुइयभोगरागो मुणिं पणमिऊण पविट्ठो नयरं नरीसरो, ठिो मुणिगुणगणुकित्तणपरो जावजागरं । पुणो सुत्तविउद्धेण सहसा सुओ दुंदुहिरवो । तओ निच्छिऊण तस्स महामुणिणो नाणुप्पत्तिं अप्पमाणपमोयफुन्नमाणसो ससंभमो मुत्तावलीपमुहंतेउरपरिगो गो सव्यसामग्गीए मुणिपायमूलं । दह्रण देवनिवह- 5 विहियमहामहिमं महामुणिं विसेसियपरिओसो पणमिऊण य पुणो पुणो गुणत्थुइमुहलो निसन्नो सुद्धधरणीए कयंजली मुणिवयणमायग्निउं पचत्तो।
एत्यंतरे तेयसंपओवहसियतरुणतरणिमंडलो गंडयलघोलंतमणिकुंडली नवविवुद्धसुद्धसयवत्तनयणो जयजयारवमुहलमयलंछणच्छायवयणो नच्चिऊण चिरं निवडिऊण मुणिपायपंकए
___ 'जय मुणिवर ! जिणवरवयणलीण !, उद्धरियभूरिभवभीरुदीण ! ।
तवचंदहासजियमोहजोह !, संसाहियदुक्करमणनिरोह !' ॥ १४३ ।। एवं बहुविहं थोऊण निसनो मुणिचलणंतिए एगो दिव्यपुरिसो। ताहे संजायकोउगेण पुच्छियं राइणा 'भयवं ! को एस पुरिसो ? कीस वा एवमञ्चंतभत्तिवाउलो जाओ ?'।
तो भणइ मुणी महिवइ ! सम्मत्तगुणेण पाणिणो होति । एवंविहगुरुभत्ती, अनं पि हु कारणं सुणसु ॥१४४॥ नयरम्मि पउमसंडे दिसिदिसिरेहंतचित्तवणसंडे । ईसर-धणेसरऽक्खा होत्था वणिणो हसियजक्खा ॥ १४५॥ 15 निगंथ-भट्टसासणरयाणमासन्नमंदिरगयाण । किंचिसिणेहपहाणो वच्चइ कालो सुहं तेसिं ॥ १४६॥ नवरं दिणट्ठभागे भुजंतं सावयं पइदिणं पि । अन्नाणाओ खिंसइ धणेसरो ईसरं पयडं ॥ १४७ ॥ भणइ 'अहो ! अन्नाणं, दिणमझे भोयणं दुवे वारा । नत्तंवयं पवित्तं न कुणंति कयाइ जिणभत्ता ॥ १४८॥ सूरेण अदिस्संतं जं भुज्जइ तं न भुत्तयं होइ । उववास-एगभत्ताइ दिणगओ सव्यववहारो॥१४९॥ पडिभणइ ईसरो तं "उबविटागिट्टिकायगनरो व्ध । मा सुयमेत्तग्गाही होउं वंचेहि अप्पाणं ॥ १५० ॥ 20 जुज्जइ जं विउसाणं गुण-दोसवियारणेण कज्जेसु । निचं पि पवित्ति-निवित्तिकारिया इट्ठसिद्धत्थं ॥ १५१ ॥ घेत्तबमप्पदोसं, मोत्तव्यं सन्बहा महादोसं । जह भुज्जइ धन्नाई निउणेहिं, न जाउ मंसाई ॥१५२ ।। तुल्ले वि फले वत्थु वहुदोसं परिहरंति सप्पुरिसा । जह परकलत्तसंगं परधणहरणं च जत्तेण ।। १५३ ॥ कंट-ऽद्वि-कट्ठ-कुंथू-पिवीलिया-वाल-मच्छियाईयं । दीसइ दिणे सुहं जह न तहा निसि दीवजोए वि ॥ १५४ ॥ विच्छुय-ददुरिगाइ वि मंदुज्जोए न वज्जिउं सका । इय पयडा निसिभत्ते दोसा, न गुणाण गंधो वि॥१५५ ॥ 25 तणुतित्तिफला भुत्ती दिणभोईण वि अवस्स सा होइ । नवरं निसासमुत्था दोसा दूरहिया तेसिं ॥ १५६ ॥ अकलंक दिणभुति मोत्तूण निसाए भोयणं जत्थ । नत्तंवयं पि एयं अनाणवियंभियं चेव ॥ १५७ ॥ 'सरेण अदीसंत भुत्तमभुत्तंति भणसि जं तत्थ । भण 'सो कया न पेच्छइ ?' निसि त्ति एवं पि हासयरं ॥१५८॥
सुरो हि दिबनाणी पञ्चक्खा तस्स सयलजणचेट्ठा । अचंतासंभविभासणं खु गाढयरमन्नाणं ॥ १५९ ॥ अन्नं च
जे भुंजंति न रत्तिं तेसि तवो होइ जीवियस्सऽद्धं । इयरेसिं तिरियाण व बच्चइ जीयं चरंताणं ॥१६॥
१गुणकित्तण जे० विना ॥ २'छणोव्यायवयणो जे.॥ ३ भुंजइ खं१ जे. ॥ ४ सङ्केत:-"उवविद्यागिट्टिकायगनरो व ति दायकेन लाघिताया उपविष्टाया एव, न तु स्वयं दोहेन परीक्षितायाः, गृष्टेः-धेनोः कायक:-केता नर इव" ॥
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