Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 207
________________ १४८ पुहवीचंदचरिए सत्तमे पउमुत्तर-हरिवेगभवे [७.१४४वट्टविसट्टलोयण वणसूयराणुगारिथूलद्धरसरीरं विविहवराडियामालियालंकियभालगीवं रणरणंतकणयकिंकिणीजा परिगयकणयसंकलासंदाणियं विउव्विय मज्जारं पत्तो नयरचच्चरं । मिलिओ सकोउगो नायरजणो धिज्जाइयगणो य, 'अइप्पमाणो मज्जारो' त्ति विम्हियमणो भणिउं च परत्तो 'भो! किं एस मजारो विकाइ ? जइ विकाइ ता केत्तिएण लब्भइ ? । खयरेण भणियं 'दीणारलक्खण' । जणो भणइ 'किं बिरालस्स एत्तियं मोल्लं घडइ ?' । खय5 रेण भणियं 'नेयं बिरालस्स मोल्लं किंतु गुणाणं, गुणेहिं पत्थरं पि कोडाकोडिधणारिहं, दारु पि लक्खमोल्लं करिति । अवि यवसह-गय-तुरंगाणं पत्थर-वत्थाण लोह-जोहाणं । अग्वे महं विसेसो सम्वो वि गुणा-ऽगुणनिमित्तो ॥ १४४ ॥ देवाण य धम्माण य समणाण य बंभणाण भुवणम्मि । अत्थि विसेसो गरुओ नज्जइ नवरं खु विरलेहि ॥१४५॥ तो विति वुड्ढभट्टा 'साहु तए मंतियं महाभाग !। ता कहसु केरिसा पुण एयस्स गुणा विरालस्स? ॥१४६।। 10 वज्जरइ तओ खयरो 'किमिह मुद्दा जंपिएण बहुएण ? । वच्चामि रायभवणं जत्थ गुणाणं हवइ अग्यो ॥१४७॥ भोत्तुमणा वि अरिहा भुंजंति न नौलिकेरिलंबीओ । सत्तिरहियाण रयणग्गहग्गहो निष्फलो चेव ॥ १४८॥ भिक्खाहारा विप्पा, वणिणो वि हु काँगणीगणणनिउणा । एयाण नियं रयणं दंसितो अइगहिल्लो है' ॥ १४९ ।। इय उल्लविरो खयरो वड-वाडवपरिचुडो खणरेण । पत्तो रायत्थाणं तं विसदंसं पुरो काउं ॥१५॥ पुनभवन्भासाओ दिट्ठो पउमुत्तरेण सहस त्ति । नेहामयपडिहच्छातुच्छच्छायाहिं अच्छीहिं ॥ १५१ ॥ 15 तेणावि मणपसाया विनाओ एस सो तणुपहाए । चिइ जयजयंतो सुरवइनियहे जयंतो च ॥ १५२ ।। एत्थंतरेदठूण महाकायं मज्जारं विम्हिओ महीनाहो । पभणइ खयरं 'भद्दय ! कहिं तए एस संपत्तो? ॥१५३ ॥ खयरेण भणिय'मसरिसभत्तिब्भररंजिएण देवेण । पुहइअसंभविख्यो एस पसाईकओ मज्झ ।। १५४ ॥ एयस्स नत्थि मोल्लं तेलोक्कम्मि वि महागुणड्ढस्स । दालिद्दपीडिओ हं तहा वि वियरामि लक्खेण ॥१५५॥ 20 राइणा भणियं 'भण केरिसा उण इमस्स गुणा । खयरेण भणियं 'एगं ताव महापमाणो, बीयं पुण सुणय मज्जारागंजियपरक्कमो, तइयं जत्थेसो निसि पि वसइ तं पएसं दुवालसजोयणेहि मूसगा परिहरंति, एए ताव पायडा, अन्ने वि अंतरंगा बहवे एयस्स गुणा, ता दंसेउ देवो एयं विउसविप्पाणं, कारवेउ मोल्लं, 'जेणेयं विक्किणेमि' ति । तओ रायाएसेण निरूवयंतेहिं दिट्ठो भणेहि तस्स उंदुरदरखइओ वामकन्नो। 'किमेरिसो कन्नो ?' ति पुच्छिएण भणियं 'निसहसोविरस्स एयस्स मूसएहिं खइओ' । हसिऊण भणिय बंभणेहिं 'जइ एवं 25 कहमेयं दुवालसजोयणेहिं मूसगा परिहरंति ? । खयरेण भणियं 'भट्टा ! नेवं रयणाणि दूसिज्जति, देवेमु वि एवं विरोहदंसणाओ, तहादि पुच्छामि ताव भट्टे-जो बंभणं महिलं बालं गार्वि वा हणइ सो पुरिसो केरिसो भन्नइ ? | भद्देहिं भणियं 'महापावो सो अदहन्यो' । हरिवेगेण भणियं “जइ एवं जो पज्जलिओ न मुयइ गो-बंभण-रमणि-डिंभयाईयं । पूइज्जइ कीस पुणो सो जलणो देवबुद्धीए १ ॥१५६॥ अह भणह 'मुहं एसो तेत्तीसाए वि देवकोडीणं । तत्तित्तिनिमित्तमिमो पूइज्जइ महु-घयाईहिं ।। १५७ ॥ 30 नेयं पि वियारसहं जम्हा जइ ता सुराण मुहमेसो । ता कह सिट्ठाऽ णिलं असुई-मडयाइयं गसइ ? ॥ १५८ ।। सोयपहाणा तुम्भे पूइंता असुइभोइणो देवे । वयण-किरियाविरोहं पच्चक्खं किं न लक्खेह ? ॥ १५९ ॥ १सकोयगो जे० ॥ २ यजणो य भ्रा• ॥३ नालिकेरलु जे विना ॥४ कागिणी भ्रा० ॥ ५वसदंसं जे.विना । "वृषदंशम्" खंरटि- । मूषकभक्षकम् , बिडालमित्यर्थः ॥ ६ जेण विक्षिणेमो त्ति जे विना ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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